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'जय भीम' के मनोहारी होने की आस गलत, क्योंकि असल जीवन में अत्याचार इससे भी भयानक

आर्टिकल 15 से जय भीम की तुलना कीजिए लेकिन कई मामलों में यह उससे आगे की फिल्म है

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अभिनेता सूर्या (Suriya) की फिल्म जय भीम (Jai Bhim) जब से रिलीज हुई है, सभी उसकी वाहवाही कर रहे हैं. अब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन (Chief Minister MK Stalin) ने भी फिल्म की तारीफ की है. स्टालिन ने कहा कि फिल्म देखने के बाद सारी रात उनका मन भारी रहा. फिल्म का डायरेक्शन टीजे ज्ञानवेल (TJ Gnanavel) ने किया है. इसकी कामयाबी और तारीफों पर दो किस्म के नजरिए हैं. जिन्हें जानना और सुनना सचमुच दिलचस्प है.

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पहला नजरिया एक मुख्य फिल्म क्रिटिक का है, जो उन्होंने एक पैन इंडियन इंटरनेशनल प्लेटफॉर्म पर जाहिर किया है. लेकिन उन्होंने जय भीम पर जैसी टिप्पणी की है, उस पर बहुत से सोशल मीडिया यूजर्स ने नाखुशी जताई है. सात मिनट के अपने रिव्यू में क्रिटिक ने फिल्म को “क्राई बेबी मूवी” कहा है जिसका मकसद बैकग्राउंड म्यूजिक और विजुअल लैंग्वेज को बहुत ज्यादा इस्तेमाल करके दर्शकों की सहानुभूति बटोरना है. वह फिल्म के एक डायलॉग को दोहरा कर अपना रिव्यू खत्म करते हैं, “सिर्फ इसलिए कि आप आदिवासियों और मानवाधिकारों पर फिल्म बना रहे हैं, इसका मतलब यह नहीं कि यह एक अच्छी फिल्म है.” क्रिटिक यहां तक कहते हैं कि पुलिसिया अत्याचार के सीन सिर्फ दर्शकों की हमदर्दी हासिल करने के लिए दिखाए गए हैं.

आर्टिकल 15 से जय भीम की तुलना कीजिए लेकिन कई मामलों में यह उससे आगे की फिल्म है

फिल्म 'जय भीम' में आदिवासियों पर पुलिसिया अत्याचार का एक सीन

फोटो: यू ट्यूब

सालों से चुनिंदा निर्देशक और कुछ दर्शक इस बात की परिभाषा करते आए हैं कि तमिल सिनेमा के ऐतिहासिक संदर्भों में कोई फिल्म “अच्छी फिल्म” कैसे बनती है.
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और यह सिर्फ फिल्मों तक सीमित नहीं है, संगीत, कला और साहित्य भी इसके दायरे में आते हैं. द्रविड़ आंदोलन ने लगातार हर दौर में पराशक्ति (1952) जैसी फिल्मों को चुनौती दी है जिसमें सामाजिक मानदंडों पर नहीं, धर्म पर भी सवाल खड़े किए गए थे. लेकिन फिर भी तमिलनाडु में कई क्रांतिकारी डायरेक्टर्स, जैसे पा रंजीत, वेत्रीमारण..... और आथिया अथिराई की बदौलत पिछले दस सालों में दलित सिनेमा बड़े पर्दे पर पहुंचा. इनके चलते जो बदलाव हुए, उन्हें नजरंदाज करना मुश्किल था. इसके बाद बाकी के डायरेक्टर्स भी अपनी फिल्मों में जातिगत भेदभाव पर बोलने को मजबूर हुए. सूरारई पोत्रू इसकी एक अच्छी मिसाल है. इसमें अपरकास्ट हीरो की जिंदगी की कहानी है जो कि “मैं पैसे की रुकावट ही नहीं, जाति की रुकावट को भी तोड़ना चाहता हूं” जैसे डायलॉग्स के साथ जातिगत अंतर को भी तोड़ने की कोशिश करती है.

