द क्विंट ने इस सात भागों वाली डॉक्युमेंट्री सीरीज में उन घटनाओं की पड़ताल की है जो अंतत: 23 साल पहले विवादित ढांचे को गिराये जाने का कारण बने.
मीनाक्षीपुरम धर्मांतरण
19 फरवरी 1981 को तमिलनाडु के तिरुनेलवल्ली जिले के मीनाक्षीपुरम गांव के 200 दलित परिवर ने इस्लाम में धर्म परिवर्तन करा लिया. ये एक सामूहिक फैसला था और एक एस/एसटी वेलफेयर रिपोर्ट के मुताबिक ये सालों से थेवर समुदाय द्वारा दमन का नतीजा था.
गांव में पहले दो मुस्लिम परिवार थे और इस धर्म परिवर्तन के बाद गांव का नाम बदलकर रहमत नगर रख दिया गया.
धर्म परिवर्तन के लिए तकरीबन 40,000 रुपए जमा किए गए थे, जिसे हिंदूवादी संगठनों ने मुद्दा बना लिया. आर्य समाज और विश्व हिंदू परिषद जैसे धार्मिक और सांस्कृतिक संगठनों ने रहमत नगर का रुख किया, जबिक ज्यादा उत्पाती संगठन जैसे कि हिंदू मुन्नानी वजूद में आ गए.
बीजेपी ने संसद में धर्म परिवर्तन का मुद्दा उठाया और इसके खर्च की जांच सीबीआई से कराने की मांग की. रहमत नगर में संघ परिवार और बीजेपी नेताओं का आना जाना शुरू हो गया जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी भी थे.
धर्म के संरक्षकों को उकसाया गया
7-8 अप्रैल 1984, को वीएचपी के अशोक सिंघल ने दिल्ली के विज्ञान भवन में धर्म संसद का आह्वान किया. देशभर से करीब 500 साधुओं ने इस धर्म संसद में हिस्सा लिया और इस बात पर मुहर लगाई गई कि मीनाक्षीपुरम में बड़े पैमाने पर हुए धर्म परिवर्तन इस ओर इशारा कर रहे हैं कि जिसतरह से हिंदू धर्म का संचालन हो रहा है वो लोगों को स्वीकार नहीं है.
और इसी धर्म संसद में पहली बार हिंदू धर्म के संरक्षण और प्रचार प्रसार के लिए एक राम मंदिर के निर्माण का लक्ष्य निर्धारित किया गया.
सितंबर 1984 में वीएचपी ने धर्म संसद की प्रथा जारी रखते हुए बाइक रैली की और सरयू किनारे धर्म संसद का आयोजन किया. वीएचपी कार्यकर्ताओं ने प्रण लिया कि वो देशभर से हिंदुओं को इकट्ठा कर राम मंदिर बनाएंगे.
कार सेवकों को 31 अक्टूबर 1984 को मंदिर निर्माण की नींव रखनी थी लेकिन इंदिरा गांधी की हत्या ने इस प्लान पर पानी फेर दिया.
दिसंबर 1984 में राजीव गांधी ऐतिहासिक जीत दर्ज कर देश के प्रधानमंत्री बने, संसद में उनकी सरकार पूर्ण बहुमत में थी. कांग्रेस ने लोकसभा की 533 सीटों में से 404 सीटों पर जीत दर्ज की और इत्तेफाक से पहली बार इस चुनाव में बीजेपी ने भी खाता खोला. लोकसभा के दो सीटों पर बीजेपी ने कब्जा किया.
यदि मीनाक्षीपुरम में हुए धर्मांतरण ने अयोध्या आंदोलन का राजनीतिकरण किया, तो शाह बानो पर आए फैसले को लेकर राजीव गांधी की सरकार द्वारा उठाए गए सोचे-समझे कदम ने आग में घी डालने का काम किया.
शाह बानो केस
1984 के मध्य में ही जब राजीव गांधी अपनी राजनीतिक जमीन तलाश रहे थे लेकिन इस कोशिश में वो एक सांप्रदायिक दलदल में भी फंसते जा रहे थे.
23 अप्रैल 1985 को एक 62 साल की मुस्लिम महिला शाह बानो को तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने का आदेश सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया. पहले प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस ऐतिहासिक फैसले का स्वागत किया, लेकिन अचानक मई 1986 में राजीव गांधी को मुसलमान समुदायों के दबाव में झुकना पड़ा.
मुसलमान चाहते थे कि उनके मजहब से छेड़छाड़ न की जाए और कांग्रेस सरकार ने मुसलमानों का ख्याल रखते हुए मुस्लिम महिला एक्ट 1986 पास कर दिया जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निष्क्रिय करने के लिए था.
जैसी कि उम्मीद थी, बीजेपी और अन्य हिंदू संगठनों ने राजीव की इस ‘तुष्टिकरण की राजनीति’ की कड़ी आलोचना की.
अयोध्या आंदोलन का राजनीतिकरण
संसद में पूर्ण बहुमत की वजह से कांग्रेस दोनों सदन को संतुलित कर चल रही थी और उधर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने देशभर में मस्जिद के पक्ष में मुहिम छेड़ रखी थी, ऐसे में बीजेपी पर जबरदस्त दबाव था.
1989 के पालमपुर सम्मेलन में पार्टी ने पलटवार किया:
बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी राम जन्मभूमि के मुद्दे पर चल रही मौजूदा बहस को इस रूप में लेती है कि इसके जरिए कांग्रेस पार्टी ने विशेष रूप से और अन्य राजनीतिक पार्टियों ने सामान्य तौर पर इस देश के बहुसंख्यक समाज, हिंदुओं, की भावनाओं के साथ खेला है और उनके साथ विश्वासघात किया है.
बीजेपी का ये कदम अयोध्या आंदोलन पर चल रही राजनीति में अहम कड़ी साबित हुआ.
पालमपुर में लिए संकल्प को बीजेपी ने पूरी ताकत से आगे बढ़ाया. इसे एक धार्मिक मुहिम बनाकर राजनीतिक रंग दिया गया और आखिरकार 1989 के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी भी अयोध्या में शिलान्यास के पक्ष में हो गई.
राजीव गांधी की कुछ राजनीतिक गलतियां की वजह से बीजेपी ने अयोध्या आंदोलन को पूरी तरह से हाईजैक कर लिया, और फिर रथ-यात्रा की शुरुआत हुई. बीजेपी की संसद में ताकत 85 सीटों से बढ़कर 120 पहुंच चुकी थी.
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