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'दीवार' से लेकर 'काला पत्थर' तक - 6 फिल्में जिसमें दिखी मजदूर वर्ग की कहानी

Labour Day: एक समय था जब फिल्में मजदूर वर्ग की मुश्किलें, परेशानी, गुस्से और संघर्ष को परदे पर उतारती थी,

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Labour Day: उदारीकरण और वैश्वीकरण के बाद बॉलीवुड ने हमें खुशहाल और अमीर परिवारों और उनकी समस्याओं वाली फिल्में देना शुरू कर दिया है, जिसमें मजदूर वर्ग अब मुख्य किरदार के रूप में नजर नहीं आता है. लेकिन एक समय था जब फिल्में मजदूर वर्ग की मुश्किलें, परेशानी, गुस्से और संघर्ष को परदे पर उतारती थी, जिसके कारण धीरे धीरे अमिताभ बच्चन की 'एंग्री यंग मैन' वाली छवि भी बनती गई. इस मजदूर दिवस, हम कुछ बेहतरीन फिल्मों पर नजर डालते हैं, जो मजदूर वर्ग पर आधारित है और कहीं ना कहीं उनके संघर्ष की कहानी झलकाती है. साथ ही इन फिल्मों ने हमें कुछ यादगार किरदार भी दिए.

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नमक हराम (1973)

मध्य वर्ग के व्यक्ति और उनकी समस्याओं को प्रस्तुत करने के लिए ऋषिकेश मुखर्जी से अधिक उपयुक्त फिल्मकार कोई नहीं हो सकता. मुखर्जी ने मध्यवर्ग के जीवन को परदे पर उतारा है. जो बाद में हिंदी फिल्मों का केंद्र बन गया, इसी कड़ी में उनकी फिल्म नमक हराम है. फिल्म की कहानी दो दोस्तों पर आधारित है, जिसमें एक दोस्त-अमीर होता है और दूसरा गरीब. विक्की (अमिताभ बच्चन) और सोनू (राजेश खन्ना) के बारे में है. विक्की को उसके कारखाने के यूनियन लीडर द्वारा अपमानित किया जाता है, और इसका बदला लेने के लिए, सोनू एक कार्यकर्ता के रूप में उनके साथ जुड़ जाता है और बाद में यूनियन लीडर भी बन जाता है. वह श्रमिकों की दुर्दशा उनकी परेशानियों के प्रति सहानुभूति रखता है और उनके आदर्शों में विश्वास करना शुरू कर देता है. इससे विक्की के साथ उसकी दोस्ती में दरार आ जाती है. यह फिल्म ऐसे समय में बनी थी जब मुंबई में कपड़ा मिल फलफूल रही थीं.

मजदूर (1983)

इस फिल्म में श्री सिन्हा का किरदार स्वर्गीय नज़ीर हुसैन द्वारा किया गया है, जो एक उदार मिल मालिक होता हैं, और अपने कर्मचारियों के साथ अपना मुनाफा बांटता है. मगर जब वो मर जाता है, तो उसका बेटा फैक्टरी संभाल लेता है और सब कुछ बदल देता है ताकि वो अपने लाभ को बढ़ा सके. कहानी वहां मोड़ लेती है जब फैक्ट्री मिल श्रमिक दिलीप कुमार मिल मालिक के खिलाफ विद्रोह करने का फैसला करता है और अपनी खुद की मिल शुरू करता है. उसका एक इंजीनियर मित्र उस की कंपनी स्थापित करने में मदद करता है और वो दोनों मिलकर एक सफल कंपनी चलाने लगते है. यह फिल्म मेलोड्रामा से भरी हुई थी.

