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तांडव पर FIR: इलाहाबाद HC के फैसले का इंडस्ट्री के लिए क्या मतलब?

अब सेंसर बोर्ड की जरूरत क्या जब बॉलीवुड खुद से ही ‘सेंसर’ करने को तैयार हो गया है  

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इलाहाबाद हाई कोर्ट की सिंगल जज बेंच ने हाल ही में अमेजन प्राइम वीडियो की भारत की हेड ऑफ डेवलपमेंट अपर्णा पुरोहित की अग्रिम जमानत याचिका खारिज कर दी. पुरोहित पर अमेजन वीडियो प्लेटफॉर्म के शो तांडव को हरी झंडी देकर धार्मिक विद्वेष भड़काने का आरोप है जो जनवरी की शुरुआत में रिलीज किया गया था.

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20 पन्नों के एक सख्त आदेश में जस्टिस सिद्धार्थ ने कहा कि “एक फिल्म की स्ट्रीमिंग की अनुमति के लिए, जो इस देश के बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकारों के खिलाफ है, उसके जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को अग्रिम जमानत देकर सुरक्षित नहीं किया जा सकता.”

दुनिया की सबसे ज्यादा मुनाफा कमाने वाली कंपनियों में एक अमेजन की ओर से नियुक्त भारत की टॉप क्रिएटिव अधिकारियों में एक अपर्णा की जमानत याचिका को खारिज करना भारत के आर्टिस्टिक कम्युनिटी को एक डरावना संदेश देता है जिसमें से अधिकांश पहले ही विभाजनकारी, घृणा की राजनीति के सामने झुक चुके हैं.

स्टूडियो और स्ट्रीमिंग फर्म्स के गलियारों के अंदर डर का माहौल है जिसके कारण कई शो जिनका प्रोडक्शन शुरू हो चुका था वो फिर से लिखे जा रहे हैं जबकि जो तैयार हैं उन्हें अनिश्चित समय के लिए टाल दिया गया है.

अपनी टिप्पणियों में जस्टिस सिद्धार्थ ने कहा कि “पश्चिमी देशों के निर्माताओं ने ईशा मसीह या पैगंबर का मजाक उड़ाने से परहेज किया है लेकिन हिंदू निर्माताओं ने ऐसा बार-बार किया है और अब भी हिंदू देवी और देवताओं के साथ बेरोकटोक ऐसा किया जा रहा है.”

ये गलत है क्योंकि हॉलीवुड में ऐसे दर्जनों उदाहरण हैं जहां कैथोलिक चर्च के साथ-साथ कट्टर इस्लामी रवायतों को निशाना बनाया गया है या उन पर सवाल उठाए गए हैं चाहे ये व्यंग्य के माध्यम से हो या आलोचना के जरिए.

द फैमिली गाय टू साउथ पार्क से लेकर हाल के एमी अवॉर्ड के लिए नॉमिनेटेड सीरीज रैमी जो सदियों से चली आ रही नैतिकता की खामियों के साथ धर्म की खामियों के टकराव को दिखाती है, पश्चिमी उदारवादी लोकतंत्रों में रूढ़िवाद की आलोचना का लंबा और समृद्ध इतिहास रहा है.

आइए देखते हैं कि कैसे इस्लामी देशों में बनी फिल्मों ने धर्म के पुरातनपंथी पहलुओं पर सवाल उठाए हैं. ईरान के फिल्म निर्माता जफर पनाही की 'दिस इज नॉट ए फिल्म', 'द वाइट बैलून' या 'द सर्किल' में साफ तौर पर ईरान के रूढ़ियों की आलोचना की गई है.. असगर फरहादी और अब्बास कियारोस्तमी जैसे फिल्म निर्माता भी हैं जो ईरान की दमनकारी शासन के दौरान उभर कर सामने आए.

सऊदी अरब में हाल ही में बनी फिल्म 'बाराकाह मीट्स बाराकाह' को भी नहीं भूलना चाहिए जिसमें प्यार की तलाश करने की कोशिश में लगे एक युवा जोड़े पर एक निरंकुश सरकार के प्रभाव को दिखाया गया है.

इस बीच तांडव एफआईआर को लेकर अपनी टिप्पणी में जज ने आगे कहा “तथ्य ये है कि आवेदक सतर्क नहीं थी और उसने गैर जिम्मेदारी से काम किया जिसने उसके खिलाफ आपराधिक मुकदमे का रास्ता खोल दिया.”javascript:void(0)

ये सच है कि फिल्म इंडस्ट्री के सेंसरशिप के साथ संबंध ठीक नहीं रहे हैं और हर सरकार ने अपनी ताकत का दुरुपयोग आजाद अभिव्यक्ति को दबाने के लिए किया है, लेकिन ये भी सच है कि पारंपरिक तौर पर भारतीय कलाकार अपने अधिकारों के लिए खड़े हुए हैं और अदालतों ने उनके हितों की सुरक्षा की है. लेकिन नम्रतापूर्वक कहें तो जब उनके किसी अपने पर गिरफ्तारी का खतरा मंडरा रहा हो तो फिल्म इंडस्ट्री की बड़ी चुप्पी शर्मनाक है.

