अगर वे नहीं होते तो कितने ही लोगों को अदाकारी के असली मायने समझ नहीं आता. एक ऐसे अदाकार की अदाकारी जो कल की पीढ़ी के लिए हमेशा श्रेष्ठ बनी रहेगी. हम सिनेमा से उनकी खातिर प्यार कर बैठे जिस प्यार का कोई पैमाना नहीं है. क्योंकि दिलीप कुमार (Dilip Kumar) ने हमें यूसुफ खान (Yusuf Khan) से प्यार करना सिखाया है.
हम उस शख्स से प्यार करने लगे जोकि ट्रैजिडी किंग के सिंहासन पर विराजमान था. लेकिन वह हर अवतार में तिलस्म रचना जानता था. तमाम कलाकारों के बीच भी. वह तेज तर्रार था, रूमानी भी. एक लवर ब्वॉय, एक ईमानदार पुलिसवाला- फिल्में लिखने वाले जितने नायकों की परिकल्पना कर सकते थे, वह उन सभी को परदे पर उतार सकता था.
दिलीप कुमार के लिए एक से एक विशेषण सजाए जा सकते हैं. जिसने उनके जादू को महसूस किया है, उनकी आंखों से आंसू बह जाना सामान्य है. आज की फिल्म रसिया मल्टीप्लेक्स पीढ़ी, उतनी खुशकिस्मत नहीं हो सकती, जितना उनके बुजुर्ग हुआ करते थे. आप बीते जमाने के या इस डिजिटल दौर के किसी भी कलाकार के बारे में उसी शिद्दत से बात नहीं कर सकते. उनसे किसी की तुलना करना ठीक वैसा ही है, जैसे सोने की अशर्फी की बराबरी आप किसी खोटे सिक्के से करें.
मैं जानता हूं कि किसी की ऐसी तारीफ तुरही की बेसुरी पुकार महसूस हो सकती है. कई बार कानफाड़ू भी, जिसका कोई मर्म नहीं होता. तो, मैं आपकी तवज्जो चाहूंगा ताकि बता सकूं कि हमारा देश कभी दिलीप कुमार से प्यार करने को किस कदर तड़पता था. कैसे वह लोगों के दिलों में बसते थे.
कैसे-कैसे फैन्स और बस एक झलक की दरकार
चूंकि मेरे दादाजान के कई सिनेमा हॉल थे, तो हमारा बावर्ची और धोबी, जो हर हफ्ते छुट्टी के दिन कपड़े लॉन्ड्री करके लाता था, दादाजान से इल्तेजा करता था कि वह उन लोगों के लिए स्टूडियो की सैर का इंतजाम करवा दें. जहां वे लोग दिलीप कुमार को “सिर्फ एक बार” देख सकें. दादाजान गुस्सा जाते और बड़बड़ाते, “क्या तुम लोग पागल हो गए हो? क्या तुम उनसे प्यार करने लगे हो? जैसे जवान लड़कियां करती हैं. चलो, देखते हैं.”
दादाजान तो नहीं देख पाते. लेकिन फैन्स खुद ही उन्हें देखने का इंतजाम कर लेते. फिल्म प्रीमियर के वक्त घंटों थियेटर के बाहर खड़े रहते. वैसे एक कहानी और भी है.
मुंबई पुलिस कमीश्नर सैय्यद मजीदुल्लाह की तीन बेटियों का किशोर वय का प्यार थे दिलीप कुमार. यह साठ के दशक के शुरुआत की बात है. वे तीनों उन्हें चोरी चोरी फोन किया करती थीं, उस नंबर पर जिस पर कड़ा पहरा रहता था. एक बार एक होटल की दावत में वे तीनों दिलीप कुमार से रूबरू हुईं. तब दिलीप साहब की शादी नहीं हुई थी. एकदम प्रिंस चार्मिंग हुआ करते थे. शहर के सबसे चहीते एलिजिबल बैचलर.
