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महाराष्ट्र चुनाव: 10 साल बाद अकबरुद्दीन ओवैसी की वापसी क्यों?

अकबरुद्दीन ओवैसी ने आखिरी बार 2014 में महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार किया था. उन्हें एक खास वजह से वापस लाया गया है.

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Maharashtra Elections: 10 साल के अंतराल के बाद अकबरुद्दीन ओवैसी (Akbaruddin Owaisi) महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार करने आए हैं. ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (AIMIM) ने उन्हें न ही 2019 के लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में और न ही 2024 के लोकसभा चुनावों या बीच में राज्य में लड़े गए किसी भी निकाए चुनाव में प्रचार के लिए उतारा था.

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एआईएमआईएम प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा में पार्टी के फ्लोर लीडर हैं और वह अपने आक्रामक भाषणों के लिए जाने जाते हैं और एआईएमआईएम कार्यकर्ताओं के बीच काफी लोकप्रिय हैं.

तो इतने वर्षों तक AIMIM ने उन्हें महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के लिए तैनात क्यों नहीं किया? और अब ऐसा क्यों हो रहा है?

बेशक, इसका एक कारण यह है कि कथित हेट स्पीच के 2012 के एक मामले में ओवैसी मुकदमे का सामना कर रहे थे और उन्हें 2022 में ही बरी कर दिया गया था. लेकिन इसमें और भी बहुत कुछ है.

10 साल तक अकबरुद्दीन औवेसी चुनाव प्रचार से दूर क्यों रहे?

महाराष्ट्र की जनसांख्यिकी, एआईएमआईएम के गढ़ हैदराबाद के पुराने शहर या यहां तक ​​कि उस दूसरे क्षेत्र, जहां इसने राजनीतिक सफलता हासिल की, बिहार के सीमांचल क्षेत्र जैसी नहीं है.

हैदराबाद के पुराने शहर में, एआईएमआईएम ने जो सात सीटें जीती हैं, वे ऐसी सीटें हैं, जहां मुसलमानों की आबादी 50 प्रतिशत से अधिक है. इनमें से चार में समुदाय की हिस्सेदारी 60 फीसदी से ज्यादा है. अकबरुद्दीन ओवैसी की सीट चंद्रायनगुट्टा में यह आबादी 70 फीसदी से ज्यादा है.

फिर बिहार के सीमांचल क्षेत्र में, जहां एआईएमआईएम ने 5 विधानसभा सीटें जीतीं, जनसांख्यिकी समान है.

दूसरी ओर, महाराष्ट्र में भारी मुस्लिम बहुमत वाली केवल एक सीट है - मालेगांव सेंट्रल. फिर कुछ सीटें ऐसी हैं जहां मुसलमानों की आबादी 50-55 प्रतिशत है, जैसे मानखुर्द शिवाजी नगर और मुंबादेवी, लेकिन वहां पहले से ही अन्य दलों के स्थापित मुस्लिम नेता हैं.

मालेगांव सेंट्रल को छोड़कर, ज्यादातर सीटें जहां एआईएमआईएम का प्रभाव सबसे ज्यादा है, वे ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम 40 प्रतिशत से कम हैं, जैसे औरंगाबाद सेंट्रल और औरंगाबाद लोकसभा सीट (दोनों इम्तियाज जलील द्वारा जीती गईं), धुले सिटी और भायखला.

इसलिए, एआईएमआईएम को इन सीटों पर जोर आजमाइश करने के लिए मुस्लिम वोटों से परे विस्तार करना पड़ा है. इम्तियाज जलील की सफलता, आंशिक रूप से दलित बौद्धों के समर्थन के कारण हुई है, खासकर जब उन्होंने प्रकाश अंबेडकर की वीबीए के साथ गठबंधन में औरंगाबाद लोकसभा सीट जीती थी. ऐसा इसलिए भी हुआ क्योंकि उन्होंने जल आपूर्ति और स्वास्थ्य सेवा जैसे मुद्दे उठाए हैं जो सभी समुदायों के लिए चिंता का विषय हैं.

अकबरुद्दीन ओवैसी की छवि ध्रुवीकरण करने वाली है और ऐसी आशंका रही होगी कि महाराष्ट्र में उनके प्रचार से उन सीटों पर हिंदू एकजुटता होगी जहां मुस्लिम 40 प्रतिशत से कम हैं और गैर-मुस्लिम मतदाताओं के बीच एआईएमआईएम के किसी भी विस्तार को रोका जा सकेगा.

हालांकि, इस बार स्थिति अलग है.

इस बार क्या बदल गया?

