कारगिल युद्ध को हुए करीब 22 साल हो चुके हैं. अब कारगिल के हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा के जीवन पर आधारित फिल्म "शेरशाह" बनाई गई है, जिन्होंने बहादुरी से देश की लिए लड़ाई लड़ी और उन्हें मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. अब इस संदर्भ के बिना अगर हमें एक ऐसे युवक की कहानी बताई जाए जो बड़ा होकर सेना में भर्ती होना चाहता है, और इतना निडर है कि वो अपनी जान की फिक्र किए बिना ही दुश्मन पर धावा बोल देता है. एक लड़का इतना नाटकीय है कि जब उसकी गर्लफ्रेंड थोड़ा अनसिक्योर फील करती है तो वो अपनी उंगली को ब्लेड से काटता है और उसकी मांग को अपने खून से भर देता है. हमें ये बहुत Filmy और Unreal लगेगा, लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि यही वो रियल लाइफ है जो हमारे हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा की थी.
जब विक्रम बत्रा ने कहा- 'ये दिल मांगे मोर'
फिल्म के निर्देशक विष्णु वर्धन और स्क्रिप्ट राइटर संदीप श्रीवास्तव ने बहुत ही वास्तविकता के साथ इस काम को पूरा किया है. उदाहरण के लिए फिल्म में एक सीन है जहां कैप्टन बत्रा का भाई, उनके बारे में बात कर रहा है और वो जो कुछ भी कहता है वो विशाल बत्रा के वास्तविक भाषण से है, जिसे YouTube पर देखा जा सकता है. फिल्म का एक और दृश्य भी गौर करने लायक है जहां एक टीवी पत्रकार विक्रम बत्रा का इंटरव्यू कर रहा है और वो अपनी मशहूर लाइन 'ये दिल मांगे मोर' कहते हैं.
दो घंटे में पूरी जिंदगी की कहानी दिखाती शेरशाह
इसलिए फिल्म के सभी सीन और एक्शन इसे बॉलीवुड एक बड़ी फिल्म के लिए स्वाभाविक रूप से फिट बनाते हैं. वहीं यह भी है जो इसके आसपास की फिल्म को चुनौतीपूर्ण बनाता है. हम जानते हैं कि जीवन में किस तरह से चीजें खत्म होती जाती हैं और कैप्टन बत्रा लीजेंड की तरह जीवित रहते हैं. तो कोई ये कैसे सुनिश्चित करता है कि दर्शकों को ऐसा महसूस न हो कि स्क्रीन पर वही तथ्य फिर से सामने आ रहे हैं. किसी व्यक्ति की पूरी जिंदगी को सिर्फ दो घंटे में दिखाना बेहद मुश्किल काम है, लेकिन शेरशाह फिल्म इसकी भरपूर कोशिश करती है.
विक्रम के बचपन से लेकर उनके परवान चढ़ते कॉलेज के रोमांस तक सब कुछ फिल्म में शामिल किया गया है. कियारा, जिन्हें डिंपल चीमा के रूप में चित्रित किया गया है और सिद्धार्थ मल्होत्रा हट्टे-कट्टे युवक के रूप में एक शानदार केमिस्ट्री का हिस्सा बनते दिखाई देते हैं, लेकिन किसी-किसी वक्त यह बहुत लंबा और गैर जरूरी लगने लगता है.
एक्शन सीन के साथ फिल्म की गति निश्चित रूप से बढ़ जाती है. सिनेमैटोग्राफर कमलजीत नेगी का कैमरा तात्कालिकता और तनाव को कैद करता है. धीमी रोशनी वाले फ्रेम में शूट किये गए बहुत सारे सीन बताते हैं कि हालात कितने मुश्किल हैं. फिल्म के ये ऐसे हिस्से हैं जो हमें बांधकर रखते हैं. कुछ ऐसे हैं जिनसे आंखे नम होने लगती हैं. यह देखने और गौर करने वाली बात है कि टोन में ठहराव रहता है और कभी भी जोरदार और व्यंग्यात्मक होता नहीं दिखता. स्क्रिप्ट की सीमाओं को देखते हुए वर्दी में एक आदमी के रूप में सिद्धार्थ मल्होत्रा भी काफी अच्छा काम करते हैं और जो कियारा आडवाणी के साथ घर पर ‘Peace Time’ सीन में अधिक महसूस होते हैं.
फिल्म में अच्छे कलाकारों का एक समूह भी है जिसमें कमांडिंग ऑफिसर के रूप में Shataf Figar, विक्रम के बचपन के दोस्त के रूप में साहिल देव, शिव पंडित, निकेतन धीर और रेजीमेंट के एक सदस्य के रूप में राज अर्जुन की उपस्थिति फिल्म के कुछ हिस्से में दिखाई देती है.
कहानी बताने का एक साधारण तरीका और शेरशाह को लेकर ईमानदारी ने हमारी दिल को छू लिया. इसमें कुछ और चीजें बेहतर हो सकती थीं, लेकिन इसके बाद भी ये फिल्म देखने लायक है.
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