अपने चिरपरिचित इंडिगो सूट और ऑक्सफोर्ड टाई में दिलीप कुमार नामचीन लोगों से मिल रहे थे. पर ये तीनों लड़कियां भीड़ के बीच उन्हें नजर आईं, हालांकि वे ऐसी कोशिश कर रही थी जैसे उन्होंने दिलीप कुमार को देखा ही नहीं. “ओह, खूबसूरत मोहतरमाओं”, उन्होंने धीमे से, पर अल्हड़ अंदाज में तीनों का इस्तेकबाल किया. पीछे गूडी सीरवाई का बैंड ब्ल्यू डैन्यूब की धुन बजा रहा था.
पर लड़कियों को इस मुलाकात से चैन नहीं मिला. वह इस बात के लिए दुखी थीं कि दिलीप कुमार ने हरेक पर तवज्जो नहीं दी. हां, उन तीनों के फैमिली एलबम में उस दिन की तमाम तस्वीरें अब तक चस्पां हैं.
मधुबाला के वालिद निकाह के खिलाफ नहीं थे
रुपहले परदे से इतर दिलीप कुमार की ऐसी कई कहानियां मेरे जेहन में कैद रहीं जिन्हें बाद में मैंने फिल्म रिपोर्टर होने पर इस्तेमाल किया. कहा जाता है कि बॉम्बे टॉकीज़ की हुस्नआरा देविका रानी ने दिलीप कुमार में एक उभरते हुए सितारे को देखा था. मोहक मधुबाला उन पर मर मिटी थीं, लेकिन दोनों का रिश्ता परवान नहीं चढ़ा था.
“जैसा कि आम राय है, उनके वालिद हमारे निकाह के खिलाफ नहीं थे”, दिलीप कुमार ने अपनी बायग्राफी में रहस्यमय तरीके से बताया था. “अताउल्लाह खान की अपनी प्रोडक्शन कंपनी थी और अगर एक छत के नीचे दो कलाकार आते जाते, तो वह खुश ही होते. लेकिन अगर मैंने इस पूरे कारोबार को अपने नजरिये से न देखा होता तो वे जो चाहते, वैसा ही होता. दिलीप कुमार और मधुबाला एक दूसरे का हाथ थामे, अपने करियर के आखिर तक उनके प्रोडक्शंस में डुएट्स गाते रहते.”
तीनों मजीदुल्लाह बहनों ने मुझे नमक-मिर्च लगाकार ऐसी-वैसी-कैसी बातें बताईं. उनकी निगाहें बहुत पैनी थीं. जैसे दिलीप कुमार लंबी बाहों वाली कमीजें सिर्फ इसलिए पहनते हैं क्योंकि उनकी बाहों में लंबे-लंबे बाल हैं. मधुमती के गाने “सुहाना सफर और ये मौसम हसीन” की धुन पर वह जब अपना हाथ घुमाते हैं तो वे बाल उनकी आस्तीन से बाहर झांकहैं. उन बहनों का कहना था कि दिलीप कुमार अक्सर अपना बायां हाथ अपने गालों पर टिका देते हैं, जाने या अनजाने, जैसे पंडित जवाहर लाल नेहरू किया करते हैं.
मेथेड एक्टिंग... वह किसी चिड़िया का नाम है
दिलीप कुमार का परिवार मुंबई के क्रॉफर्ड मार्केट में फलों का कारोबार किया करता था. लेकिन उन दिनों व्यवसाय में मंदी थी. इसीलिए 17 साल की उम्र में दिलीप कुमार ने पुणे के वैलिंगटन क्लब में सैंडविच का स्टॉल लगा लिया. वहां आने वाली ब्रिटिश औरतें दिलीप कुमार को चीको कहा करती थीं. बाद में उनकी बेगम सायरा बानो ने इस नाम को पुकारने का नाम बना दिया.
आप पूछ सकते हैं, नाम में क्या रखा है. या यह कि यूसुफ खान ने उस दौर में स्क्रीन नेम क्यों चुना, जब मुसलिम नाम एक अभिशाप समझा जाता था? उन्होंने बताया था, “दिलीप कुमार दूसरे विकल्प जहांगीर के लिहाज से ज्यादा आसान था.”
