‘क्या मैं सही हूं’ शकुंतला देवी, जब भी गणित के मुश्किल से मुश्किल सवाल को हल करती है, तो यही सवाल पूछती है. और बच्चों की तरह उत्साह के साथ तालियां बजाती हैं. कुछ रौशनी भरे बैकग्राउंड स्कोर और साड़ियों की चमक के साथ, अपनी सिग्नेचर हंसी में विद्या बालन ने पूरी प्रतिबद्धता के साथ इस किरदार को निभाया है. विद्या शकुंतला देवी के रूप में काफी अच्छी हैं और उनसे नजरें हटाना मुश्किल है.
शकुंतला देवी गणित की प्रतिभा की सच्ची कहानी पर आधारित है, जिनके कारनामों की वजह से उन्हें “मानव कंप्यूटर” का खिताब मिला. नयनिका महतानी के साथ अनु मेनन ने इसकी स्क्रीनप्ले लिखी है.
हालांकि, फिल्म उनकी बेटी अनुपमा बनर्जी के नजरिए से है. शकुंतला देवी का गणित और मातृत्व के बीच संतुलन का काम जो नाजुक मां-बेटी के रिश्ते की परीक्षा लेता है.
कहानी एक नॉन लीनियर फैशन में आगे बढ़ती है. 2001 के लंदन से हम बैंगलोर 1934 में वापस जाते हैं. शकुंतला गणित की कुछ समस्याओं को ऐसे हल करती हैं, जैसे कि नर्सरी की कविताएं पढ़ना. माता-पिता (इप्शिता चक्रवर्ती, प्रकाश बेलावाडी द्वारा अभिनीत) अचंभित हैं. कुछ ही समय में, उसकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने के बाद, वो अपने अनूठे "गणित शो" के लिए हर जगह घूमती हैं - अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करते हुए, वो संख्याओं के बारे में बताती हैं. ऐसे कठिन गणितीय समीकरणों को सुलझाती हैं जैसे कि कोई उन्हें फुसफुसा कर उस सवाल का जवाब दे रहा हो, वहीं लोग उनके लिए तालियां बजा रहे होते हैं.
लंदन में, जब उससे पूछा गया कि ऐसा क्या है जिसकी वजह से वो मंच पर रहना पसंद करती हैं, तो वो कहती हैं “वो लोगों के चेहरे देखती हैं, जब वे चोटी वाली लड़की को गणित के सवाल हल करते हुए देखते हैं” कैसे ? वो ये कैसे करती हैं? हर कोई उनसे पूछता है और विद्या बस दिल खोलकर हंसती हैं.
एक कंप्यूटर को हराना, दुनिया की यात्रा करना, संदेह और प्रशंसा करने वालों को समान रूप से रोमांचित करना. इशिता मोइत्रा द्वारा लिखे गए कई प्यारे संवादों में से एक, ताराबाई (शीबा चड्ढा) का डायलॉग है, जिसके गेस्टहाउस में शकुंतला जब पहली बार इंग्लैंड जाती हैं तो रहती हैं, वो मेरा पसंदीदा है - "एक लड़की अगर अपने मन की सुनती है...और दिल खोल के हंसती है उससे ज्यादा डरावना मर्दों के लिए और क्या होगा ” अंतरा लाहिड़ी का संपादन शानदार है.
शकुंतला देवी की महिमा दिखाई गई है. वो फिल्म में कई बार दोहराती हैं "मैं कभी नहीं हारती" . उनका लगभग न के बराबर बचपन, जिसके लिए वो जीवनभर पछताती रहती हैं, उसे वो सब पाने करने के लिए मजबूर करना चाहता है जो उनके दिल की इच्छा है. हल्के-फुल्के अंदाज में पारितोष बनर्जी हैं, जिसे जिशु सेनगुप्ता ने निभाया है, जिनसे उनकी शादी होती है, और उनकी बेटी अनुपमा का किरदार सान्या मल्होत्रा ने निभाया है.
शकुंतला हर कदम पर यथास्थिति पर सवाल उठाती हैं, शकुंतला कई बार बेहद स्वार्थी और भावुक हो जाती हैं. विद्या ने बेहद से खूबसूरती से इसका चित्रण किया है. कुछ क्षण ऐसे हैं जो रॉ और दर्दनाक हैं क्योंकि हम एक महिला के संघर्ष को देखते हैं, दुनिया को उसके पैरों पर और उसकी बेटी को उसकी तरफ देखते हैं.
सान्या मल्होत्रा का अपनी मां के खिलाफ विद्रोह अत्यंत प्रभावी है. सान्या और विद्या एक-दूसरे की एनर्जी को पूरा करते हैं. इमोशनल सींस को अच्छे से संभाला गया है. अमित साध ने सान्या के ऑन-स्क्रीन पति की भूमिका निभाई है. आखिर में जब दोनों के बीच काफी टकराव की स्थिति आती है, वहां थोड़ा सा मेलोड्रामा हो जाता है
ये थोड़ा अखरता है नहीं तो ये अच्छी फिल्म है. खासकर विद्या के अभिनय की वजह से. भावुक संकल्प के साथ अपनी समस्याओं को सुलझाते हुए देखना काफी खुशी देता है. आत्म दया को छोड़कर हर भावना के लिए जगह है. हमारी रेटिंग: 5 में से 3.5 क्विंट!
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