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‘पाताल लोक’ परत दर परत : कितनी रियलिटी, कितना फिक्शन? 

अमेजन प्राइम पर हाल ही में रिलीज हुई है वेब सीरीज ‘पाताल लोक’

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दिल्ली पुलिस की महिला अफसर नॉर्थ ईस्ट इंडियन मूल की महिला को थप्पड़ जड़ देती है और उसे ‘झूठी नेपाली वेश्या’ कहती है.

स्कूटर पर सवार एक आदमी दिल्ली में मणिपुरी लड़की पर पान थूकता है और उसे कोरोना कहता है.

पंजाब में एक दर्जन बंदूकधारी सवर्ण ग्रामीण मंजार (निम्न जाति) के घर घुसते हैं और अपने एक युवा नेता का सिर काट लेते हैं. उस परिवार के लड़के ने जो अपराध किए हैं उसका बदला लेने के लिए वो यहां आए हैं. उसका अपराध था सवर्ण गुंडों के सामने खड़ा होना. जब लड़के के बूढ़े दादा लड़के को माफ कर देने की बात करते हैं तो जवाब मिलता है कि गांव में रहने की इजाजत दी गयी है यही काफी है. फिर वो लोग पलटकर लड़के की मां के साथ बलात्कार करते हैं.

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पंजाब के एक गांव में सवर्ण जाटों ने एक दलित खेतिहर मजदूर के दोनों हाथ और एक पैर काट डाले. उसका अपराध? अपनी नाबालिग बच्ची के सामूहिक बलात्कार के लिए न्याय मांगना.

छोटे शहर में ढलती उम्र का एक मुसलमान जांच कर रहे दो सिपाहियों को बताता है कि उसने अपने बेटे के लिए खतना का मेडिकल सर्टिफिकेट क्यों बनवाया. आप भूल नहीं सकते उन आंखों में वो जीत का भाव, जिसमें वह व्यंग्यात्मक तरीके से कहता है, “जिसे मैंने मुसलमान तक नहीं बनने दिया, आप लोगों ने उसे जिहादी बना दिया.

दो नौजवान मुस्लिम भाई दिल्ली-मथुरा ट्रेन में सवार होते हैं. बैठने को लेकर शुरू हुई बहस भयंकर रूप ले लेती है और दूसरे यात्री उन पर व्यंग्य करने लग जाते हैं कि वो बीफ खाने वाले लोग हैं. 15 साल के लड़के की लाश को ट्रेन से फेंक दिया जाता है. उस पर चाकू से कई हमले किए गए.

फर्क देखें, क्या है रियलिटी, क्या है फिक्शन?

वास्तव में इन सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता. क्या पड़ता है फर्क? इन सारी घटनाओं में एक बात समान है कि नतीजा कुछ भी नहीं निकलता. किसी की भवें तक नहीं तनतीं. भारत के जीवन में यह महज एक और दिन होता है.

अमेजन प्राइम के नए फिक्शन सीरीज ‘पाताल लोक’ के तीन एपीसोड में ऊपर की घटनाएं बयां हुई हैं. शो की शुरुआत मुख्य नायक इंस्पेक्टर हाथी राम चौधरी (जयदीप अहलावत) से होती है जो हिंदू धर्मग्रंथों (WhatsApp एडिशन) के आधार पर तीनों लोकों के बारे में अपने मुस्लिम मातहत अंसारी (इश्वक सिंह) को बताता है. एक होता है स्वर्ग, जिसकी तुलना वह दिल्ली के सेंट्रल डिस्ट्रिक्ट से करता है जहां अमीर और ताकतवर लोग रहते हैं. यहीं धरती है जहां हम जैसे नश्वर लोग रहते हैं और फिर यहां है पाताल (नरक) जहां कीड़े-मकौड़े रहते हैं.

यहां कीड़े-मकौड़े से मतलब उन लोगों से है जो समाज का वंचित तबका है और जो मुख्य धारा में देखा नहीं जाता.
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फिर उस दुनिया के अंदर भी कई परतें हैं और शो निर्माता सुदीप शर्मा ने इन बारीकियों को बहुत सटीक तरीके से पकड़ा है. अपने सभी प्री-रिलीज इंटरव्यू में शर्मा ने इन तीनों दुनिया के बारे में गहराई से बताया है और उनके दरम्यान आंतरिक परतों का सीमांकन किया है. शो के लेखन में हर जगह वह प्रतीकात्मकता समायी हुई है और यह उन लोगों लिए कभी गायब नहीं होती जो इसकी परवाह करते हैं. हालांकि उस शुरुआती दृश्य में अनकही रह गई सच्चाई यह है कि हाथी राम और अंसारी एक ही दुनिया के रहने वाले हो सकते हैं, लेकिन वो एक जैसे नहीं हैं.

आखिर अंसारी मुसलमान जो है.
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एक सिपाही के तौर पर अंसारी खुद को एक ऐसी दुनिया में फेंक दिया गया पाता है, जहां बहुसंख्यकवाद की राजनीति हावी है. एक शुरुआती पूछताछ में हाथी राम खास तौर पर एक मुस्लिम कैदी के साथ हिंसक हो जाता है और धड़ल्ले से एक की-वर्ड फैलाता है जिसका इस्तेमाल भारत में मुसलमानों के खिलाफ एक सांप्रदायिक कलंक के रूप में आम तौर पर होता है. देखने में ऐसा लगता है कि अंसारी इस पर ध्यान नहीं देता लेकिन जब हाथी राम बाद में उससे माफी मांगता है, तो अंसारी कहता है कि ठीक है, मगर यह चलता है.