वैसे दिलीप कुमार के तरकश में कई मारक तीर थे. उनका उर्दू का तलफ़्फ़ुज़, मौसम की अंगड़ाई सी बदलती आवाज, और वे क्लासिक खामोशियां. जब वे खामोश हो जाते थे, तब भी दर्शकों पर संवेदनाओं की बौछार होती थी. उनकी शारीरिक लय में एक किस्म का आरोह अवरोह था, काया सुतवां थी- घनी भवों की छाया में उनकी आंखें एक साथ हजारों शब्द बोल उठती थीं. चाहे संवाद कितना भी लंबा हो, उसका हर शब्द, हर अक्षर, यहां तक कि हर विराम चिन्ह भी दिल तक पहुंचता था. वह जैसे फिल्मी ग्रामर के लिए व्रेन एंड मार्टिन की किताब थे.
असल में, उनकी तुलना हम लॉरेंस ओलीवियर से कर सकते हैं, जिनके बारे में क्रिटिक केनेथ टाइनेन ने कभी कहा था, “ओलीवियर के लिए हर उक्ति संगमरमर के पिंड की तरह है. मूर्तिकार जब उसे काटता-छांटता है तो उसका असली रूप और मायने समझ में आता है. वह चाहे जिस भी पात्र को परदे पर उतारें, वह कितना भी हेय हो, हर बार कलात्मक बन जाता है.”
दिलीप कुमार की अदाकारी किसी ‘हेय’ शख्स को सह्रदय बना देती थी. महबूब खान की अंदाज का ठुकराया हुआ प्रेमी, और अमर का गुनाह की ताप में जलने वाला वकील. ये दोनों फिल्में उनकी अदाकारी की बेमिसाल तस्वीरें हैं. उनकी कारीगरी कहां से आई, मनोविज्ञान की इतनी गहरी समझ कैसे आई? मेथेड एक्टिंग? इस टीमटाम भरे शब्द को उन्होंने गलत ठहरा दिया था, “नहीं, नहीं, बिल्कुल नहीं.” वह उस दिन बांद्रा के जॉगर्स पार्क में शाम की चहलकदमी कर रहे थे, और मैं उनके साथ था.
अदाकारी भीतर से आती है, नकल करने से नहीं
पार्क में वह अपने प्रशंसकों के साथ तस्वीरें खिंचवाने में बहुत खुशी महसूस कर रहे थे. लेकिन फिर उन्होंने लोगों से कहा, “क्या मैं इन महाशय के साथ अपना इंटरव्यू जारी रख सकता हूं?” फिर उन्होंने मेरा हाथ थामकर कर कहा, “मैं नहीं जानता कि ये मेथेड किस चिड़िया का नाम है. मैंने स्टेनिसलावस्की स्कूल ऑफ एक्टिंग के बारे में सुना जरूर है लेकिन मैं इतना बड़ा विद्वान नहीं. ऐसा माना जाता है कि मैं काफी पढ़ता हूं. लेकिन सही कहूं, तो ऐसा नहीं है. अगर मैं थोड़ी शेरो शायरी करता हूं तो वह सिर्फ इसलिए है क्योंकि मेरी याददाश्त अच्छी है. मैंने लोगों को गालिब, दाग, फिराक, मोनिन को दोहराते सुना है.”
मैंने उन्हें नितिन बोस की दीदार में एक दृष्टिहीन की भूमिका निभाते देखा था, और मैं उस पर मोहित हो गया था. उस किरदार में परफेक्शन लाने के लिए तेज और बारीक नजर की जरूरत थी. इस पर उन्होंने मुझे बताया था,.”रुको, मुझे एक दो मिनट दो.” फिर वह बेंच पर बैठ गए, चुपचाप. इसके बाद पार्क के उस छोर की तरफ नजर घुमाई, जहां से समुद्र लगता था. फिर उठकर चलने लगे. जैसे बिल्कुल दिखाई न दे रहा हो. पलकें एक बार भी नहीं झपकीं. दृष्टिहीनता को जैसे ओढ़ लिया हो.
