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हिरोइनों का बोल्ड और सेक्सी अंदाज: हमें पहले भी पसंद था और आज भी

चाहे सत्यजीत राय की चारुलता हो या फिर अपर्णा सेन की परोमा. प्यार के लिए पहल पत्नी ही करती है.

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पिछले दिनों जब सेंसर बोर्ड ने ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ को हरी झंडी देने से इनकार कर दिया तो लगा था कि थोड़ी-बहुत कैंची चलाने के बाद बोर्ड इसे मंजूरी दे देगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. अब सुनते हैं कि फिल्म की निर्देशक अलंकृता श्रीवास्तव इस मामले को लेकर अदालत में जाने वाली हैं.

सेंसर बोर्ड (सीबएफसी) को फिल्म में दिखाई गई महिलाओं की सेक्सुअल फैंटेसी को लेकर आपत्ति थी. उसे लग रहा था कि यह एक खास समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंचा सकती है.

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तो आइए पहले इस खास समुदाय की बात करें. यह पहली बार नहीं है कि भारतीय फिल्मों में कोई नायिका बुर्के में दिखाई गई है. पिछले सप्ताह ही हमने एक बड़ी स्टोरी इस बात पर की थी कि पुकार (1939) से लेकर हालिया फिल्म फितूर (2016) में किस कदर मुस्लिम समाज की कहानियों के जरिये इसकी संस्कृति दिखाई जाती रही है. लेकिन हर बार समस्या तब खड़ी हुई जब हमारी फिल्मों में दो समुदायों के लड़के-लड़की के बीच रोमांस दिखाया गया. चाहे वह फिल्म ‘तेरे घर के सामने’ हो या फिर मणिरत्नम की बॉम्बे.

बॉम्बे फिल्म में जहां तक मुझे याद है कुछ समूहों ने उस दृश्य पर आपत्ति जताई थी, जिसमें मनीषा कोइराला का बुर्का किसी चीज में फंस कर उतर जाता है. और वह तू ही रे... गाने के एक दृश्य में बुर्के को वहीं छोड़ अरविंद स्वामी की ओर दौड़ी चली आती है. मुझे उस दौर के बहस-मुबाहिसे और चर्चे याद हैं. लेकिन यह फिल्म रिलीज हुई और सराही भी गई.

मुजफ्फर अली की फिल्म अंजुमन में दुल्हन (शबाना आजमी) से जब काजी पूछता है, तुम्हें निकाह कुबूल है.... इस पर जब शबाना कहती हैं- ना कुबूल, तो सनसनी फैल जाती है. हर कोई सकते में आ जाता है. जबकि इस्लाम में यह साफ है कि अगर दुल्हन अपने लिए पंसद किए गए दूल्हे से शादी नहीं करना चाहती तो इनकार कर सकती है.

बीआर चोपड़ा की मशहूर फिल्म निकाह का नाम पहले तलाक, तलाक, तलाक रखा जाना था. इस फिल्म के क्लाइमैक्स में सलमा आगा बेहद गम और गुस्से में अपने पति पर भड़ास निकालती है और इस्लाम में निकाह के उसूलों पर सवाल उठाती है. यह एक मजबूत फिल्म थी जो एक मजबूत संदेश दे रही थी. हिंदू और मुस्लिम दोनों वर्गों के दर्शकों ने इस फिल्म को खूब पसंद किया था.

अब फिल्मों में प्रणय निवेदन की बात करें. कामुकता नाट्यशास्त्र के नौ रसों में एक है. हिंदी फिल्मों की नायिका अष्टनायिका की एक रूप हैं. हमारे फिल्मकार काफी पहले से इस नायिका की प्रेम लालसा और विरह को दिखाते रहे हैं. नायिका की चाह और तृप्ति के भाव को पर्दे पर उतारते रहे हैं.

