1232 किलोमीटर. ये कहानी लॉकडाउन में लड़खड़ाते कुछ मजबूर मजदूरों की कहानी नहीं है. इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म को बेस्ट म्यूजिक डायरेक्टर का अवॉर्ड मिला है. हॉटस्टार पर रिलीज डॉक्यूमेंट्री 1232 किलोमीटर जिंदादिली और जुझारू हिंदुस्तान की गलियों और गांव-मुहल्लों की कहानी है. उस पुलिस वाले की कहानी है जो पीटता नहीं, पूछता है कि कोई परेशानी तो नहीं? उस ट्रक वाले की कहानी है जो न जाने कितनी बार पुलिस से परेशान हो चुका है लेकिन मजदूरों का दर्द देख पुलिस की परवाह नहीं करता.
ये उस मजदूर की कहानी है जो बेहोश हो रहा है, फिर भी चला जा रहा है, लड़ा जा रहा है, लॉकडाउन से पहले, लॉकडाउन के समय और बाद में भी. टीवी के कंजूस परदों ने लॉकडाउन के बारे में जो नहीं दिखाया, उसकी कहानी है ये डॉक्यूमेंट्री, जितना दिखाया, उससे आगे की कहानी है.
चैनलों ने अपनी औकात के अनुरूप अपने शहरी हदों तक जाकर मजदूरों का दर्द देखा. इससे आगे जाने का न उनका जज्बा था, न जुर्रत. विनोद कापड़ी सात मजदूरों के साथ उनके घर तक गए. गाजियाबाद से सहरसा 1232 किलोमीटर. तो ये लॉकडाउन की पूरी कहानी है. लग सकता है कि ये हिस्सा तो हम देख चुके हैं, ये वाला टुकड़ा तो हम सुन चुके हैं.
टुकड़ों में आपने सुनी होगी. कतरन देखी होगी, लेकिन खबरें फटाफट के जमाने में ये टुकड़े कहीं गुम न हो जाएं, पूरी पिक्चर धुंधली न हो जाए, इस बात को पक्का करती है ये डॉक्यूमेंट्री. सरकार ने संसद में कह ही दिया है कि कितने मजदूरों ने जान गंवाई, इसका रिकॉर्ड नहीं. तो ये डॉक्यूमेंट्री एक दस्तावेज है आने वाले जमानों के लिए कि कभी इस देश की सरकार ने अपने बेबस मजदूरों के साथ ऐसा सलूक भी किया था.
कहानी लॉकडाउन की है लेकिन उसके परे चली जाती है जब बताती है कि मरते-खपते मजदूर जब अपने राज्य पहुंचते हैं तो 24 घंटे भूखा रहना पड़ता है. ठहरने के लिए कचरे के घूरे जैसा घर दिया जाता है. जैसे ये लम्हा चीखकर याद दिला रहा है कि यहां तुम्हारा घर होता तो बेघर क्यों होते? बेरहम शहर क्यों पहुंचते?
ये इस देश के करोड़ों इंसानों की कहानी है जिन्हें इंसान का दर्जा सिर्फ कागज पर मिला है. 24 घंटे का भूखा, आठ दिन का थका, और फिर उसका टेम्परेचर लिया जा रहा है. शारीरिक क्या, किसी का मानसिक पार भी चढ़ेगा. पारा चढ़ेगा और फिर कोरोना न रहते हुए भी लॉक कर दिए जाएंगे. इन सबसे बचकर जिस घर को पहुंचे वो चंद महीने भी नहीं रख पाया. मजदूर फिर उन्हीं सौतेले शहरों में जाकर सोने को मजबूर हो गए.
कापड़ी समझते हैं कि इस त्रासदी के चंद महीने बाद ही बिहार चुनाव में मजदूरों की मुसीबत कोई मुद्दा नहीं थी, लेकिन मजदूरों की ये परेशानी मुद्दा न होती तो नीतीश की किस्मत यूं न रूठती.
मजदूर अपने तरीके से जवाब देना जानता है. लड़ना जानता है बाहर और अंदर की मुसीबतों से, कहता है- एक नजर परिवार को देख लिया ना सर, रास्ते की सारी मुसीबतें भूल गया! विद्रोह की हद तक धकेल दिए गए लोगों के एंगर मैनेजमेंट से कुछ सीखना हो तो सीख सकते हैं.
चमकदार कंटेंट की भीड़ में शिल्प और तकनीक की कुछ कमियां आपको दिख सकती हैं. लेकिन हाहाकार में कलाकार मत ढूंढिए. फिर भी सामान्य फुटेज से असामान्य कही है कापड़ी ने. गुलजार के गीतों ने इंसानों द्वारा इंसानों के खिलाफ खड़ी की गई इस आपदा की कहानी को अलग आयाम दे दिया है. विशाल भारद्वाज का संगीत अंदर तक छूता है. रेखा भारद्वाज देसी टच लाती हैं. सुखविंदर की आवाज झकझोरती है.
ये डॉक्यूमेंट्री पर्सनल और प्रोफेशनल जोखिम लेकर उठाई गई एक आवाज है, तभी गुलजार और विशाल भारद्वाज जैसे दिग्गजों को भी सुनाई पड़ी, आप भी सुनने की कोशिश कीजिए.
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