अगले दसेक मिनट तक, मैं उनकी कमीज की बाहें पकड़े था. वह देख नहीं पा रहे थे. “सर,” मैं आग्रह किया, “यह मुझे डरा रहा है. अपनी नजरें वापस लाइए ना.” वह बेंच की तरफ लौटने लगे. जब तक मैं गिनती गिनता, वह सामान्य हो चुके थे. “देखा! अदाकारी अंदर से आती है, लोगों की नकल उतारने से नहीं.” मैं फूला नहीं समाया. अपनी जिंदगी में अदाकारी का ऐसा नमूना मैंने पहले कभी नहीं देखा था, बिना किसी रिहर्सल के, पूरी तरह से उसी पल उभरने वाली.
आखिरी टेक तक अपना नॉक आउट पंच बचाए रखते
कोई दूसरा दिलीप कुमार नहीं हो सकता. अशोक कुमार भी यही कहा करते थे. “जब भी मैं दीदार में उसके साथ एक फ्रेम में होता था, चौकन्ना हो जाता था. दोपहर में खाने के बाद हम अपने बॉक्सिंग ग्लव्स निकाल लेते थे. कैमरे के सामने आने तक हमारा मुकाबला चलता रहता था. फिर संवाद अदायगी हमारी बॉक्सिंग मैच हो जाता. मैं अपने पहले टेक में बेहतरीन होता था. लेकिन यूसुफ, हे भगवान, आखिरी टेक के लिए अपना नॉकआउट पंच बचाए रखता था. वह कम से कम 10 से 12 टेक पर जोर देता था.”
राजकपूर और देवानंद के साथ दिलीप कुमार की तिकड़ी ने ब्लैक एंड व्हाइट के दौर के रंग साठ के दशक के रंगीन परदे पर भी छितराए. कुछ क्रिटिक्स का मानना है कि दिलीप कुमार में अमेरिकी ऐक्टर्स रोनाल्ड कोलमैन और पॉल मुनी की छवियां नजर आती थीं.
इस तुलना को दिलीप कुमार आत्मनिंदा की तरफ मोड़ देते, “मुझे कोलमैन द डबल लाइफ और मुनी आई एम अ फ्यूजिटिव फ्रॉम अ चेन गैंग में बहुत पसंद आए. लेकिन तुम देखो कि उन्होंने क्या किरदार निभाए हैं. प्रामाणिक और यथार्थवादी. हमारा सिनेमा मेलोड्रामा, नाच गाने, मुक्के और बंदूकों के मुकाबलों से भरा हुआ है. यहां काम करने वाला ऐक्टर विश्वसनीय और यकीनी कैसे हो सकता है? और देखो, अब फिल्में कैसे बनती हैं, तेज, तेज, तेज... कोई चैन-ओ-आराम नहीं, कोई गहरी सोच नहीं. अब तो ठहराव का जमाना ही नहीं है.”
एक्टिंग और खुद को किसी किरदार में उढेल देने के बीच एक बारीक सी लाइन है. दिलीप कुमार रिस्क लेने के आदी थे. इसीलिए खुद को किरदार में ऐसे डुबो देते थे कि दिलो दिमाग पर असर हो जाए. बिमल राय की देवदास के बाद वह डिप्रेशन के शिकार हो गए. मुंबई के एक मशहूर साइकोएनालिस्ट ने उन्हें सलाह दी कि वह छुट्टी पर चले जाएं और अपना दिल हल्का करें. लेकिन इस तरह दिलीप कुमार ने अपनी प्रतिभा को लोहा मनवाया.
अगर वह एकतरफा प्रेमी बन सकते थे, तो शरारती लड़कपन को भी परदे पर उतार सकते थे. कोहिनूर, राम और श्याम, गोपी और सगीना ऐसी कितनी ही फिल्में हैं. यहां तक कि गंगा जमुना जैसी गहरी फिल्म में भी सहजता के साथ नैन लड़ जइंहें में थिरक सकते थे.