पा रंजीत याद करते हैं कि उन्हें अपनी पहली फिल्म के एक शॉट में अंबेडकर की तस्वीर लगाने भर से कितनी दिक्कतों का सामना करना पड़ा था. इन 'एंटी कास्ट डायरेक्टर्स' ने जो नींव रखी है, उसी की वजह से 2021 में हमें 'जय भीम' टाइटिल वाली फिल्म देखने को मिली है. ऐसी तीखी कहानियों को धीरे-धीरे जो कमर्शियल कामयाबी मिली है, उसकी वजह 'दलित केंद्रित फिल्में' ही हैं जिनमें सामाजिक न्याय की वकालत की जाती है, साथ ही शिक्षा की जरूरत पर जोर दिया जाता है.

अब “मार्केट” या “खास दर्शक” यह तय नहीं करेंगे कि अच्छी फिल्म क्या होती है. ताकतवर या प्रिविलेज लोग नहीं बताएंगे कि कहानियां कैसे कही जाएंगी. इन कहानियों को उत्कृष्टता के मनगढ़ंत मानदंड, कला की परिभाषा के आधार पर नहीं तौला जाएगा. हिंसा को टोन डाउन नहीं किया जाएगा या कलात्मक तरीके, काव्यात्मक तरीके से नहीं दिखाया जाएगा, जिसे बहुसंख्यक लोग आसानी से पचा या भुला सकें. चूंकि असल जिंदगी में हाशिए पर धकेले गए, अधिकार विहीन लोगों पर पुलिसिया अत्याचार पचाया-भुलाया नहीं जा सकता क्योंकि वो मनोहर नहीं होता.

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आर्टिकल 15 से जय भीम की तुलना कीजिए लेकिन कई मामलों में यह उससे आगे की फिल्म है

पूर्व जस्टिस चंद्रू और अभिनेता सूर्या

फोटो: ट्विटर

एक इंटरव्यू में रियल लाइफ पूर्व जस्टिस चंद्रू ने कहा कि ओटीटी प्लेटफॉर्म पर इस मामले को जितना अमानवीय दिखाया गया है, असल में वह उससे भी जघन्य और भद्दा था.

इसलिए अगर किसी को लगता है कि पर्दे पर असल जिंदगी की हिंसा को इतने बुरे तरीके से सिर्फ इसलिए दिखाया गया है ताकि लोगों की हमदर्दी हासिल की जा सके, तो यह दर्शकों की समस्या है, फिल्म बनाने वालों की नहीं. आप खुद से सवाल कर सकते हैं कि फिल्म देखकर हमें दया क्यों नहीं आती? क्या इसलिए क्योंकि यह तस्वीर हमारे ‘सौन्दर्यशास्त्र’ में सटीक नहीं बैठती या इसलिए क्योंकि फिल्म की सोच आपको परेशान करती है. हालांकि मैं कुछ हद तक इस बात से इत्तेफाक रखता हूं कि हिंसा और पुलिसिया अत्याचार के वे दृश्य आदिवासी समुदायों की मान-मर्यादा को उधेड़कर रख देते हैं, लेकिन प्रिविलेज क्लास यह नहीं कह सकता है कि यह फिल्म दर्शकों से दया की भीख मांगने वाली ‘क्राई बेबी मूवी’ है.

दूसरा सवाल डायरेक्टर टीजे ज्ञानवेल और ऐक्टर सूर्या के इरादों पर उठाया गया है. दलित-आदिवासी विमर्श करने वालों ने इसकी आलोचना की है. अनुभव सिन्हा की फिल्म 'आर्टिकल 15' से 'जय भीम' की तुलना की गई है और कहा गया है कि उसी की तरह इस फिल्म के नायक की प्रकृति भी मसीहा जैसी है. एक तर्क यह भी है कि फिल्म प्रामाणिक नहीं, क्योंकि इसे बनाने वाला ईरुला समुदाय का नहीं है. लेकिन इन समुदायों से यह उम्मीद करना कि वे सामने आकर अपनी कहानियां सुनाएंगे, कुछ ज्यादा ही बड़ी अपेक्षा है.

