सॉरी थोड़ा डायेरक्ट हो गया लेकिन सच बताऊं तो 'ये हम हैं, हमारी कार है और ये हमारी पार्टी चल रही है' पर बने मीम और जोक्स इस मूवी से ज्यादा इंट्रेस्टिंग हैं.
फिल्म 'द गर्ल ऑन द ट्रेन' को इसी नाम से लिखी गई पौला हॉकिन्स की बुक पर बनाया गया है. शायद आपने ये किताब पढ़ी हो या फिर इसी नाम से बनी एमिली ब्लंट स्टारर हॉलीवुड फिल्म देखी हो. जब किसी थ्रिलर फिल्म का रीमेक बनता है तो आपको फिल्म की बहुत सी थ्रिल वाली चीजें पहले से ही पता होती हैं. इससे होता क्या है? होता ये है कि फिल्म का थ्रिल तो पहले ही खत्म हो चुका होता है.
शायद यही सोचकर फिल्म के डायरेक्टर रिभू दासगुप्ता ने फिल्म में थोक के भाव ट्विस्ट और टर्न्स डाल दिए हैं. साथ ही, उन्होंने फिल्म में साजिशों की एक्स्ट्रा लेयर से गार्निशिंग भी कर दी है. लेकिन ये सब करने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. क्योंकि इससे फिल्म का असर कम हो जाता है. फिल्म में इन नए मसालों को डालने की जरूरत नहीं थी. आप ये सोचने लग जाएंगे कि आखिर इसकी जरूरत ही क्या थी.
सही बताऊं तो ये फिल्म देखना उस ट्रेन राइड जैसा है जिसके पहले ही स्टेशन में उतरने का मन कर जाता है.
भले ही आपने ओरिजिनल फिल्म देखी हो या न देखी हो लेकिन फिल्म को लेकर आपकी उम्मीदें तो एक जैसी ही होंगी कि यार फिल्म देखने में मजा आना चाहिए. टाइम बर्बाद जैसा नहीं लगना चाहिए. आपको बताऊं तो इस फिल्म के साथ तो ऐसा नहीं हो पाता.
शुरुआती 25 मिनट में दो गाने
सोचिए फिल्म के शुरुआती 25 मिनट में ही दो गाने आ जाते हैं. इस तरह की 'डार्क इमोशन्स' वाली फिल्म देखते समय जब कभी ऐसा मौका आने वाला होता है कि आप बस फिल्म में खोने ही वाले होते हैं और उसी समय एक गाना आ जाए. कैसा लगेगा आपको? ऐसा लगेगा जैसे आप बिरयानी खा रहे हो और मुंह में इलायची आ जाए. किसे पसंद आएगा ये? गाने भी ऐसे कि बस सुनो और भूल जाओ.
फिल्म की कहानी का बैकग्राउंड लंदन शहर है. लुधियाना भी होता न, तो चलता. कोई फर्क नहीं पड़ता. परिणीति चोपड़ा के किरदार का नाम मीरा कपूर है. जैसे ही मीरा की फिल्म में एंट्री होती है उसका किरदार समझदार और बहादुर वकील जैसा लगता है. आपको ऐसा लगेगा कि उसकी जिंदगी मजे से कट रही है. लेकिन अचानक से ही उसकी लाइफ में कुछ बुरा होता है. उसके साथ क्या होता है ये तो आपको यहां नहीं बता सकते क्योंकि हम आपको फिल्म से जुड़े स्पॉइलर नहीं देते.
अचानक से मीरा की जिंदगी तबाह हो जाती है. धीरे-धीरे सबका साथ छूट जाता है और मीरा नशे की आदी हो जाती है. सिर्फ एक ही रूटीन मीरा फॉलो करती है कि वो हर रोज ट्रेन से सफर कर रही होती है और हर रोज उसे ट्रेन की खिड़की से एक लड़की बालकनी में खड़ी हुई नजर आती है.
मीरा को उस लड़की की जिंदगी बिल्कुल वैसी ही लगती है जैसी खुद मीरा की पहले थी. मतलब ये कि मीरा को उसकी जिंदगी खुशनुमा लगती है. एक दिन उसी बालकनी में खड़ी लड़की के साथ वो एक लड़के को देखती है और उसे लगता है कि शायद इसका एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर चल रहा है.
