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'झुंड' रिव्यू: अमिताभ बच्चन नहीं, बच्चे हैं इस फिल्म के असली हीरो

'झुंड' फिल्म इसलिए भी खास है क्योंकि ये बच्चन को स्टार दिखाने के लिए नहीं है.

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'झुंड' रिव्यू: अमिताभ बच्चन नहीं, बच्चे हैं इस फिल्म के असली हीरो

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डायरेक्टर नागराज मंजुले के डायरेक्शन में बनी 'झुंड' (jhund) फिल्म विजय बर्से की जिंदगी पर बनी है. स्कूल से रिटायर्ड टीचर, बर्से ने स्लम सॉकर नाम से एक एनजीओ खोला था, ताकि वो बच्चों को ड्रग्स और अपराध की दुनिया से बाहर रख सकें.

नागराज मंजुले हमें 'झुंड' से मिलाने में ज्यादा समय बर्बाद नहीं करते. तुरंत ही हमारी मुलाकात होती है कुछ बच्चों से. हमें कोई कंटेक्स्ट नहीं दिया जाता और हम समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर ये बच्चे कौन हैं. धीरे-धीरे फिल्म की कास्ट ऊभर के सामने आती है और ऑडियंस 'झुंड' के कनेक्ट कर पाती है.

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फिल्म में एक दीवार भी है जो इन्हें अलग करती है. दीवार के एक तरफ की दुनिया इनकी है, और दूसरी तरफ की दुनिया में इन जैसे बच्चों की एंट्री भी मना है.

फिर उस दूसरी दुनिया से एक टीचर की एंट्री होती है, विजय बोराड सर (अमिताभ बच्चन) की, एक सीनियर टीचर, जो इन बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित करते हैं.

सुधाकर यक्कांती रेड्डी की सिनेमैटोग्राफी, साकेत कानेटकर का बैकग्राउंड स्कोर और अजय अतुल का म्यूजिक आपस में शानदार है. हमें आइडिया लगता है कि फिल्म अब किस दिशा में आगे बढ़ रही है, और सभी इन अंडरडॉग्स के लिए चीयर करने लग जाते हैं.

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'झुंड' फिल्म इसलिए भी खास है क्योंकि ये बच्चन को स्टार दिखाने के लिए नहीं है.

लेकिन फिर तभी मंजुले कहानी कहने का तरीका बदल देते हैं. हमें लगता है कि फिल्म में सेलिब्रेशन होगा, आंसू होंगे, लेकिन हमें मिलती है डॉक्यूमेंट्री स्टाइल की फिल्म.

फिल्म की कास्टिंग शानदार है. 'झुंड' फिल्म इसलिए भी खास है क्योंकि ये बच्चन को स्टार दिखाने के लिए नहीं है. अमिताभ बच्चन जैसे सितारे के होते हुए भी फिल्म के असली हीरो वो बच्चे ही हैं. रिंकू राजगुरू और आकाश थोसर भी हमें फिल्म में दिखाई देते हैं.

'झुंड' को 5 में से 4 क्विंट!

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