क्या साहब, बीबी और गुलाम में शराब का नशा करने वाली ब्राह्मण परिवार की छोटी बहू (मीना कुमारी) के प्रणय निवेदन को हम भूल सकते हैं. अपने सामंती पति को तवायफ के कोठे पर जाने से रोकने का दृश्य अब भी जेहन में जिंदा है. ना जाओ सैंया छुड़ा के बैंया ...... प्रणय निवेदन की पराकाष्ठा थी. इसमें कल्पना के लिए कुछ भी नहीं बचा था.

गाइड की वहीदा रहमान एक असफल विवाह का दर्द झेल रही हैं. एक गाइड का प्रेम पाकर वह अपने नपुंसक वास्तुकार पति को चुनौती देती हैं..... मार्को, मैं जीना चाहती हूं.

ज्वैल थीफ में तनुजा इस बात को जानती है कि हीरो उससे प्यार नहीं करती. लेकिन उसके प्रति अपना आकर्षण दिखाने में वह कतई नहीं झिझकती. तुम्हें हमसे ना हो ना सही, हमें तुमसे मोहब्बत है... और रात अकेली है बुझ गए दिये... जैसे गानों के जरिये वह अपने जज्बातों का खुल कर इजहार करती है.

इसी तरह मनोज कुमार वह कौन थी में डेट के दौरान समुद्र तट पर खूबसूरत साधना से अलग-अलग और अकड़े खड़े रहते हैं तो वह बगैर झिझके बड़े ही कामुक अंदाज में कहती हैं- लग जा गले से....

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सरस्वती चंद में कुमुद सुंदरी (नूतन) अपने मंगेतर (सरस्वती चंद्र) को फूल भेज कर प्रणय निवेदन करती है- फूल तुम्हें भेजा है खत में...... इसके बाद वह कुंड में खुद को भिगोती हैं और उसका प्रेमी उसके सौंदर्य को देख कर गाता है- चंदन सा बदन.....

चाहे सत्यजीत राय की चारुलता हो या फिर अपर्णा सेन की परोमा. प्यार के लिए पहल पत्नी ही करती है. अनायास ही वह प्रेमी या पति का आकर्षण हासिल करना चाहती है. फिल्म एक बार फिर में दीप्ति नवल अपने प्रेमी से एक और मुलाकात का प्रलोभन को दबा सकती थीं लेकिन वह घुटन की तुलना में प्रेमी की अंतरंगता हासिल करने को तवज्जो देती हैं. एक पल में (नायक – फारुख शेख) शबाना भी अपनी कामना की अभिव्यक्ति को प्राथमिकता देती हैं और उसे एक पल की कमजोरी कहने के बजाय उस पल की सच्चाई करार देती हैं.

बासु भट्टाचार्य की फिल्म आस्था में पत्नी और मां रेखा अतिरिक्त आमदनी के लिए शरीर का सौदा करती है और उपभोक्तावाद की ओर आकर्षित होने के क्रम में यौन तृप्ति का अहसास करती है. वह यौन तृप्ति जिससे वह अपने नीरस दांपत्य जीवन में अब तक वंचित रही थी.

इसके बाद रेखा खुद पति (ओमपुरी) के साथ शारीरिक संबंध बनाते वक्त उसे इस यौन आनंद का अहसास कराती है. पति को इसका अहसास अब तक नहीं हुआ था.

फिल्म हू तू तू में राजनीतिक महत्वाकांक्षा रखने वाली एक मां को अपनी मंजिल पाने के लिए अपनी यौन क्षमता का इस्तेमाल करने से गुरेज नहीं होता.

इतने सारे उदाहरणों के बावजूद क्या फिल्मों की इन महिला पात्रों को बारे में कोई फतवा जारी किया जा सकता है. क्या यह कहा जा सकता है कि वे अपनी जिंदगी से ज्यादा अपनी सेक्सुअल फैंटेंसी को तवज्जो दे रही थीं.
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ये सारी महिलाएं एक जटिल परिस्थितियों में घिरी थीं और उन्होंने उस दौरान अपने दिल की सुनी. कभी वह अकेली थी (डर्टी पिक्चर), कभी शादीशुदा ( अस्तित्व, घरे-बाइरे). अपनी भावनाओं, चिंताओं को अभिव्यक्त करतीं. अपनी इच्छाओं का सम्मान करती हुईं. क्या इन संदर्भों से परे उनकी इन इच्छाओं के बारे में फैसला सुनाना शोभा देता है?

