साई पल्लवी (Sai Pallavi) तमिल अभिनेत्री हैं, जिनकी मातृभाषा बदगा है और वो मुख्य रूप से तेलुगू फिल्मों में अभिनय करती हैं. लेकिन हाल में वो अंग्रेजी, हिंदी, मराठी और कई भाषाओं में सुर्खियों में रहीं. इसकी वजह थी, भारत में धार्मिक हिंसा को लेकर उनका बयान. इस बयान की वजह से उन्हें कुछ सोशल मीडिया यूजर्स की नाराजगी झेलनी भरी, इसमें दुर्भावना से भरे कॉमेंट भी थे.
तो आखिर साई पल्लवी ने क्या कहा और क्यों इस बात ने उन्हें हिंदुत्व राष्ट्रवादियों के निशाने पर ला दिया?
साई पल्लवी अपनी फिल्म विराट पर्वम (Virata Parvam) की रिलीज से पहले एक तेलुगू यूट्यूब चैनल से बात कर रही थीं. विराट पर्वम, 1990 के दशक में तेलंगाना में नक्सलवादी आंदोलन की पृष्ठभूमि में बनी फिल्म है.
जब साई पल्लवी से वामपंथी आंदोलन के उनके व्यक्तिगत जीवन पर प्रभाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, मैं एक न्यूट्रल फैमिली में पैदा हुई हूं. जहां मुझे एक अच्छा इंसान होने के बारे में सिखाया गया है. मुझे सिखाया गया है कि मुझे उन लोगों को सुरक्षित करना चाहिए, जिन्हें नुकसान पहुंचाया गया है. पीड़ित को सुरक्षा मिलनी चाहिए. चाहे उसका स्टेचर, उसका कद कुछ भी हो. मैंने वामपंथ और दक्षिणपंथ के बारे में सुना है, लेकिन हम कभी निश्चित रूप से ये नहीं कह सकते कि कौन गलत है और कौन सही?
उनके जवाब का ये हिस्सा सोशल मीडिया यूजर्स ने अनदेखा कर दिया. लेकिन इसके बदले में उन्होंने आगे जो कहा, उसे लेकर साई पल्लवी को निशाना बनाया गया. उन्होंने आगे जो बात कही उसकी एक छोटी वीडियो क्लिप बनाई गई और इसे शेयर किया जाने लगा. इसमें बड़े फॉन्ट के साथ तस्वीरें थीं, उनकी इस वीडियो क्लिप पर मीम बनाए गए और इसे बड़े स्तर पर सर्कुलेट किया गया. साई पल्लवी के सपोर्ट में और उनकी बात के विरोध में इतने सारे ट्वीट हुए कि #SaiPallavi ट्विटर पर ट्रेंड करने लगा.
जिस बात ने राइट विंग ट्विटर यूजर्स का ध्यान अपनी तरफ खींचा वो थी,
द कश्मीर फाइल्स, दिखाती है कि उस वक्त कश्मीरी पंडितों को कैसे मारा गया. अगर आप इस मुद्दे को धार्मिक टकराव के रूप में देखते हैं तो हाल में एक मुस्लिम ड्राइवर, गायों को ले जा रहा था, उसे पीटा गया और जय श्रीराम के नारे लगाने के लिए मजबूर किया गया. तो इन दोनों घटनाओं में कहां अंतर है? हमें अच्छा इंसान बनना चाहिए. अगर हम अच्छे इंसान होंगे तो दूसरों को चोट नहीं पहुंचाएंगे.
दोनों एक नहीं हैं, लेकिन...
क्या ये गलत है कि भारत के खिलाफ कथित शिकायतों का बदला लेने के लिए बंदूक उठाई जाए और कश्मीरी पंडितों को मारा जाए? हां, ये गलत है.
क्या ये गलत है कि कानून को अपने हाथ में लिया जाए और तस्करी या गौ हत्या के आरोप में मुस्लिमों को पीटा जाए और उन्हें जान से मार दिया जाए?
किसी भी सामान्य व्यक्ति का जवाब होगा हां, ये गलत है.
लेकिन दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों को वो तथ्य पसंद नहीं आया कि जब साई पल्लवी ने कश्मीरी पंडितों और गौ रक्षकों के अत्याचारों के पीड़ितों का नाम एक ही वाक्य में लिया.
ये परेशान करने वाला है. हाल के दिनों में याद करें तो मॉब लिंचिंग का पहला उदाहरण, जिसने देश का ध्यान अपनी तरफ खींचा, वह अखलाक़ का मामला था. जिसे उसके ही गांव वालों ने बछड़े की हत्या के झूठे आरोप में जान से मार दिया. गौ रक्षा के नाम पर मुस्लिमों और साथ ही दूसरे समुदायों के लोगों को भी पीटे जाने और जान से मारने की घटनाओं में, पीड़ित आम तौर पर पसमंदा मुस्लिम, दलित, आदिवासी और दूसरे वर्किंग क्लास के लोग रहे हैं. साल 2015 में अखलाक़ की हत्या के बाद ऐसी घटनाएं लगातार जारी हैं.
