(इस आर्टिकल को 28 अगस्त 2018 को प्रकाशित किया गया था. राज कपूर की पुण्यतिथि पर इसे दोबारा पब्लिश किया गया है.)
सात दशक पुराना आरके स्टूडियो. इसके इर्द-गिर्द कितनी ही कहानियां घूमती हैं. राज कपूर की पत्नी और उनके पांच बच्चों ने अब इसे बेचने का फैसला कर लिया है. एक बार राज कपूर ने हल्के-फुल्के अंदाज में कहा था, "ये जगह ईंट और पत्थर ही तो है."
1940 के दशक में जब राजकपूर ने चेंबूर इलाके में अपना ये स्टूडियो बनाया था, तो ये इलाका बहुत ही कम आबादी वाला मुंबई का एक उपनगर था. तब इसे मुंबई से खंडाला-लोनावाला के रूट के रूप में जाना जाता था.
1949 के करीब आग (1948) और बरसात (1949) के निर्देशन के थोड़े ही दिनों बाद राज कपूर ने अपनी पत्नी कृष्णा मल्होत्रा के परिवार के एक सदस्य से लोन लिया. कृष्णा से राज कपूर की शादी 22 साल की उम्र में हुई थी. तब उनकी पत्नी की उम्र 16 साल थी. शोमैन के बेटे ऋषि कपूर उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं-
“वह लोन मेरी एक आंटी से लिया गया था. शायद वो मेरी मां की तरफ की आंटी में से एक थीं. तब कपूर परिवार कोई बहुत समृद्ध नहीं था. मेरी मां की बहन ने ही उनकी मदद की होगी. फिल्म आवारा की सफलता के बाद उस लोन को चुका दिया गया. ”
‘इस स्टू़डियो के लिए राज कपूर ने की दिन-रात मेहनत’
ऋषि कपूर ये भी कहते हैं कि उनके पिता दिन में दूसरी फिल्म प्रॉडक्शन कंपनी के लिए एक्टिंग करते थे, जबकि रात में वो स्टूडियो के निर्माण में जुटे रहते थे. इसी स्टूडियो में 'आवारा' (1951) फिल्म का गाना ‘घर आया मेरा परदेसी...’ को फिल्माया गया था. इस गाने को रात के वक्त और सुबह-सबेरे फिल्माया जाता था और इस काम में एक महीने से ज्यादा लग गए थे.
ऋषि कपूर कहते हैं कि- राज कपूर का एक बड़ा फैन होने के नाते मैं इस बात के लिए खुद को खुशनसीब समझता हूं कि मुझे उनसे लगातार बात करने का मौका मिला. खासतौर से लॉस एंजिल्स में, जब हम केंद्र सरकार की ओर से आयोजित फिल्म फेस्टिवल में हिस्सा लेने गए थे. वहां पर राज कपूर साहब चीफ गेस्ट थे.
वहां जाने-माने म्यूजिक कंंडक्टर जुबिन मेहता उनके उन तमाम फैंस में शामिल थे, जो इवेंट में निजी तौर पर उनका स्वागत करने आए थे. वहीं पर डिनर के दौरान अराउंड द वर्ल्ड (1967) में उनकी को-स्टार रहीं राजश्री भी आईं थीं, जिन्होंने अपनी शादी की वजह से बीच में ही फिल्म छोड़ दी थी. तब राजश्री का वहां आना बड़ी बात मानी गई थी.
अब जबकि आर के स्टूडियो खत्म होने की कगार पर है, तो मैं अपने आप को उन लिखी हुई बातों को याद करने से नहीं रोक सकता, जो कि मैंने भारत के सबसे प्रभावशाली फिल्म मेकर से की थी. जिन्होंने अपनी फिल्मों के जरिये मनोरंजन, रोमांस और समाजिक सुधार का गजब का फ्लेवर पेश किया. जैसा कि हुआ, ऐसी कई फिल्में थीं जो वो बनाना चाहते थे पर कुछ कारणों से ऐसा नहीं हो पाया.
इनमें से एक पीरियड फिल्म थी अजंता, जो कि जानी-मानी वेश्या आम्रपाली के ऊपर थी. जिन्होंने बौद्ध धर्म की खातिर अपने प्यार को छोड़ दिया था. राज कपूर अजंता फिल्म का निर्माण कुछ उसी तर्ज पर करना चाहते थे जैसा कि उन्होंने बेहद सफल फिल्म ‘संगम’ (1964) में वैजयंती माला को शोकेस किया था. लेकिन इसी बीच अभिनेत्री और राज कपूर के रास्ते अलग-अलग हो गए.
कुछ फिल्में बस सपना ही रह गई
आखिरकार 'अजंता' फिल्म हकीकत में तब्दील नहीं हो सकी, क्योंकि निर्देशक लेख टंडन ने घोषणा कर दी कि वो सुनील दत्त के साथ वैजयंती माला को लेकर म्यूजिकल फिल्म आम्रपाली का निर्माण करने जा रहे हैं. बगैर किसी झमेले के राजकपूर ने अपनी नई फिल्म मेरा नाम जोकर (1970) पर काम शुरू कर दिया. ये फिल्म देश में बनी सबसे लंबी फिल्म थी. 255 मिनट की इस फिल्म में दो इंटरवल्स थे.
आज की तारीख में एक क्लासिक फिल्म का दर्जा पाने वाली फिल्म ‘मेरा नाम जोकर’ को तब दर्शकों ने नापसंद कर दिया था. फिल्म के जानकारों की राय थी कि निर्माता गुलशन राय ने प्रतियोगिता करते हुए देवानंद के अभिनय वाली अपनी फिल्म जॉनी मेरा नाम का प्रीमियर उसी दिन रख दिया था.