इस बार AIMIM को अंदर से ही खतरा है. इसके ज्यादातर अहम निर्वाचन क्षेत्रों में मुसलमानों के अंदर से उम्मीदवार सामने आए हैं जो एआईएमआईएम की पकड़ को चुनौती देना चाहते हैं.

उदाहरण के लिए, मालेगांव सेंट्रल में एआईएमआईएम के मुफ्ती इस्माइल अब्दुल खालिक का मुकाबला एक अन्य स्थानीय नेता शेख आसिफ रशीद से है, जिन्होंने इंडियन सेक्युलर लार्जेस्ट असेंबली ऑफ महाराष्ट्र (आईएसएलएएम) नाम से पार्टी बनाई है.

लेकिन महाराष्ट्र में असल खींचतान एआईएमआईएम और समाजवादी पार्टी, खासकर महाराष्ट्र में एसपी के प्रमुख नेता अबू आसिम आजमी के बीच हो रही है. दोनों पक्षों के बीच संबंधों में स्पष्ट रूप से खटास आ गई है. हालांकि ऐसा हमेशा नहीं था.

अतीत में, असदुद्दीन ओवैसी ने खुले तौर पर एआईएमआईएम की रैलियों में लोगों से अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में अबू आजमी और एसपी नेता रईस शेख को वोट देने का आग्रह किया था. मुंबई और आसपास के इलाकों में एआईएमआईएम और एसपी के बीच एक अलिखित समझौता था कि AIMIMI आजमी और शेख के खिलाफ उम्मीदवार नहीं उतारेगी, जबकि समाजवादी पार्टी एआईएमआईएम के वारिस पठान के लिए भी ऐसा ही करेगी.

लेकिन इस बार वो तालमेल खत्म हो गई है.

इसकी शुरुआत समाजवादी पार्टी द्वारा इम्तियाज जलील के खिलाफ उम्मीदवार उतारने से हुई, वह भी पूर्व एआईएमआईएम नेता गफ्फार कादरी को टिकट देकर. फिर उन्होंने एआईएमआईएम के लिए मजबूत मानी जाने वाली सीट मालेगांव सेंट्रल से पूर्व विधायक निहाल अहमद मौलवी मोहम्मद उस्मान की बेटी शान-ए-हिंद निहाल अहमद को मैदान में उतारा.

यह इस तथ्य के बावजूद था कि दोनों सीटें महा विकास अघाड़ी में हुई सीट बंटवारे की व्यवस्था में कांग्रेस के कोटे में थीं, और समाजवादी पार्टी भी इस गुट का हिस्सा है.

जैसे को तैसा के कदम के रूप में, एआईएमआईएम ने मानखुर्द शिवाजी नगर में अबू आजमी के खिलाफ एक उम्मीदवार खड़ा किया है, जहां एसपी नेता को पहले से ही एनसीपी के नवाब मलिक और शिवसेना के सुरेश कृष्ण पाटिल के खिलाफ कड़ी लड़ाई का सामना करना पड़ रहा है.

अबू आजमी को छोड़कर AIMIM ने किसी भी बड़े मुस्लिम नेता के खिलाफ कोई उम्मीदवार नहीं उतारा है. दरअसल, उसने कांग्रेस और एनसीपीएसपी के मुस्लिम उम्मीदवारों से टकराव न करने की नीति अपनाई है.

यह समाजवादी पार्टी और शेख रशीद के साथ लड़ाई है जहां अकबरुद्दीन तस्वीर में आते हैं. जब पार्टी को उसके मूल आधार से आगे बढ़ाने की बात आती है, तो असदुद्दीन ओवैसी और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में इम्तियाज जलील जैसे नेता मुख्य चेहरे होते हैं.

लेकिन जब उनके आधार के भीतर खतरे की बात आती है, तो अकबरुद्दीन ओवेसी ही सबसे आगे रहने वाले व्यक्ति हैं. आधार को सक्रिय करना और मजबूत करना उनकी खासियत मानी जाती है.

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इसका एक इतिहास है

हैदराबाद में, AIMIM को 1994 में अपने सबसे कठिन चुनाव का सामना करना पड़ा जब उसके अपने ही वरिष्ठ नेताओं में से एक अमानुल्लाह खान ने पार्टी को तोड़ दिया और मजलिस बचाओ तहरीक (एमबीटी) का गठन किया. 1994 में, AIMIM केवल एक सीट जीत सकी- असदुद्दीन ओवैसी अपने पहले चुनाव में चारमीनार विधानसभा सीट जीते. दूसरी ओर, एमबीटी ने एआईएमआईएम से दो सीटें छीन लीं और उसके लिए अस्तित्व का खतरा बन गया.