मुख्यधारा के करियर में सफलता मिल सके, इसके लिए अल्पसंख्यक पहचान को नजरअंदाज करना भारत में इन दिनों बहुत सामान्य-सी कहानी है.

यह शो इस ओर ध्यान दिलाता है ताकि कोई इस पर ध्यान दे और खड़ा हो. बस उसी बात पर जोर देने के लिए आप दूसरों को पुलिस स्टेशन में पूजा करते और प्रसाद बांटते देखते हैं मानो यह दुनिया में सबसे स्वाभाविक काम हो. अपनी बांह पर अपने धर्म की पहचान पहनना निश्चित रूप से कुछ लोगों का विशेषाधिकार है.

हालांकि जो लोग कानून के दूसरी ओर हैं, वो धर्म ‘गलत’ के कारण जरूरत से इतना ज्यादा ओढ़ लेते हैं कि पहचान ही मिटने लग जाती है. थोड़े समय के लिए कार की चोरी करने वाला कबीर एम एक जिहादी के तौर पर ब्रांडेड हो जाता है, जब वह खुद को किसी बड़े राजनीतिक खेल का हिस्सा बना पाता है और मीडिया उसे तुरंत अपनी गोद में बिठा लेती है, क्योंकि उससे सुविधानजक मतलब निकालना आसान होता है.

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पंजाब के छोटे शहर से तोपे सिंह की मूल कहानी के जरिए ‘पाताल लोक’ जातिगत राजनीति को समझती-समझाती है. वह सवर्ण गुंडों के मुकाबले खड़ा होता है ताकि उस परिस्थिति से निकल सके जिससे वह निकलना चाहता है. मगर नतीजा पूरे परिवार को भुगतना पड़ा. आज के भारत में अनुमानित तौर पर हर दिन चार दलित महिलाओं के साथ बलात्कार होता है (ह्यूमन राइट्स वाच की रिपोर्ट के मुताबिक).

ग्रामीण भारत में सवर्ण जमींदारों की ओर से दमन का सबसे बड़ा हथियार बलात्कार रह गया है. इसी के जरिए वो अपने साथ सस्ते श्रम को जोड़े हुए हैं.

भेदभाव के चेहरे कई और हैं और हम भारतीयों को यह सब अच्छा लगता है. बीते दो महीनों से देश के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले उत्तर पूर्व के लोगों के विरुद्ध ऐसी कई रिपोर्ट सामने आई हैं. इन इलाकों में किसी से भी आप पूछ लें जिन्हें चिंकी जैसे अपशब्द सुनने पड़े हों- ओह, इसमें नया कुछ भी नहीं है. मुख्य भूमि के भारतीयों को कोविड-19 के रूप में नए ब्रांड का बहाना मिल गया है.

‘पाताल लोक’ ऐसे घिसे पिटी सोच पर चीनी के चरित्र के माध्यम से हमला करता है (यहां तक कि उसका नाम भी नस्लीय टिप्पणी है) और फिर उस पर ट्रांसफोबिया की परत चढ़ा देता है. चीनी सिर्फ इसलिए अलग नहीं है कि देखने में उसका रुंगरूप अलग है, बल्कि हिरासत में रहने के दौरान उसे पता चला है कि उसे ट्रांसजेंडर समझा जाता है. उसके बाद पूर्वाग्रह का नया दौर शुरू हो जाता है. हमारी न्याय व्यवस्था जो सुरक्षा उस व्यक्ति को देती है जो ‘रेगुलर’ नहीं है, उसकी पोल खोल देता है वह दृश्य, जिसमें एक चीनी को वहां स्नान करना होता है जहां उसके ठीक बगल वाला व्यक्ति हस्तमैथुन कर रहा होता है.

कोई भी जो अमीर नहीं है और/या फिर सवर्ण हिन्दू नहीं है, वह अन्य है और इसलिए वही नियम समाज के दो बड़े हिस्सों में लागू नहीं होता. यह असहज सच्चाई अपने दैनिक जीवन में आगे बढ़ते समय हम अपने दिमाग में नहीं रखना चाहते.

हर बार एकबारगी कुछ ऐसा होता है जो हमें पाताल लोक से बढ़ती दूरी की याद दिलाता है और इस वक्त पाताल लोक ही वैसा ‘कुछ’ है. हम जिस समय में रह रहे हैं उसके आईने को इस सीरीज ने बदल दिया है और किसी फिल्टर के अभाव ने देश के एक हिस्से को पूरी तरह से हिला दिया है. हम सामूहिक रूप से अपनी एक आंख बंद कर लें, तो ऐसा कभी नहीं हुआ. ये वो लोग हैं जो देश की प्रतिष्ठा बचाना चाहते हैं, वो लोग जो अपना सीना ठोंकने वाले देशभक्त हैं और जिन्होंने शुतुर्मुर्ग का जीवन अपना लिया है.

उन्होंने प्रोपेगेंडा का शोर मचाया. हिन्दू फोबिया की डींगें हांकीं. दुर्भावनापूर्ण तरीके से और एजेंडे में लिपटकर हमारे देश का प्रतिनिधित्व करने का हल्ला मचाया. इस बात पर भी आवाजें उठती रही हैं कि ‘दूसरा भारत’ क्या है और इसे स्क्रीन पर कैसे दिखाया जाए. लेकिन लॉकडाउन में रहते हुए अपने फ्लैट एअरस्क्रीन टेलीविजन सेट पर प्रीमियम पेड कंटेंट देखते हुए एअर कंडीशन्ड कमरे से फैसला देना आसान है. शायद हमारे आसपास की आवाजें उन दबे-कुचले लोगों की आवाज को साथ बहा ले जाती हैं जब वो अपने घरों को लौटते हैं भूखे और नंगे पैर.

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