हमसे जुड़ें
ADVERTISEMENTREMOVE AD

'Bheed' Review: लॉकडाउन की त्रासदी को टटोलती और अपनी कहानी बखूबी बयां करती 'भीड़'

राजकुमार राव, भूमि पेडनेकर स्टारर और अनुभव सिन्हा की डायरेक्शन में बनी 'भीड़' फिल्म 24 मार्च को रिलीज हुई

रोज का डोज

निडर, सच्ची, और असरदार खबरों के लिए

By subscribing you agree to our Privacy Policy

ADVERTISEMENTREMOVE AD

हम एक डॉक्यूमेंट्री और सच्ची कहानी पर आधारित फिक्शनल फिल्म के बीच की रेखा कहां खींचते हैं? और यदि इसे बारीक रेखा को चुनौती दी जाती है, तो दर्शक कहां खड़े होते हैं?

फिल्म मेकर अनुभव सिन्हा 'भीड़' फिल्म के जरिए एक और मार्मिक विषय के साथ पर्दे पर वापसी कर रहे हैं. भीड़ से पहले, डायरेक्टर ने पितृसत्ता (थप्पड़), जाति-आधारित भेदभाव और हिंसा (आर्टिकल 15), धर्म और उग्रवाद (मुल्क) जैसे मुद्दों पर फिल्में बनाई हैं.

अनुभव सिन्हा, सौम्या तिवारी और सोनाली जैन की लिखी फिल्म 'भीड़' कोविड लॉकडाउन के दौरान भारत में प्रवासी संकट पर प्रकाश डालती है. वास्तविक समाचारों को एक काल्पनिक कथा में पिरोकर, अनुभव सिन्हा ने एक ऐसी फिल्म बनाई है जो आपको बांधे रखती है.

'भीड़' के एक दृश्य में राजकुमार राव

(फोटो: यूट्यूब)

सूर्य कुमार सिंह टिकस के रूप में राजकुमार राव, एक पुलिस वाले की भूमिका निभा रहे हैं. उन्हें एक चेक पोस्ट का प्रभारी तब बनाया जाता है, जब लॉकडाउन में हजारों घर लौटने के लिए तमाम राज्यों की सीमाओं को पार करने की कोशिश कर रहे हैं.

एक विशेष रूप से दिल दहलाने वाले सीन में, पंकज कपूर के किरदार बलराम त्रिवेदी ने अफसोस जताया कि वे घर वापस जाने की कोशिश कर रहे हैं और अपने घरों को भी पीछे छोड़ चुके हैं.

फिल्म 'भीड़' का एक दृश्य

(फोटो: यूट्यूब)

राव अपने रोल में प्रभावशाली हैं और अपने किरदार की पेचीदगियों को शानदार ढंग से पकड़ते हैं. भूमि पेडनेकर (रेणु शर्मा) या पंकज कपूर के साथ उनके दृश्यों में, दर्शक यह महसूस करने पर मजबूर हो जाते हैं कि दो बेहतरीन कलाकार एक-साथ आए हैं और वो काम कर रहे हैं जिसमें वो माहिर हैं.

फिल्म में जैसे-जैसे लोग राज्य सीमाओं पर बने चेक पोस्ट के पास कतारों में लगते जाते हैं, उसके साथ साथ इनका गुस्सा भड़कता है, जातिगत संघर्ष, वर्ग संघर्ष, और बहुत ऐसे मुद्दे खुलते जाते हैं. फिल्म इस बात पर भी ध्यान देती है कि कैसे COVID महामारी के दौरान मीडिया के गैर-जिम्मेदाराना कवरेज ने केवल मौजूदा ज़ेनोफ़ोबिया और इस्लामोफ़ोबिया को और बदतर बना दिया.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

अनुभव सिन्हा की इस फिल्म में भूमि पेडनेकर का किरदार, रेणु शर्मा ठीक इसके उलट काम करता है. रेणु शर्मा एक स्वास्थ्यकर्मी हैं और इस भीड़ में तर्क की एकमात्र आवाज हैं जिन्हें बहुत कम लोग सुनते हैं.