1999 में अगले चुनाव से पहले, अकबरुद्दीन ओवैसी को हैदराबाद वापस लाया गया (वे शहर से बाहर चले गए थे) और उन्होंने एमबीटी के पीछे धकेलने और एआईएमआईएम के आधार पर फिर से कब्जा करने का काम किया. और यह काम कर गया. तब से एमबीटी एआईएमआईएम को कोई खास चुनौती नहीं दे पाई है. और यही वो चुनाव है जिसने अकबरुद्दीन औवेसी की छवि एक जुझारू राजनेता के रूप में बनाई.

पार्टी जिस स्थिति का सामना कर रही है वह महाराष्ट्र में भी ऐसी ही है, क्योंकि इस बार चुनौती भीतर से है.

अपने भाषणों में अकबरुद्दीन बार-बार "एकता" की जरूरत और "समुदाय को धोखा देने की कोशिश करने वालों" को सबक सिखाने पर जोर दे रहे हैं.

अकबरुद्दीन ओवेसी (और इससे भी ज्यादा असदुद्दीन ओवेसी) के भाषणों में एक दिलचस्प टॉपिक मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जारांगे पाटिल की प्रशंसा है.

अपने औरंगाबाद भाषण में, अकबरुद्दीन ओवैसी ने सराहना की कि कैसे पाटिल ने अपने समुदाय को एकजुट किया और सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी.

यह आंशिक रूप से इस तथ्य के कारण है कि एआईएमआईएम और पाटिल के बीच अतुल सावे एक समान प्रतिद्वंद्वी हैं, जो औरंगाबाद में बीजेपी का एक मजबूत ओबीसी चेहरा हैं.

AIMIM के पीछे क्यों पड़ी है SP?

इस पूरी कहानी में दूसरा पहलू यह है कि समाजवादी पार्टी उन सीटों पर एआईएमआईएम से मुकाबला करने के लिए पूरी ताकत क्यों लगा रही है जहां वह मजबूत है. खास तौर पर अबू आजमी के पार्टी के प्रति नजरिए में आया बदलाव आश्चर्यजनक है.

इसके दो पहलू हैं. पहला यह कि समाजवादी पार्टी महाराष्ट्र में मुस्लिम प्रतिनिधित्व की बात करने वाली मुख्य पार्टी होने की अपनी स्थिति पर जोर देना चाहती है.

जाहिर तौर पर दूसरा कारण 2027 में होने वाले अगले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए एसपी की कैलकुलेशन से निकला है. पिछले एक दशक से भी कम समय से एआईएमआईएम उत्तर प्रदेश में पैठ बनाने की कोशिश कर रही है लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ.

कुछ समय के लिए यह धर्मनिरपेक्ष दलों में असंतुष्ट मुस्लिम नेताओं की शरणस्थली भी बन गया - जैसे संभल में जिया-उर-रहमान बर्क और आजमगढ़ में गुड्डु जमाली. लेकिन ये दोनों अब समाजवादी पार्टी में हैं.

कहा जाता है कि अखिलेश यादव मजलिस की चुनौती को रोकना चाहते हैं और इसीलिए उन्होंने महाराष्ट्र इकाई से कहा है कि पार्टी को महाराष्ट्र में सीटें जीतने से रोका जाए ताकि यूपी के मुसलमानों के लिए विकल्प होने के AIMIM के दावे में रुकावट आ सके.

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महाराष्ट्र में AIMIM का सबसे कठिन चुनाव!

कुछ मायनों में ये महाराष्ट्र में AIMIM का सबसे कठिन चुनाव है. अब तक ये वो पार्टी थी जिसे किसी ने आते नहीं देखा था. एक ऐसी पार्टी जिसने दशकों के अंतराल के बाद औरंगाबाद को अपना पहला मुस्लिम विधायक और सांसद दिया.

हालांकि, इस बार कम से कम औरंगाबाद और मालेगांव सीट पर AIMIM के प्रतिद्वंद्वी इन्हें हारते हुए देखना चाहते हैं.

उदाहरण के लिए, औरंगाबाद में मुस्लिम नेताओं के भीतर से चुनौती के अलावा, 'हिंदू एकता' की दिशा में भी भारी दबाव है. शिवसेना यूबीटी के एक नेता ने यह कहते हुए चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया कि पिछली बार जब बीजेपी और सेना ने औरंगाबाद में एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ा था, तो एआईएमआईएम के जलील की जीत हुई थी.

फिर ऐसे वॉट्सएप मैसेज भी चल रहे हैं जिनमें पुणे, मुंबई, हैदराबाद और बेंगलुरु जैसे शहरों में काम करने वाले औरंगाबाद के हिंदू निवासियों से "एआईएमआईएम को जीतने से रोकने के लिए वोट करने" के लिए वापस आने का आग्रह किया गया है.

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