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‘परमाणु’ में नहीं है दम, निराश करती है ये फिल्म

11 मई 1998 में पोखरण टेस्ट के बाद भारत पूरी तरह न्यूक्लियर स्टेट साबित कर दिया गया था.

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परमाणु रिव्यू: पोखरण न्यूक्लियर स्टेट एक बेहतर कहानी

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11 मई 1998 में पोखरण टेस्ट के बाद भारत पूरी तरह न्यूक्लियर स्टेट साबित कर दिया गया. भारत के लिए ये बहुत बड़ी कामयाबी थी, जिसने अमेरिका की नाक के नीचे 1998 में पोखरण में न केवल 5 सफल परमाणु परीक्षण करवाए, बल्कि देश को दुनिया भर में न्यूक्लियर एस्टेट का दर्जा देकर भारत को दुनिया के शक्तिशाली देशों में शामिल करवाया. कामयाबी के साथ ये मिशन सीआईए की सबसे बड़ी नकामयाबी में भी गिना जाता है.

अभिषेक शर्मा की इस फिल्म अश्वत रैना( जॉन अब्राहम) एक ईमानदार आईएएस ऑफिसर हैं. जिसके पास न्यूक्लियर स्टेट का ब्लू प्रिंट मौजूद है, लेकिन इस ईमानदार ऑफिसर को देश सेवा का मौका ही नहीं मिल रहा. अश्वत को प्राइम मिनिस्टर नहीं मिल रहे हैं, ब्लू प्रिंट की फ्लॉपी डिस्क इधर-उधर जा रही है. इतना कहा जा सकता है कि इस पूरे ड्रामे में एक्टिंग के अलावा बाकी सब मौजूद था.

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आखिरकार फिल्म थोड़ा आगे बढ़ती है और पोखरण पहुंचती है. जहां पर ये न्यूक्लियर टेस्ट होने वाला है, क्योंकि हम जानते थे कि ये रियल स्टोरी पर बेस्ड फिल्म है तो हमे पता था कि फिल्म में आगे क्या शॉकिंग होने वाला है, लेकिन आप ज्यादा शॉक न हो क्योंकि फिल्म आपको मायूस कर सकती है. इस फिल्म में देखने लायक जॉन की आईब्रो एक्टिंग और म्यूजिक की गड़गड़ाहट के अलावा कुछ और नहीं है. यहां तक की इस फिल्म की गली-मोहल्ले में जबरदस्ती ठुसा हुआ एक गाना जरूर मिल जाएगा. इसलिए आपको ये हिदायत दी जाती है कि आप फिल्म देखते वक्त नींद की झपकियों से बचें.

अश्वत रैना अपना सीक्रेट मिशन शुरू करते हैं और लाइब्रेरी में जो सांइटिस्ट का चेहरा पसंद आया उसे अपने मिशन में शामिल कर लेते हैं. फिल्म में कमियों की भरमार है. उतनी रिसर्च की नहीं गई जितनी जताने की कोशिश की गई है. फिल्म में आपको बहुत सारे नाम, रियल न्यूज फुटेज, अटल बिहारी वाजपेयी जैसी मशहूर हस्तियों की स्पीच और बोमन ईरानी जो कि प्रधानमंत्री के किरदार में दिखाई देंगे, लेकिन कमजोर स्क्रिप्ट और स्क्रिनप्ले ने कमजोर बना दिया. फिल्म में डायना पेंटी, जो कि मिशन की मेंबर है, वो भी फिल्म में जान फूंकने में नाकमयाब रहीं.

फिल्म के फर्स्ट हॉफ से तो उम्मीद नहीं थी, लेकिन सेकेंड हॉफ में ये सोचकर फिल्म देखने पर मजबूर हो जाते हैं कि शायद कुछ इंटरेस्टिंग मिल जाए. लेकिन वो सब भी उम्मीदों पर पानी फेरने जैसा था. इस फिल्म को देखकर एक बात तो साफ हो गई कि काश एक्टिंग जिम में सिखाते तो शायद जॉन अपनी बेहतरीन परफॉर्मेंस दे पाते.

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