दूसरी ओर, सूर्या की कहानी इस बात की पड़ताल करती है कि हमारे समाज में जातिगत भेदभाव कितना गहरा है. पुलिस में रैंक बढ़ने के बावजूद, सूर्य लगातार पुलिस के भीतर और बाहर इस भेदभाव से दो-चार होता है.

फिल्म में भूमि पेडनेकर और राजकुमार राव का किरदार

(फोटो: यूट्यूब)

बलराम त्रिवेदी का किरदार असहाय तो है लेकिन साथ ही वह कट्टर पितृसत्तात्मक सोच रखता है. वह अपने लोगों की जरूरतों के सामने अपने पूर्वाग्रहों को तरजीह देता है. खास बात है कि डायरेक्टर अनुभव सिन्हा उसे एक ऐसे किरदार के रूप में चित्रित नहीं करते हैं जिसका हृदय परिवर्तन अचानक हो गया हो.

इसके अलावा फिल्म में 'पैरासाइट' फिल्म की तरह एक समानांतर दुनिया भी दिखाई. दीया मिर्जा ने एक ऐसी महिला का किरदार निभाया है जो अपनी बेटी को एक हॉस्टल से लेने के लिए जाती है. इस सफर में वह अपनी बड़ी गाड़ी के आराम से सब कुछ देखती है और सहानुभूति दिखाने की कोशिश करती भी है तो केवल अपने विशेषाधिकार के दायरे में ही रहकर.

ADVERTISEMENTREMOVE AD

फिल्म में पंकज कपूर की अहम भूमिका है

(फोटो: यूट्यूब)

भीड के बारे में पसंद करने के लिए बहुत कुछ है लेकिन इसमें कमियां भी हैं. कुछ दृश्य विचारशील से अधिक उपदेशात्मक लगते हैं. कोरोना लॉकडाउन जनित संकट के कई पहलुओं को कवर करने की इच्छा किरदारों को अच्छी तरह से गढ़ने की जरूरत से टकराती है.

दिया मिर्जा और अच्छी सोच रखने वाली पत्रकार विधी प्रभाकर के रूप में कृतिका कामरा के दृश्य बिना ज्यादा प्रभाव डाले आते हैं और गुजर जाते हैं. ऐसा नहीं है कि ये एक्टर अपने प्रदर्शन में लड़खड़ाते हैं. उनके लिए जो किरदार गढ़ा गया है वो उसे निभाते हुए फिल्म पर एक छाप छोड़ने की कोशिश करते हैं. लेकिन शायद वे इससे ज्यादा के हकदार थे.


'भीड़' में कृतिका कामरा

(फोटो: यूट्यूब)

डीओपी के रूप में सौमिक मुखर्जी और एडिटर के रूप में अतनु मुखर्जी ने 'भीड' में ऐसा वातावरण तैयार करने के लिए साथ काम किया है जो शक्तिशाली है और अपने विषयों का शोषण नहीं करती है. पूरी फिल्म को ब्लैक एंड व्हाइट बनाने का निर्णय कुछ दर्शकों के लिए काम कर सकता है और दूसरों के लिए नहीं. अगर आप मुझसे पूछे तो मुझे यह प्रभावी लगा.

इन रचनात्मक/क्रिएटिव निर्णयों को अनीता कुशवाहा की प्रभावशाली साउंड डिजाइन और मंगेश धड़के के मूविंग बैकग्राउंड स्कोर से बल मिला है.

क्या 'भीड़' जैसी फिल्म अभी बनाना जल्दबाजी है? क्या मानव पीड़ा की कहानियों को फिर से बताने का यह सही समय है? दिमाग में घूमते इन सवालों के साथ आप थिएटर से बाहर आएंगे. लेकिन इस बात से इंकार करना कठिन होगा कि फिल्म शक्तिशाली है और जो कहानी कहने के लिए तैयार की गई है, उसे बखूबी बयां करती है.

क्विंट रेटिंग: 3.5/5

(हैलो दोस्तों! हमारे Telegram चैनल से जुड़े रहिए यहां)

सत्ता से सच बोलने के लिए आप जैसे सहयोगियों की जरूरत होती है
मेंबर बनें
और खबरें
×
×