सत्तर के दशक में श्याम बेनेगल अपनी फिल्म भूमिका में एक ऐसी अभिनेत्री का चरित्र लेकर आते हैं जो एक के बाद एक कई रिश्तों का संधान करती है फिर भी अकेली रह जाती है. नब्बे के दशक में शोमैन सुभाष घई ने चोली के पीछे क्या है पूछ कर सनसनी फैलाई थी. खलनायक में कमनीय माधुरी दीक्षित अपने वक्षों को हिलाती हुई कहती हैं.. चोली के पीछे दिल है मेरा...

उसी दशक में करिश्मा कपूर डांस करती हुई कहती हैं- सेक्सी, सेक्सी मुझे लोग बोले.... एक बार फिर सेंसर इसकी निंदा करता है लेकिन नारीवादी सेलिब्रेट करते हैं.

2016 में आलिया भट्ट डियर जिंदगी में काउंसलर शाहरुख की सलाह लेती हैं ताकि दूसरों के रुख से क्षत-विक्षत उसका आत्मविश्वास दोबारा लौट आए.

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आइए, एक बार फिर लिपिस्टिक अंडर माई बुर्का पर लौटते हैं. आखिर उस फिल्म में ऐसी क्या उत्तेजक चीज है जो सीबीएफसी या फिर किसी भी संस्थान या संगठन को भारतीय संस्कृति का ठेकेदार या नैतिक अभिभावक बना देती है.

दरअसल सीबीएफसी या नैतिकता या संस्कृति के ठेकेदार, भारतीय संस्कृति के इस रहस्य को जानने से ही लोगों को रोकना चाहते हैं. अगर ऐसा नहीं है तो फिर यौन या सौंदर्य आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति में क्या गलत हो सकता है. क्या सम्मानजनक है और क्या अपमानजनक, यह कोई दूसरा आपको क्यों बताए. अगर हमारी पहले की पीढ़ी ने इन चीजों की परवाह की होती तो हम सिनेमा के इन जादुई क्षणों से वंचित हो गए होते.

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ब्लैक में फिल्म मेकर संजय लीला भंसाली अपने विकलांग मुख्य चरित्र के चुंबन की आकांक्षा को व्यक्त करते हैं. देव डी में डायरेक्टर अनुराग कश्यप माही गिल को साइकिल पर गद्दा लेकर जाते हुए दिखाते हैं. वह खेतों में हीरो से मिलने जा रही है.

साहब बीबी और गैंगस्टर में नायिका की आकांक्षा ज्यादा खुले तौर पर सामने आती है क्योंकि डायरेक्टर को विश्वास है कि उनके दर्शक इसकी गलत व्याख्या नहीं करेंगे. आखिर यह विश्वास हमारे संस्थानों के प्रति क्यों बन पाता है. ये संस्थान अक्सर हमारे फिल्म दर्शकों को कम करके आंकते हैं और यह सोचते हैं कि सिनेमा के कुछ दृश्य किसी महिला या पुरुष की संवेदनाओं को चोट पहुंचाएंगे. या इससे उन्हें आपत्ति होगी.

फिल्मों में ऐसे दृश्यों से कोई पहाड़ नहीं टूट पड़ेगा. क्योंकि प्रेम और उसके मनोभाव सार्वभौमिक हैं. आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति नितांत तौर पर निजी होती है. और फिल्मों में इसे दिखाना सिर्फ और सिर्फ लेखक या निर्देशक का अधिकार होता है.

(भावना सोमाया फिल्मों पर पिछले 30 साल से लिख रही हैं. वह अब तक 12 किताबें लिख चुकी हैं. उनका ट्वीट हैंडल है handle is @bhawanasomaaya)

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