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हिंदी सिनेमा के परफेक्ट हीरो को जीरो करती एक मलयालम फिल्म

मलयालम फिल्म ‘कुम्बलंगी नाइट्स’ फिल्मों में हीरो के नॉर्मल इमेज को तोड़ती है

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बॉलीवुड में परफेक्ट मैन कौन है? वह जो बेटियों को कड़े अनुशासन के जरिए दंगल जितवाता है. जो बीवी के ओलंपिक में गोल्ड जीतने के सपने को चकनाचूर करके सुल्तान बन जाता है. जो गर्लफ्रेंड को अपनी ‘बंदी’ बताकर उस पर हुक्म चलाता है. जो अपनी महिला सहकर्मी पर प्रेम का जाल फेंककर वर्कप्लेस हैरेसमेंट करता है.

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‘दंगल’ और ‘सुल्तान’ की तरह ‘कबीर सिंह’ और ‘साहो’, अपनी-अपनी फिल्मों के परफेक्ट मैन, कंप्लीट मैन हैं. उनकी एंट्री पर दर्शक वाह-वाह करते नहीं थकते. रुपहले परदे पर उनके मैनरिजम को कॉपी करते हैं. बॉक्स ऑफिस पर ताबड़तोड़ कमाई का जरिया बनते हैं.

कंप्लीट मैन नॉर्मल नहीं है...

यह सब नॉर्मल है. यही नॉर्मल होना, एक फिल्म ने तोड़ा है. यह है मलयालम भाषा की फिल्म ‘कुम्बलंगी नाइट्स’. फिल्म में स्त्री द्वेष से भरा, उन्हें काबू में करने का इच्छुक कंप्लीट मैन नॉर्मल नहीं है. उसे मदद की जरूरत है.

यूं ‘कुम्बलंगी नाइट्स’ दो किस्म के पुरुषों की कहानी है. एक किस्म के चार पुरुष, जिनके असामान्य परिवार में कोई औरत नहीं. जो रोते हैं. गलती करने पर माफी मांगते हैं. जिनके घर में पैडल वाली सिलाई मशीन, टेबल और शू रैक की तरह इस्तेमाल होती है. जिनके घर में सीलिंग फैन के साथ सीलिंग पर साड़ियां फैली हुई हैं. जिनके घर में कोई दरवाजा नहीं- खिड़कियों पर पर्दा नहीं.

दूसरी किस्म के पुरुष के घर में तीन स्त्रियां हैं. एक परफेक्ट फैमिली. एक परफेक्ट सजा संवरा घर. पक्का कामकाज, पक्की आमदनी. जो डाइनिंग टेबल पर हेड ऑफ द फैमिली वाली सामने की कुर्सी पर बैठता है. मूंछें जिसके लिए पौरुष का प्रतीक हैं. यही परफेक्शन उसे विलेन बनाता है. अधिकतर फिल्मों में पितृसत्ता सामान्य और महिमा मंडित की जाती है. लेकिन ‘कुम्बलंगी नाइट्स’ में यह एक व्याधि है.

बॉलीवुड में एंटी हीरो को भी सेलिब्रेट किया जाता है

अब तक की बॉलीवुड वाली फिल्में परफेक्ट मैन को सेलिब्रेट करती हैं. परफेक्ट मैन जो फैमिली मैन हो. अपने क्षेत्र का महारथी हो. कमजोर की रक्षा करे. बिना कमजोर पड़े हर परिस्थिति का सामना करे. इस प्रक्रिया में वह खुद कमजोर नहीं पड़ सकता. ट्रेजेडी किंग से लेकर एंग्री यंग मैन और फिर लवर ब्वॉय तक, जब-जब हीरो कमजोर पड़ता है, सिर्फ एकाध आंसू टपकाता है. फिर उछलकर खड़ा हो जाता है.

नायक, कभी हारते और रोते नहीं. हारने और रोने वाले नायक नहीं होते. ऐसे में परदे पर आपके लिए ऐसे नायक की कल्पना की जाती है, जो स्ट्रॉन्ग और डैशिंग है. वह नायक के गुण ही हैं जिनके चलते ‘थ्री इडियट्स’ भी कामयाब होती है और ‘दंगल’ भी. पहली फिल्म में नायक साबित करता है कि जीवन में अपनी चॉइस ही सबसे अहम होती है. दूसरी फिल्म में वह खुद अपनी बेटियों को कोई चॉइस नहीं देता.