खास बात ये है कि मेरा नाम जोकर फिल्म के कुछ दृश्य शर्मिला टैगोर पर फिल्माए गए थे. हालांकि ये दृश्य बाद में संपादन के दौरान हटा दिए गए. शायद फिल्म की लंबाई कम करने के लिए या फिर ये सोचकर कि इसके किसी सिक्वल का निर्माण भविष्य में किया जाएगा.
बाद में जब वीडियो कैसेट बाजार में आया तब को-राइटर, पत्रकार और उनके दोस्त वीपी साठे ने मुझे फोन किया और पूछा कि क्या मेरे पास फ्रैंक कैपरा की 1930 के दशक की मूवी मिस्टर स्मिथ गोज टू वाशिंगटन (1936) और मिस्टर डीड गोज टू टाउन (1939) की कॉपी है, जिनमें क्रमश: जेम्स स्टीवर्ट और गैरी कूपर, जिनको ऐसे आम आदमी, जो कि बड़े शहर में आकर करप्ट हो गए- उस रूप में दिखाया गया है.
कैपरा के काम राज कपूर के लिए स्प्रिंगबोर्ड की तरह थे. राज कपूर की आवारा और श्री 420 (1955) में भी शहरियों के भ्रष्ट तरीकों की थीम को दर्शाया है.
जब मैं इस बात की तसल्ली करने की सोचता हूं कि क्या राज कपूर कैपरा के विषय में दिलचस्पी रखते थे, तो ऋषि कपूर कहते हैं कि वो इस बात की तस्दीक नहीं कर सकते. लेकिन राज कपूर ने एक बार अपने लेखकों से ‘गेस हू इज कमिंग टू डिनर’ फिल्म देखने के लिए कहा था.
उस ऑस्कर जीतने वाली फिल्म (1967) में जातीय भेदभाव का सामना करने की कोशिश थी. इसमें एक प्रगतिशील समाचार पत्र के एडिटर द्वारा अपनी बेटी की पसंद के ब्लैक दूल्हे के प्रति शत्रुता को दिखाया गया था. इस फिल्म का निर्देशन स्टेनले करमर ने स्पेंसर ट्रैसी, सिडनी प्वाइटियर और कैथरीन हेपबर्न के साथ किया था. साफ बात है कि यह एक समय पर निर्भर विषय नहीं है और लेखक इसमें बहुत ही श्रेष्ठ होंगे.
बॉबी (1975) में राजकपूर ने उच्च वर्ग और मजदूर वर्ग के बीच के संघर्ष को दिखलाया. इस फिल्म में ऋषि कपूर को पहली बार एडल्ट रोल में पेश किया और पहली बार डिंपल पर्दे पर उतरीं. इस फिल्म ने न सिर्फ आर के स्टूडियो के पुराने सम्मान को बहाल किया बल्कि मेरा नाम जोकर की व्यवसायिक विफलता की वजह से कर्ज में उलझे राजकपूर को बड़ी राहत दी.
'सत्यम शिवम सुंदरम' (1978) के मुख्य किरदार शशि कपूर ने एक बार बड़े उत्साह के साथ कहा था कि एक हवाई जहाज के सफर के दौरान उनके सबसे बड़े भाई ने उनसे कहा कि 'घूंघट के पट खोल' नाम से एक फिल्म बनाना चाहते हैं. यह नाम उनके जेहन में केदारनाथ शर्मा की फिल्म जोगन (1950) में गीता दत्त के गाए गीत से आया. इस फिल्म के मुख्य किरदार नरगिस और दिलीप कुमार थे.
लेकिन ये प्रोजेक्ट टाइटल से आगे नहीं बढ़ पाया. राजकपूर की फिल्म 'राम तेरी गंगा मैली' (1985) में एक सिंगल मां को फोकस किया गया था. ये उनकी एक सबसे सफल फिल्मों में से एक बनी. जब राज कपूर 1988 में इस दुनिया को छोड़कर चले गए, तब उनकी अगली फिल्म 'हिना' की पटकथा पर काम हो रहा था. तब राज कपूर की उम्र 63 साल थी.
ऋषि कपूर ने खुलासा किया है कि ‘जागते रहो’ (1956) के लिए राज कपूर की पहली पसंद सत्यजीत रे थे. लेकिन ऐसा नहीं हो सका क्योंकि तब रे इस बात को तय नहीं कर पाए थे कि उन्हें हिन्दी सिनेमा में आना है या नहीं. इसके बाद इस काम को शोमभू और अमित मैत्रा ने आगे बढ़ाया. ये फिल्म बंगाली में एक दिन रात्रे नाम से भी रिलीज हुई.
लेखक विजय तेंदुलकर के साथ भी एक प्रोजेक्ट का प्लान किया गया था. इसके साथ ही आरके बैनर के लिए एक फिल्म का भी, जिसे सईद मिर्जा और कुंदन शाह निर्देशित करते. उनके टीवी सीरियल 'नुक्कड़' (1986-87) ने राजकपूर को बहुत प्रभावित किया था. हालांकि इनमें से किसी पर भी काम नहीं हो सका.
दरअसल, आरके स्टूडियो के अंदर प्रसिद्ध आरके कुटीर में फिल्मों को लेकर सोच और कहानियों पर बहस होनी चाहिए. ये उस दौर की बात है, जब कंटेंट वाकई किंग हुआ करता था.
(लेखक फिल्म क्रिटिक, फिल्ममेकर, थियेटर डायरेक्टर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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