अमिताभ बच्चन से कोई होड़ नहीं थी
दिलीप कुमार की शानदार फिल्मों के बेजोड़ किरदारों को गिनाना, एक लंबा सफर तय करने जैसा है. ऊंगलियों की छाप की तरह उनके निशान दर्ज हो चुके हैं. आने वाले दशकों में कितने ही सुपरस्टार्स उनके नक्शे कदम पर चले. शक्ति का पुलिस अधिकारी जो अपने बागी बेटे (अमिताभ बच्चन ने इस किरदार को निभाया था) को लेकर परेशान है. इस फिल्म में दो कलाकारों की वह भिड़ंत किसे याद नहीं होगी, इसे फिल्म एक्टिंग की मास्टर क्लास कहा जा सकता है. इस मास्टर क्लास में खुद को ऊंचा दिखाने की होड़ नहीं थी, तालमेल बैठाने की जद्दोजेहद थी.
सुनते हैं कि बच्चन की पंचलाइन को एडिट कर दिया गया था. लेकिन यह अफवाह ही थी, कि दोनों के बीच होड़ मची है. सवाल पूछने पर दिलीप कुमार ने तल्खी से जवाब दिया था, “किसी साथी कलाकार को नीचा दिखाऊं, यह मेरे लिए शराफत नहीं.”
मैंने सिर्फ उन्हें एक बार परेशान देखा था. जब अस्मां रहमान के साथ उनके गुपचुप निकाह की खबर आई थी. सायरा बानो टाइम्स ऑफ इंडिया से एक्सक्लूसिव बात करना चाहती थीं. मैं उनके घर पहुंचा. घर के भीतर वह सीढ़ियों से उतरकर नीचे आ रहे थे. “ओह, तुम मुझे और शर्मिन्दा करने आ गए.” उन्होंने कहा और फिर वहां से चले गए. अगले दिन इस घटना पर सायरा बानो का बयान शब्दशः छपा, हमने अपनी तरफ से विराम चिन्ह भी नहीं लगाए.
यह अफवाह धीमी पड़ी पर दिलीप कुमार ने उस इंटरव्यू की वजह से मुझ पर कभी खुन्नस नहीं निकाली. वह मन मैला करने वालों में से नहीं हैं. कुछ साल बाद मैंने उनसे गुजारिश कि वह फिल्मफेयर अचीवमेंट अवार्ड लेना मंजूर करें जिसे वह बार बार ठुकरा दिया करते थे. उन्होंने हांमी भर दी, “ठीक है, मैं आऊंगा. मुझे फिल्मफेयर के पिछले कुछ अंकों पर ऐतराज था. लेकिन चूंकि तुम कह रहे हो तो यह अवार्ड लेना मेरी खुशनसीबी होगा.” उस वक्त मैं सातवें आसमान पर था.
पाक से शांति बहाल करने में अहम भूमिका निभाई थी
एक और विषय पर वह काफी होशियारी से बातचीत करते थे. गंगा जमुना फिल्म को लेकर उन पर राजनैतिक हमला किया गया था. फिल्म के आखिर में डाकू एक ट्रेन को लूटते समय हे राम का नारा लगाते हैं. इस सीन पर सेंसर बोर्ड ने ऐतराज जताया था. उसने दिलीप कुमार को इस और कई दूसरे सीन्स को हटाने को कहा. फिर कानूनी कार्रवाई की धमकी मिलने पर बोर्ड का फैसला बदला. पद्म भूषण से सम्मानित दिलीप कुमार पर एक समय पाकिस्तानी जासूस होने का आरोप भी लगाया गया था. कोलकाता पुलिस ने यह आरोप लगाया था, और उनके घर पर छापा भी मारा था.
उन्होंने इस बदनामी को भी सहजता से झेला, जैसा कि वह अक्सर पहले भी कर चुके थे. शिव सेना नेता बाल ठाकरे उनसे बार बार कहते थे कि वह निशान-ए-इम्तियाज की पदवी लौटा दें. यह पाकिस्तान का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है.
इस बात के कोई खास मायने नहीं है कि उन्होंने पाकिस्तान से शांति बहाल करने में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी, और उसका श्रेय भी नहीं लिया था. काफी साल बाद पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने बताया था कि दिलीप कुमार ने पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सिर्फ एक फोन कॉल से इस बात के लिए राजी किया था कि 1999 में कारगिल युद्ध को खत्म कर दिया जाए.