दीवार (1973)

दीवार फिल्म का वो डायलॉग तो याद ही होगा आपको "मेरे पास माँ है" लेकिन फिल्म की असली कहानी इस बात में है, कि कैसे अमिताभ बच्चन एक ठग बन जाता है. दरअसल कहानी में उनके पिता एक ईमानदार ट्रेड यूनियन नेता थे, जिनकी हत्या कर दी गई थी. जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है, अमिताभ बच्चन एक एंग्री यंग मैन बन जाते है, जिनके अंदर अपने बाप की मौत का गुस्सा है. और आखिर में, एक ठग बन जाता है. शशि कपूर ने फिल्म में अमिताभ बच्चन के भाई का रोल निभाया है,जो एक पुलिस अधिकारी बन जाता है और अमिताभ को पकड़ने के लिए मजबूर होता है.

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काला पत्थर (1979)

यह यश चोपड़ा की सबसे कम आंकी जाने वाली फिल्मों में से एक है, और अमिताभ बच्चन के शानदार प्रदर्शन वाली फिल्मों में से एक है. यह फिल्म चासनाला कोयला खनन आपदा पर आधारित है, जहां अमिताभ बच्चन एक पूर्व-व्यापारी नौसेना अधिकारी विजय की भूमिका निभाते है. जो बाद में कोयला खनिक बन जाता है. फिल्म इमोशनस से भरी हुई है, कुछ दृश्य ऐसे हैं जिसमें एक मजदूर के दर्द को झलकाया गया है. जैसे कि वो दृश्य जहां विजय, राखी से कहता है, "दर्द मेरी किस्मत में है, डॉक्टर." यह अमिताभ बच्चन का एक और गुस्से से भरा चरित्र था. फिल्म में शत्रुघ्न सिन्हा भी विलन का किरदार निभा कर अमिताभ बच्चन को कड़ी टक्कर देते है. विजय को अपने लालची मालिक से भी लड़ना पड़ता है जो मजदूरों को अच्छे उपकरण नहीं देता और उनकी जिंदगी दांव पर लगा देता है. यह फिल्म खनिकों के सामने आने वाले परेशानियों, मुश्किलों को दर्शाती है.

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दो बीघा जमीन (1953)

फिल्म का केंद्रीय विषय एक किसान के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसकी जमीन को औद्योगीकरण के लिए लिये जाने की बात उठती है. बलराज साहनी, शंभू की भूमिका निभाते हैं, जिसके पास दो बीघा जमीान है. दरअसल फिल्म में एक गरीब किसान की कहानी दिखाई गई है जिसकी रोजी-रोटी उसके खेत से जुड़ी है. लेकिन जमींदार से पैसे लेने के बाद उस पैसे को चुकाने के लिए जमींदार उससे उसका खेत मांगने लगता है. जब शंभू असहमत होता है, तो जमींदार जमीन की नीलामी करने की धमकी देता है. शंभू के रूप में बलराज साहनी का प्रदर्शन अभी भी दिल को छू लेने वाला है और 'धरती कहे पुकार के' गीत अभी भी किसानों की दुर्दशा को झलकाता है.

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नया दौर (1957)

दिलीप कुमार अभिनीत यह फिल्म एक 'तांगेवाला' के बारे में है. जो एक तांगे (घोड़ा गाड़ी) को चलाता है, जिसकी रोजी- रोटी पर तब खतरा मंडराने लगता है जब एक अमीर जमींदार बस सेवा शुरू करता है. यह फिल्म स्वतंत्रता के बाद भारत में हो रहे औद्योगीकरण को दर्शाती है. यह फिल्म साफ तौर पर "आदमी बनाम मशीन" (Man Vs Machine) की एक क्लासिक कहानी थी, और धीरे-धीरे भारत में बढ़ती तकनीक के कारण जो खाई पैदा हो रही थी उस पर प्रकाश डालती है. जब तांगेवाले बस सेवा शुरू करने का विरोध करते हैं, तो जमींदार बस और तांगे के बीच एक प्रतियोगिता करवाने का प्रस्ताव रखता है. जो कोई जीतता है उसे ही परिवहन का सबसे अच्छा साधन माना जाएगा, और दूसरे को हार माननी होगी. तांगे पर दिलीप कुमार और ज़मींदार के बीच अंतिम दौड़ देखना अभी भी उतना ही दिलचस्प है.

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