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दसवीं फिल्म रिव्यू: अभिषेक बच्चन की फिल्म बोरिंग है

दसवीं फिल्म में निम्रत कौर और यामी गौतम भी मुख्य किरदार में हैं.

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Dasvi

अभिषेक बच्चन की फिल्म बोरिंग है

एक फिल्म, जैसा चाहे वैसी हो सकती है, लेकिन दसवीं (Dasvi) बोरिंग होनी की सबसे बड़ी गलती करती है. सैकड़ों उबाऊ और अजीबोगरीब सीन इस फिल्म को थका देने वाली बना देते हैं.

इस बात को नेल्सन मंडेला (Nelson Mandela) के "शिक्षा की शक्ति" वाक्य से समाप्त करना बहुत अच्छा है, लेकिन सिर्फ अच्छे इरादे से एक महान फिल्म नहीं बनती.
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एक नेता के इर्द-गिर्द घूमती है कहानी

लेखक राम बाजपेयी की कहनी और रितेश शाह, सुरेश नायर और संदीप लेजेल की स्क्रीन प्ले गंगा राम चौधरी (Abhishek Bachchan) के इर्द-गिर्द घूमती है. जो कि एक भ्रष्ट, बेईमान राजनेता और हरित प्रदेश नामक एक काल्पनिक राज्य का मुख्यमंत्री है. अपने काले कारनामों की वजह से गंगा राम एक दिन जेल पहुंच जाता है. इसके बाद हम उस सख्स के जीवन में बदलवा की कहानी को देखना चाहते हैं जो शिक्षा के महत्व को समझता है और उसे पाने की कोशिश करता है.

कहानी में दम नहीं है 

इस फिल्म की सबसे बड़ी समस्या यह है कि इसे देखते वक्त जागे रहना बहुत कठिन है. क्योंकि फिल्म के विचार को बिना किसी प्रेरणा के प्रस्तुत किया गया है.

अपने राजनीतिक दबदबे को मजबूत करने के लिए गंगा राम अपनी पत्नी बिमला देवी (Nimrat Kaur) को अगले मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्त करता है. घूंघट डाले, एक देसी महिला के रूप में बिमला देवी टूटी-फूटी भाषा में शपथ लेती है. उधर जेल में गंगा राम को 5 स्टार होटल जैसी खातेदारी मिलती है, जब तक कि जेल अधीक्षक ज्योति देसवाल (Yami Gautam) की एंट्री नहीं होती है. ज्योति देसवाल (Yami Gautam) अपने सख्त कायदे-कानून से सबके नाक में दम कर देती है.

अभिषेक पास हुए या फेल ?

गंगा राम को कुर्सियां बनाने का काम सौंपा जाता है. लेकिन वह इस तरह के कठिन काम से बचने के लिए 10वीं बोर्ड परीक्षा की तैयारी का फैसला करता है. जिसके बाद 10वीं करना उसके जीवन का एकमात्र मिशन बन जाता है. लगता है यहां से कहानी ऊपर उठेगी लेकिन कहानी यहीं पर आकर रूक जाती है. स्क्रीन पर पत्र उड़ने लगते हैं और बच्चन को स्वतंत्रता आंदोलन के नेताओं के साथ काल्पनिक बातचीत करते हुए दिखाया जाता है.

जैसे-जैसे गंगा राम किताब-दर-किताब पढ़ते जाता है, निर्देशक तुषार जलोटा (Tushar Jalota) बेवजह हमें वही दृश्य दिखाते रहते हैं. यह लगभग वैसा ही है जैसे हम खुद एक क्लास में फंस गए हैं और वहां से जल्दी निकलने का कोई रास्ता नहीं है.

कलाकारों की कैसी है एक्टिंग ?

इस तरह की कहानी तभी काम करती है जब दमदार लेखनी होती है. फिल्म के कॉमेडी सीन मनोरंजक नहीं लगते हैं. अभिषेक बच्चन के बोलने का तरीका मामले को और खराब कर देता है. ऐसा लगता है जैसे अभिषेक अपनी एक्टिंग में बहुत ज्यादा जोर लगा रहे हैं और वह एक्टिंग न करके किसी की नकल कर रहे हों. वहीं दूसरी ओर निम्रत कौर और यामी गौतम जब भी स्क्रीन पर आते हैं तो हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं.

दसवीं पास या फेल ?

एक शर्मीली, झिझकने वाली बिमला रातों-रात सत्ता की भूखी राजनेता कैसे बन गई? ज्योति जैसे सख्त अनुशासक का हृदय परिवर्तन क्यों होता है? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिसका उत्तर हमें नहीं मिलता है. पति-पत्नी के रूप में पूर्व और वर्तमान सीएम के बीच सत्ता को लेकर खींचतान दिखाना भी दिलचस्प होता, लेकिन फिल्म उस मौके को भी गंवा देती है. मनु ऋषि चड्ढा, चित्तरंजन त्रिपाठी, अरुण कुशवाहा उनके पास जो कुछ भी है, उसका अधिकतम लाभ उठाने की कोशिश करते हैं, लेकिन दासवीं तब भी ठीक नहीं लगती. यह फिल्म बिना किसी लक्ष्य के इधर-उधर भटकती रहती है.

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