‘‘तकसीम हुआ मुल्क तो दिल हो गए टुकड़े
हर सीने में तूफान यहां भी था वहां भी’’
कैफी आजमी के इस शेर के साथ शुरू होती है वो फिल्म जो देश के बंटवारे और उससे जुड़ी कहानियों को बारीकी और बेहतरीन तरीके से दिखाती है. साल 1973 में बनी इस्मत चुगताई की लिखी कहानी पर आधारित एमएस सथ्यू की फिल्म ‘गरम हवा’. गरम हवा हमारे लिए तब तक प्रासंगिक रहेगी जब तक भारत और पाकिस्तान रहेंगे.
फिल्म का स्क्रीनप्ले लिखने वालीं शमा जैदी ने एक इंटरव्यू में बताया था कि वो राजेंद्र सिंह बेदी के साथ एक नाटक पर काम कर रही थीं. बेदी ने उनसे कहा कि ‘‘आप लोगों को एक फिल्म बनानी चाहिए उन मुसलमानों पर जो बंटवारे के वक्त देश छोड़कर पाकिस्तान नहीं गए और इस फिल्म को सथ्यू बनाएंगे, इस्मत के पास जाओ वो एक कहानी लिखेंगी.’’
इस्मत ने कहानी लिखी और शमा जैदी ने स्क्रीनप्ले, लेकिन इस स्क्रीनप्ले को तराशा कैफी आजमी साहब ने. फिल्म की कहानी लिखने के लिए इस्मत चुगताई ने अपने आसपास के कई जीवंत किरदारों को इकट्ठा किया और खासकर अपनी मां का जिन्होंने पाकिस्तान न जाने का फैसला कर मरते दम तक हिंदुओं के बीच रहने का फैसला किया था. और इस तरह तैयार हुई ‘गरम हवा’.
‘गरम हवा’ बंटवारे के वक्त मुसलमानों की जिंदगी के हर पहलू को बयां करती है
‘‘कैसे हरे भरे दरख्त कट रहे हैं इस हवा में…’’
‘गरम हवा’ फिल्म सलीम मिर्जा की जिंदगी और उसके इर्द-गिर्द की घटनाओं पर आधारित है. बंटवारे की आग में देश झुलस रहा है. दोनों तरफ के लोगों में अफरातफरी मची हुई है. उधर से पंजाबी और सिंधी अपना घर और कामकाज छोड़कर भारत की तरफ आ रहे हैं, तो इधर के मुसलमान अपने बेहतर भविष्य के सपने लेकर पाकिस्तान जा रहे हैं. जिसे वो ‘अपना देश’ मानने लगे हैं. इन्हीं मुसलमानों के बीच एक आशावादी सलीम मिर्जा (बलराज साहनी) हैं, जिनका मानना है कि गांधी जी की शहादत रंग लाएगी और हालात शांत होंगे.
‘गरम हवा’ में बंटवारे के वक्त हुए सामाजिक, राजनीतिक, कारोबार और इंसानी मूल्यों में होते बदलावों को दिखाया गया है.
एक सीन में सलीम मिर्जा से जब तांगे वाला आठ आने की जगह दो रुपये मांगता है और बहस होने पर कहता है कि ‘‘आठ आने में चलना है तो पाकिस्तान जाओ.’’ इसके जवाब में सलीम मिर्जा कहते हैं ‘‘नई-नई आजादी मिली है, सब अपने-अपने ढंग से मतलब निकाल रहे हैं.’’
गरम हवा में ऐसे-ऐसे वन लाइनर डायलॉग हैं जो फिल्म देखने वाले को सोचने पर मजबूर कर देते हैं. फिल्म को इस ढंग से लिखा गया है कि हर डायलॉग में उस वक्त की राजनीति का दंश दिखाई देता है.