चाहे दीपा मेहता की 'फायर' हो जिसमें समलैंगिक रोमांस दिखाया गया है, अभिषेक चौबे की 'उड़ता पंजाब' हो जिसने पंजाब में ड्रग्स की समस्या को बढ़ावा देने में नौकरशाहों की मिलीभगत को उजागर किया गया है या डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी की 'मोहल्ला अस्सी' जो तीर्थ नगरी वाराणसी के व्यावसायीकरण पर एक तीखी आलोचनात्मक फिल्म थी, भारत सरकार ने हमेशा संस्कृति के नाम पर ऐसे विचारों का दबाने का काम किया है जो यथास्थिति को चुनौती देती है और लोकप्रिय नैतिकता के मुकाबले एक विपरीत विचार सामने लाने की कोशिश करती है.

सांस्कृतिक आतंकवाद का ये रूप अब भारत की ‘अंतरराष्ट्रीय छवि’ को बचाने के लिए चल रहा है, जिसे कथित तौर पर खतरा है स्टूडियो एक्जीक्यूटिव्स से.

ऐतिहासिक रूप से भी देश की अदालतों ने क्रिएटिव आजादी को बरकरार रखा है और फिल्मों की रिलीज को सुरक्षित किया है जिसमें पीके, पद्मावत, गोलियों की रासलीला राम लीला और ओह माइ गॉड (जिनमें सिर्फ दो धर्म को लेकर व्यंग्य थीं) भी शामिल हैं जिनका जिक्र जस्टिस सिद्धार्थ की टिप्पणियों में किया गया है.

जब बहुसंख्यक ताकतें स्वयंभू संरक्षकों की तरह व्यवहार कर संस्कृति को एक ही तरह का बनाना चाहती हैं तो ये कला, साहित्य, कॉमेडी, संगीत और सिनेमा की संस्थाओं के ऊपर है कि वो सक्रिय होकर इसका विरोध करें क्योंकि ये उनकी आजीविका के लिए खतरा है. लेकिन स्वतंत्र अभिव्यक्ति के लोकतांत्रिक स्थान पर हार मानना, जो कि सीधे आपके काम पर असर डालता हो, बिना सामूहिक लड़ाई के, न सिर्फ दिल तो तोड़ने वाला है बल्कि अपने उत्पीड़क का पक्ष लेने जितना बुरा है.

हालांकि, इसका एक और पक्ष भी है. कुछ साल पहले ही, जहां तक बॉलीवुड की बात है, फिल्म की रिलीज में सबसे बड़ी बाधा एक अधेड़ उम्र के पहलाज निहलानी नाम के व्यक्ति थे जो उस समय के सीबीएफसी के प्रमुख थे. फिल्म निर्माता मनमाने कट और फिर रिवाइजिंग कमेटी में अपील करने की लंबी, कठिन प्रक्रिया से चिंतित रहते और इसके बाद ये कि एफसीएटी दिल्ली से काम करती थी. कम से कम फिल्म निर्माताओं को इन संस्थाओं में भरोसा था जो एक नाकाबिल व्यक्ति के मनमाने आदेश से इनका बचाव करते थे.

अब जो हो रहा है वो ये है कि सबसे कमजोर लोगों के हितों की रक्षा के लिए बनाए गए लोकतांत्रिक संस्थानों पर से लोगों का भरोसा कम होता जा रहा है.

बॉलीवुड में पहले जो सेंसर बोर्ड के खिलाफ खड़ा होने और मजबूती के साथ लड़ाई लड़ने की बात होती थी लेकिन अब खुद से ही वैसे विषय से बचने की होने लगी है जो बीजेपी द्वारा संचालित संगठित हेट फैक्टरी को किसी तरह का मौका न दे. आपको स्ट्रीमिंग कंटेंट पर नियंत्रण के लिए सेंसर बोर्ड की जरूरत नहीं पड़ेगी क्योंकि बॉलीवुड खुद से ही ऐसा करने के रास्ते पर है.

बॉलीवुड के अंदर अनौपचारिक बातचीत से संकेत मिलते हैं कि निर्माता धार्मिक या राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले विषय पर काम करने से हिचकते हैं जबकि जो ऐक्टर राजनीतिक तौर पर मुखर हैं उन्हें काम मिलना काफी मुश्किल होता जा रहा है. कुछ निर्देशक जो पहले खुलकर अपनी राय रखते थे वो अब असामान्य रूप से चुप हैं क्योंकि अभी उनकी फिल्मों का प्रोडक्शन चल रहा है जबकि कुछ की फिल्में स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म पर रिलीज का इंतजार कर रही हैं.

एक लोकतंत्र कितना मजबूत है इसका पैमाना ये है कि इसके सबसे बड़े आलोचक कितने सुरक्षित और आजाद हैं. हालांकि, जैसा कि अपर्णा पुरोहित का मामला हमें बताता है कि अपने हितों की रक्षा के लिए, देश की संस्थाओं से उम्मीद रखने से लेकर खुद को उन्हीं संस्थाओं से बचाने तक, हम कम समय में काफी आगे दूर तक आ गए हैं जहां स्वतंत्र विचारों को नियंत्रित किया जाता है, निर्माताओं को आपराधिक मामलों का सामना करना पड़ता है और नफरत भरे भाषण को प्रोत्साहित किया जाता है. कई लोगों का सोचना है कि असली मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए सरकार फिल्म और फिल्म निर्माताओं को निशाना बनाती है जबकि ये पूरी तरह से सच नहीं है. नियंत्रण की संस्कृति और फिल्म उद्योग को पूरी तरह से अपने अधीन ले आना बीजेपी की वैचारिक परियोजना के मूल में है. और हमने सिनेमा के बहाने कितने सरकारी प्रचार देखे हैं, उसे देखते हुए ये खतरनाक तरीके से अपने लक्ष्य के करीब आती जा रही है.

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