मीरा को गुस्सा आता है और उसे लगता है कि लड़की को रोकना जरूरी है. इसके साथ ही उनकी जिंदगी की मुसीबतों की लिस्ट में और इजाफा हो जाता है. अचानक से एक मर्डर होता है जिसमें मीरा भी शक के घेरे में आ जाती है.
मीरा खुद को उस लड़की की जगह में रखकर सोचने लग जाती है. वो उसकी सिचुएशन के बारे में समझने के लिए उसके जैसा ही सोचने की कोशिश करती है. वो चीजें याद करने की कोशिश करती है लेकिन उसे कुछ याद नहीं आता. ओरिजिनल फिल्म में आप इस बात को समझ पाते हैं कि ये लड़की परेशानी से जूझ रही है. इस वजह से ही ओरिजिनल फिल्म से आप ज्यादा जुड़ पाते हैं. लेकिन इस फिल्म में आपको ये सब चीजें नहीं मिल पातीं. आपको बस उनका मस्खारा लुक ही देखने को मिलेगा.
फिल्म को ऐसे पेश करना चाहिए कि आप उसमें हो रही चीजों को खुद महसूस कर पाएं. उससे जुड़ जाएं. लेकिन यहां पर तो ऐसा है कि बस आपको जानकारी दे दी जाती है. चीजों के बारे में बता दिया जाता है.
इतने सारे किरदार फिल्म में क्यों हैं?
अब स्पॉइलर्स नहीं बता सकते लेकिन आपको फिल्म देखते समय ऐसा लगेगा कि आखिर इतने सारे किरदार फिल्म में कर क्या रहे हैं. उनकी जरूरत क्या थी. क्योंकि फिल्म में उनका कोई असर नहीं दिखता. यहां तक कि फिल्म के मुख्य किरदार जैसे कि इनवेस्टिगेटिंग ऑफिसर बनी कीर्ति कुल्हाड़ी. पगड़ी पहने उनका लुक तो अलग लगता है. लेकिन आपको लगेगा कि इतने अच्छे टैलेंट को फिल्म में कैसे इस्तेमाल किया गया है. इस किरदार को इस तरह से पेश किया गया है कि आपको लगेगा कि आखिर इस रोल की जरूरत क्या थी.
अब दूसरे मुख्य किरदार की बात करें जिसे अविनाश तिवारी जैसे बेहतरीन एक्टर ने निभाया है तो उस किरदार को भी ठीक से स्थापित नहीं होने दिया गया है. जैसे ही अविनाश का किरदार का 'डार्कर' साइड दिखता है वैसे ही फिल्म की कहानी कहीं और मुड़ जाती है. क्योंकि फिल्म में ट्विस्ट और टर्न्स जो लाने हैं. और अगर ऐसे ट्विस्ट लाने भी थे फिल्म में, तो कम से कम वो ऐसे होने चाहिए थे कि उन्हें देखने में मजा आता है. ट्विस्ट ऐसे हैं कि आप को पता चल जाता है कि ये पहले से ही तय किए गए हैं.
अदिति राव छाप छोड़ने में कामयाब रही हैं
अदिति राव हैदरी ने अपने किरदार को सीमित साधनों में भी बेहतर ढंग से निभाया है. हालांकि, उनका रोल भी बहुत अच्छे से नहीं लिखा गया लेकिन कम से कम आप उनको देखते समय उनसे जुड़ पाते हो. उनके दर्द और डर को महसूस कर पाते हो.
फिल्म का नेगेटिव पॉइंट ये है कि फिल्म में जरूरत हो या न हो लेकिन पहले सीन से आखिरी सीन तक परिणीति चोपड़ा का मेकअप सही हो जाता है. हर सीन में उनका मस्खारा और आईलाइनर दिखता है. मैं कहूं तो मेकअप ट्यूटोरियल की तरह तो फिल्म ने जरूर अच्छा काम किया है.
कायदे से तो फिल्म को ओरिजिनल सोर्स की तरह ही बनाना चाहिए था. अगर फिल्म को साइकोलॉजिकल ड्रामा की तरह पेश करते तो अच्छा होता.
इतने ट्विस्ट डालने के बावजूद एक खिचड़ी बन गई है. जिसे देखने में मजा नहीं आता है. अगर आपके पास कुछ और नहीं है देखने को तो आप ये फिल्म देख सकते हैं. लेकिन हम 'द गर्ल ऑन द ट्रेन' को देते हैं 5 में से 1.5 स्टार.
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