सलीम मिर्जा के भाई हैं हलीम मिर्जा, जो पहले खुद को मुसलमानों का सबसे बड़ा नेता बताते हैं और कहते हैं कि ‘‘इस देश से सारे मुसलमान चले जाएंगे फिर भी मैं मरते दम तक यहीं रहूंगा.’’ लेकिन वो पहली फुरसत में ही पाकिस्तान निकल लेते हैं. ऐसे ही एक और किरदार हैं सलीम मिर्जा के बहनोई का जो मुस्लिम लीग के नेता होते हैं लेकिन बाद में कांग्रेस में शामिल होते हैं. एक सीन में सलीम मिर्जा के ये कहने पर कि ‘‘मियां तुम तो पक्के लीगी थे’’ पर वो सकपका जाते हैं और कहते हैं कि अब भारत के मुसलमानों के पास बस दो ही रास्ते हैं- ‘‘या तो कांग्रेस में शामिल हो जाओ या पाकिस्तान जाओ.’’
सलीम मिर्जा का जूते का कारोबार है. बंटवारे की वजह से कारोबार में घाटा होता रहता है. नए ऑर्डर नहीं मिलते और न ही कहीं से कर्ज. कर्ज और ऑर्डर न मिलने के पीछे वजह सिर्फ इतनी है कि बंटवारे के बाद मुसलमान पाकिस्तान जा रहे हैं तो कोई भी उनपर भरोसा नहीं कर रहा.
देश में मुसलमानों को अलग-थलग करने और देश के प्रति उनकी वफादारी पर सवाल उठने की शुरुआत भी बंटवारे के साथ ही शुरू हुई. देश की मौजूदा राजनीति के चलते हो रहे सामाजिक बदलावों, धार्मिक आधार पर होते संघर्षों के बीच ‘गरम हवा’ और प्रासंगिक हो जाती है. दर्शक सोचने लगता है कि मुसलमानों के साथ आज भी वही मसले जुड़े हुए हैं जो बंटवारे के वक्त थे और 7 दशकों से वो जिसे ढो रहे हैं.
फारुख शेख ने इस फिल्म के साथ फिल्मी दुनिया में कदम रखा था. शेख ने सलीम मिर्जा के छोटे बेटे सिकंदर का रोल किया है. जो पढ़ाई के बाद नौकरी की तलाश में है. बेरोजगारी कोई नई समस्या नहीं है उस वक्त भी नौकरियों के लिए मारामारी थी. लेकिन सिकंदर को नौकरी नहीं मिलती लेकिन ये नसीहत जरूरत मिलती है ‘‘आप यहां अपना टाइम बर्बाद कर रहे हैं आप पाकिस्तान क्यों नहीं जाते?’’
बलराज साहनी ही नहीं देख पाए अपनी बेस्ट फिल्म
किसी भी सीन में बार-बार रीटेक करवाने के लिए मशहूर बलराज साहनी ने जब सलीम मिर्जा का किरदार निभाया और फिल्म क्रिटिक्स ने देखी, तो इस फिल्म में निभाए उनके किरदार को उनकी जिंदगी का बेस्ट परफॉर्मेंस बताया गया. लेकिन अफसोस कि वो खुद अपनी बेस्ट परफॉर्मेंस नहीं देख सके. फिल्म की आखिरी लाइन जिस दिन उन्होंने डब की उसके अगले दिन उनका देहांत हो गया.
फिल्म के क्लाइमैक्स में सलीम मिर्जा का डायल़ॉग है ‘‘इंसान कब तक अकेला जी सकता है?’’ इसी डायलॉग को बलराज साहनी ने आखिरी बार डब किया था.
ये फिल्म बलराज साहनी के लिए जितनी खास है, उतनी ही एमएस सथ्यू के लिए भी है. साल 2014 में 40वीं सालगिरह पर जब ये फिल्म दोबारा रिलीज की गई थी, उस वक्त सीनियर जर्नलिस्ट जिया उस सलाम ने लिखा था कि ‘‘जैसे के. आसिफ के लिए ‘मुगल-ए-आजम’, कमाल अमरोही के लिए ‘पाकीजा’ है, वैसे ही एमएस सथ्यू के लिए ‘गरम हवा’ है.’’ सथ्यू ने कन्नड़ फिल्मों की तरफ रुख जरूर किया लेकिन इकलौती यही फिल्म है जो उनको भारतीय सिनेमा में बड़े फिल्मकारों की कतार में खड़ा करती है.
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