बॉलीवुड में इसी हीरोइजम का जश्न मनाया जाता है. किसी कहानी में अगर नायक एंटी हीरो है तो भी हीरो के से गुणों से परिपूर्ण है. ‘बाजीगर’, ‘संजू’ और ‘कबीर सिंह’ जैसी फिल्में इसी एंटी हीरो को हिंदी सिनेमा का पॉपुलर मैन बनाती हैं. ‘बाजीगर’ में नायक स्त्री को प्रतिशोध का माध्यम बनाता है. ‘संजू’ का हीरो तो जबरदस्त वुमेनाइजर है. ‘कबीर सिंह’ का नायक औरतों को अपनी बपौती ही मानता है.

पौरुष के नए प्रतीक गढ़ती है ‘कुम्बलंगी नाइट्स’

‘कुम्बलंगी नाइट्स’ इसी पॉपुलर मैन को विखंडित करती है. पौरुष खतरनाक और टॉक्सिक भी हो सकता है. इसीलिए फिल्म पौरुष के नए प्रतीक गढ़ती है. पौरुष के क्या प्रतीक हैं... अपने इमोशंस को दबाकर रखना. अपनी कमजोरियों का एहसान न करना. रक्षक बने रहना. ‘कुम्बलंगी नाइट्स’ में जो पौरुष के परंपरागत प्रतीकों को सहजने की कोशिश करता है, वह मानसिक रूप से बीमार है.

तीन औरतों वाली फैमिली के मुखिया शम्मी का चेहरा पोकर फेस है. वह खुद को कंप्लीट मैन कहता है. उससे इतर चार इनकंप्लीट मैन- शाजी, बॉनी, बॉबी और फ्रैंकी पौरुष के नए सिंबल हैं. वे अपने इमोशंस जाहिर करते हैं. अपनी कमजोरियों का एहसास करते है. उनसे जूझते हैं और खुद को बदलते हैं. वही पौरुष के नए सिम्बल्स हैं.

एक सीन में सबसे बड़ा भाई शाजी, सबसे छोटे भाई फ्रैंकी से कहता है कि वह साइकोलॉजिस्ट के पास जाना चाहता है. क्योंकि वह रो नहीं पा रहा. किसी पुरुष की तरफ से ऐसी स्वीकारोक्ति बहुत अहम है. क्या आदमी रोते हैं... फिल्म में साइकोलॉजिस्ट, जोकि एक पुरुष ही है, के सामने शाजी फूट-फूटकर रोता है.

चूंकि रोकर अपने इमोशंस जाहिर करना, सिर्फ औरतों की प्रवृत्ति नहीं होती. एक सीन में चारों भाई अपनी मां से मिलने जाते हैं. मां ईश्वर भक्ति में ऐसी लीन है कि सभी बच्चों को छोड़कर जा चुकी है. वे मां से अनुरोध करते हैं कि वे उनके साथ कुछ दिन रहने आए. मां मना कर देती है. अगले सीन में बॉबी मां पर सवाल उठाता है- मां ने आने से इनकार क्यों किया? पर शाजी कहता है- मां ने तुम्हारे लिए बहुत कुछ किया है. क्या हम खुद एक दूसरे की मदद नहीं सकते.

औरतों पर अपनी समस्याओं को एक्सटर्नलाइज करने या उसकी मदद लेने के बजाय, क्या पुरुष खुद अपनी मदद नहीं कर सकते? यह सीन तथाकथित जेंडर रोल्स पर सवाल खड़ा करता है. बताता है कि मां को हमेशा मां ही बने रहने की जरूरत नहीं. वह कभी सिर्फ औरत बनकर भी रह सकती है.

यह दिलचस्प है कि पिछले कुछ समय से मलयालम, तेलुगू, तमिल, मराठी और असमी जैसी भाषाओं की फिल्मों ने जेंडर रोल्स पर बड़ी सटीक टिप्पणियां की हैं. तमिल की ‘सुपर डीलक्स’, तेलुगू की ‘डियर कॉमरेड’, असमी की ‘आमिस’ जैसी फिल्मों ने परफेक्ट मैन की नई परिभाषा दी है. इसीलिए बॉलिवुड वालों को नए सिरे से अपने नायकों पर विचार करना चाहिए. ऐसे नायक जिनके लिए हर क्लाइमैक्स से पहले सुधरने की पूरी गुंजाइश हो.

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