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आर्टिकल 15 से जय भीम की तुलना कीजिए लेकिन कई मामलों में यह उससे आगे की फिल्म है

फिल्म 'जय भीम' का एक सीन

फोटो: यूट्यूब

इन समुदायों में ग्रैजुएट्स की पहली पीढ़ी ऐसी पढ़ाई करना चाहती है जिससे उन्हें तुरंत पक्की नौकरी मिल जाए. फिल्म उद्योग ऐसी नौकरियां नहीं दे सकता जहां ‘कामयाबी’ की उम्मीद बहुत धुंधली होती है, खास तौर से, विशेष सुविधाओं या अवसरों से लैस लोगों के समुंदर के बीच. एक शुद्ध अदालती अभिनय के साथ, ज्ञानवेल ने पूरी ईमानदारी बरती है और आदिवासी लोगों के साथ होने वाले जुल्म को दर्शाया है. सूर्या के कैरेक्टर के साथ कोई साइड स्टोरी, बैक स्टोरी, प्रेम कहानी या मार-धाड़ के दृश्य नहीं, जैसा कि हम बड़े सितारों वाली कमर्शियल फिल्मों में उम्मीद करते हैं. सूर्या के मुख्य भूमिका निभाने से 'जय भीम' को खूब प्रचार मिला और पूरी टीम की मेहनत रंग लाई.

'आर्टिकल 15' की तरह 'जय भीम' को एक मसीहा की कहानी बताने का मतलब यह भी है कि शायद हम भविष्य को नहीं पढ़ पा रहे. राजाकन्नू की भूमिका निभाने वाले मणिकंदन ने हाल ही बताया था कि ईरुला समुदाय के लोगों को फिल्मों में अपनी कहानियों को देखकर कैसा महसूस होता है.

वह याद कर रहे थे कि कैसे वे लोग इस बात से भावुक हो गए. उन्हें लग रहा था कि आखिरकार दुनिया को असलियत पता चलेगी. कैसे सरकार और खुद को प्रगतिशील कहने वाला समाज, दोनों उनकी अनदेखी करते हैं. हो सकता है कि किसी को मणिकंदन की बातों पर भरोसा न हो या इसे ईरुला समुदाय की रजामंदी की मुहर न मानी जाए. लेकिन यह भी सच है कि इस समुदाय के साथ होने वाली बदसलूकी, अत्याचार का अब तक कोई 'मेनस्ट्रीम डॉक्यूमेंटेशन' नहीं हुआ है. उन समुदायों की जिंदगी को दर्ज करने की कुछेक कोशिशें ही हुई हैं. इस पर ईयान कार्तिकेयन ने एक डॉक्यूमेंट्री बनाई थी, आदियालम. इसमें दिखाया गया था कि दक्षिण भारत में ईंट-भट्ठों, कारखानों और चाय बागानों में आदिवासी लोगों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है और उनका शोषण किया जाता है.

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आर्टिकल 15 से जय भीम की तुलना कीजिए लेकिन कई मामलों में यह उससे आगे की फिल्म है

फिल्म 'जय भीम' में हवालात के अंदर पुलिसिया अत्याचार का सीन

फोटो: यूट्यूब

'जय भीम' के निर्माण, ईरुला समुदाय के प्रतिनिधित्व और उनकी मान-मर्यादा की रक्षा करने से जुड़े पहलुओं से किसी को समस्या हो सकती है. लेकिन जब आदिवासी समुदायों के अत्याचार पर चर्चा होगी, तब इस फिल्म का जिक्र जरूर आएगा. इसे आप नजरंदाज नहीं कर सकते. एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब ईरुला समुदाय के बीच से कोई शख्स आकर अपनी कहानी बेहतरीन तरीके से कहेगा, लेकिन तब तक 'जय भीम' हमारे प्रिविलेज, जानबूझकर अनदेखा करने की आदत पर सवाल खड़े करती रहेगी, हमें आइना दिखाती रहेगी. इसी अनदेखी के चलते आए दिन मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ाई जाती हैं. यह हमें हमेशा परेशान करेगा कि उन हजारों कहानियों में से एक कहानी सेनगेनी और राजाकन्नू की भी है जिससे हम रूबरू हुए हैं.

'जय भीम' कानून की जीत की कहानी नहीं है, बल्कि एक कठिन और असंभव लड़ाई की कहानी है. जहां न्याय तो बहुत कम लोगों को मिलता है, ज्यादातर तो कानून व्यवस्था की चौड़ी दरारों के भीतर फंसे छटपटाते रहते हैं.

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(डैनियल सुकुमार एक लेखक और कवि हैं. वह जातिगत असमानताओं, मेंटल हेल्थ और सामाजिक अन्याय पर लिखा करते हैं. यह एक ओपिनियन पीस है. यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने हैं. क्विंट का उनसे सहमत होना जरूरी नहीं है.)

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