सबसे हाल की घटना को लें तो पिछले महीने दो आदिवासी समुदाय के लोगों को मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में गौ रक्षकों ने मार दिया.
भारतीय अदालतों ने दुर्लभ और सबसे वीभत्स अपराधों के लिए फांसी की सजा को सुरक्षित रखा है. एक आरोपी तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि उसका गुनाह साबित नहीं हो जाता.
इसलिए किसी को भी इस बात से परेशान होना चाहिए, जब भीड़ के न्याय और सतर्कता के नाम पर हो रहे अपराधों को लोग सामान्य बात की तरह देखने लगते हैं और इनमें पीड़ित आम तौर पर समाज के कमजोर तबकों के लोग होते हैं.
पल्लवी के बयानों को लेकर जो विवाद हुआ, वो यह भी दिखाता है कि किस तरह उन बातों को कहने का स्पेस भी सिकुड़ता जा रहा है, जो सरसरी तौर पर भी हिंदुत्व राष्ट्रवादी एजेंडा को लेकर आलोचनात्मक हों.
हिंदुत्व राष्ट्रवादियों ने पल्लवी की इस बात के लिए तारीफ नहीं की, जब उन्होंने कश्मीरी पंडितों की हत्या को गलत ठहराया, बल्कि वो इस बात से नाराज हो गए कि इसी के बीच में उन्होंने मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार के बारे में बात की. क्यों?
क्या इसका मतलब ये है कि हिंदुत्व राष्ट्रवादी उत्पीड़न के नैरेटिव पर पूरा कंट्रोल चाहते हैं और मुस्लिमों पर हिंसा थोपने की स्वतंत्रता चाहते हैं?
ऐसी क्या बात है जो एक व्यक्ति की मौत को दूसरे व्यक्ति की तुलना में शोक के ज्यादा काबिल बना देती है? क्या ये किसी व्यक्ति का धर्म तय करता है? जाति? वर्ग? क्या ये किसी खास समुदाय में मौतों की कुल संख्या है?
जीने का अधिकार पवित्र है और कोई भी जीवन दूसरे से ज्यादा कीमती नहीं है. क्या वाकई कोई इस बात पर आपत्ति जता सकता है, जब पल्लवी ने इसी जवाब में कहा, मैं जो मानती हूं, वो ये कि अगर तुम मुझसे मजबूत हो और मुझ पर अत्याचार कर रहे हो तो तुम गलत हो.
पल्लवी ने पहले भी ऐसा प्रोग्रेसिव स्टैंड दिखाया है. साल 2019 में उन्होंने एक फेयरनेस क्रीम के विज्ञापन को करने से मना कर दिया था.
उन्होंने कहा, इस तरह के विज्ञापन से मिले पैसे का मैं क्या करूंगी? मैं घर जाती हूं, तीन रोटियां और चावल खाती हूं और कार से अपने काम पर निकल जाती हूं. मेरी कोई बड़ी जरूरतें नहीं हैं. मैं देखूंगी कि मैं अपने आसपास के लोगों की खुशी के लिए क्या योगदान कर सकती हूं और मैं ये कह सकती हूं कि ये स्टैंडर्ड जो हम देख रहे हैं, ये गलत है. ये भारतीय रंग है. हम उनकी तरफ देखकर ये नहीं सोच सकते कि हमें वो चाहिए. वो उनका स्किन कलर है और ये हमारा.
जाहिर है कि किसी ने भी ये उम्मीद नहीं की होगी कि वो इस बात को लेकर विवादों में आएं कि उन्होंने फेयरनेस क्रीम को लेकर ऐसा कुछ कहा है. जबकि भारतीय समाज में स्किन कलर का मुद्दा व्यापक रूप से फैला हुआ है. इस पर शुक्रिया कहना चाहिए कि इस बात ने विरोधात्मक, लैंगिकवादी और महिलाओं के प्रति नफरती बयानों को आकर्षित नहीं किया.
लेकिन तब किसी को मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों पर बोलने के लिए भी प्रतिक्रिया का सामना क्यों करना चाहिए?
जब कश्मीर में हाल में आम नागरिकों के मारे जाने की घटनाएं सामने आईं और भारत में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा में कई जानें गईं. ऐसे वक्त में तर्कसंगत आवाजों को दबाए जाने ने न्याय की मांग करने वाले स्पेस को और कम कर दिया है.
साई पल्लवी को अपने कॉमेंट के लिए, जो उग्रता से कहीं दूर थे, जिस तरह की प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा, हो सकता है कि ये बात उन्हें भविष्य के लिए और सतर्क बना दे.
मेरा उनके दिल पर कोई इख्तियार नहीं है, लेकिन उदाहरण के लिए मैं ये कल्पना नहीं करता हूं कि पल्लवी कश्मीर में शासन की ज्यादतियों के बारे में निकट भविष्य में कुछ बोलेंगी, यहां तक कि अगर उनकी ऐसी इच्छा भी होती है तो भी
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