पंडित नेहरू भी फैन थे
मैंने कई साल तक दिलीप कुमार से कई बार बातचीत की. वह बड़े चाव से अपनी मां के बारे में बताया करते थे. उनकी अफगानी बिरयानी की रेसिपी. पंडित नेहरू से फिल्म इंडस्ट्री की मुलाकात- प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था कि वह उनके (दिलीप कुमार के) जबरदस्त फैन हैं- जुनून की हद तक. उन्होंने बताया था, “दूसरे ऐक्टर्स यह सुनकर खुश नहीं हुए. उनके चेहरे लटक गए. मैं डींग नहीं हांकता, लेकिन वह मेरे लिए मधुर पल था. वैजयंती माला जो उस मौके पर मौजूद थी, भी बिल्कुल खुश नहीं हुई थी.”
वह यह पसंद नहीं करते थे कि कोई उन्हें स्मोक करते देख ले. जब मैं न्यूयार्क के मेडिसन एवेन्यू में उनसे टकराया तो वह सिगरेट जलाने वाले थे. उन्होंने सिगरेट फेंक दी, ऐसे शर्माए जैसे कि स्कूल जाने वाले किसी छोकरे की कोई चोरी पकड़ी गई हो. इसके बाद शाम को हिल्टन के अपने सुइट में वह फिर से शर्मिन्दा हो गए, “सायरा को मत बताना, वरना वह परेशान हो जाएगी.”
मैंने हंसकर कहा, “बेशक, मैं नहीं बताऊंगा. बदले में आपको बताना होगा कि आपने गुरुदत्त की प्यासा और डेविड लीन की लॉरेंस ऑफ अरेबिया क्यों छोड़ दी?”
वह बुदबुदाए, “गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ते हो?” फिर थोड़ी देर रुके और मुस्कुराकर बोले, “वह सिगरेट का जुर्माना भरना पड़ेगा. दरअसल मैं प्यासा के कवि से तालमेल नहीं बैठा पा रहा था. खुद को निराशा में डूबा नहीं देख पा रहा था. गुरुदत्त ने वह किरदार बखूबी किया है. यह उसका विजन था. जहां तक डेविड लीन की बात है, मैं अपना सिनेमा छोड़कर विदेश में जोखिम नहीं उठाना चाहता. और, उमर शरीफ ने उस रोल को क्या खूब निभाया है.” और वह जानबूझकर पीछे हट गए. जैसा कि वह आम तौर पर करते हैं, जब उन्हें एक कोने में धकेल दिया जाता है.
मैंने जिक्र किया कि कैसे वह निर्देशक के तौर पर अपनी पहली फिल्म कलिंग पूरी नहीं कर पाए थे, क्योंकि फिल्म के निर्माता के साथ कुछ मतभेद हो गए थे. इस कड़वे अनुभव को उन्होंने यूं टाला था, “उन जनाब और मेरी- क्या कहते हैं, एक वेवलेंथ नहीं थी.”
मैं उनसे आखिरी बार उनके पाली हिल के बंगले पर मिला था. वह बीमार थे. पर उनके चेहरे पर एक नूर था. इस अदाकार ने हमें रुलाया और हंसाया है. हमने उसके उल्लास और उदासी में खुद की पहचान तलाशी है.
उनके सम्मोहन में सब खिंचे चले जाते थे. जिस पर फिदा होकर पुलिस कमीश्नर की बेटियां कभी डांस फ्लोर पर मदमस्त हो गई थीं.
युसूफ खान के लिए, दिलीप कुमार के लिए सूरज कभी नहीं डूबेगा. आंसू ढलकते रहेंगे, और आप तरसते रहेंगे, एक झलक के लिए- बस एक झलक के लिए.
(लेखक फिल्म क्रिटिक, फिल्ममेकर, थियेटर डायरेक्टर हैं. इस आर्टिकल में छपे विचार उनके अपने हैं. इसमें क्विंट की सहमति होना जरूरी नहीं है.)
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