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अतीत के आईने में आरक्षण, जानिए कैसे कमजोर है ‘आर्थिक’ आधार 

आसान नहीं है सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण लागू करने की राह, जानिए क्या हैं बाधाएं

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कुंजी
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केन्द्र सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण लागू करने की पहल की है. अब इसके लिए संविधान में संशोधन की पहल होगी. दोनों सदनों में आवश्यक दो तिहाई बहुमत के साथ इसे पारित करना होगा. यह टेढ़ी खीर है. फिर भी, अगर यह लागू हो जाता है तो यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में होगा और वहां भी इसे हरी झंडी मिल पाना मुश्किल लगता है.

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सुप्रीम कोर्ट खारिज कर चुका है आरक्षण का आर्थिक आधार

संविधान में आर्थिक आधार पर आरक्षण का जिक्र नहीं है। नरसिम्हा राव सरकार ने 25 सितंबर 1991 को सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण लागू किया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार केस में इसे खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था.

  • आरक्षण का आधार आय व संपत्ति नहीं हो सकता
  • आरक्षण समूह को है, व्यक्ति को नहीं
  • आर्थिक आधार पर आरक्षण समानता के मूल अधिकार का उल्लंघन है
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आर्थिक आधार पर आरक्षण की कई कोशिशें रही हैं नाकाम

अप्रैल 2016 में गुजरात सरकार ने 6 लाख से कम वार्षिक आय वालों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की थी, लेकिन हाईकोर्ट ने अगस्त 2016 में इसे गलत ठहराया.

2015 में राजस्थान की सरकार ने सवर्ण वर्ग के गरीबों के लिए 14 प्रतिशत और पिछड़ों में अति निर्धन के लिए 5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था की थी. राजस्थान हाईकोर्ट ने इस आरक्षण बिल को भी रद्द कर दिया.

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जाटों को आरक्षण देने की कोशिशें भी हो चुकी हैं फेल

यूपीए टू सरकार ने 9 राज्यों में जाटों को ओबीसी में शामिल कर उन्हें आरक्षण देने की व्यवस्था की थी, जिसे 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने गलत ठहराया. सुप्रीम कोर्ट ने जाट को ओबीसी मानने से इनकार कर दिया.

सुप्रीम कोर्ट 1993 में ही कह चुका था कि जाति अपने आप में कोई आधार नहीं बन सकती. यह बताना पड़ेगा कि पूरी जाति ही शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी है.

दरअसल, आरक्षण में किसी नये वर्ग को शामिल करने का तरीका ये है कि राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन करता है. वह अलग-अलग वर्ग की सामाजिक स्थिति का ब्योरा तैयार करता है और इसी आधार पर ओबीसी कमीशन अपनी सिफारिश देता है. अगर मामला पूरे देश का है तो राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग अपनी सिफारिशें देता है. मगर जाटों को आरक्षण के मामले में ऐसे किसी आयोग की राय नहीं ली गयी. न ये साबित किया जा सका कि जाट सामाजिक या शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं.

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आरक्षण पर संवैधानिक स्थिति

आजादी के बाद एससी-एसटी के लिए 10 सालों के लिए प्रतिनिधित्व तय किया गया. मगर, इसने परम्परा का रूप ले लिया है. संविधान में ‘आरक्षण’ शब्द नहीं है. इसके बजाय ‘प्रतिनिधित्व’ शब्द का इस्तेमाल किया गया है.

संविधान के अनुच्छेद 15(4) में कहा गया है कि अगर राज्य को लगता है तो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए वह विशेष प्रावधान कर सकता है.

अनुच्छेद 16 (4) के अनुसार अगर राज्य को लगता है कि सरकारी सेवाओं में पिछड़े वर्गों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह उनके लिए पदों को आरक्षित कर सकता है.

अनुच्छेद 330 के तहत संसद में और अनुच्छेद 332 के तहत राज्य विधानसभाओं में एससी और एसटी के लिए सीटें आरक्षित की गयी हैं.

मगर, अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान तभी लागू किया जा सकता है जब

  • यह सिद्ध किया जा सके कि यह वर्ग औरों के मुकाबले सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े है.
  • अतीत में अन्याय हुआ है, जिसकी क्षतिपूर्ति के तौर पर आरक्षण जरूरी है.
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कालेलकर आयोग

संविधान सभा ने एससी-एसटी के लिए प्रतिनिधित्व की व्यवस्था तो की, लेकिन पिछड़े वर्ग के लिए नहीं. 29 जनवरी 1953 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया. इसके अध्यक्ष काका कालेलकर थे. 30 मार्च 1955 में उन्होंने अपनी रिपोर्ट सौंपी.

कालेलकर आयोग ने देश में 2399 पिछड़ी जातियां पायीं. 837 जातियों की पहचान अति पिछड़ा के रूप में हुई. रिपोर्ट में कहा गया था कि केंद्रीय सेवाओं में महज 22 जातियां ही सर्वाधिक लाभ ले रही हैं.

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मंडल आयोग

20 दिसम्बर 1978 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने बीपी मंडल आयोग का गठन किया, जिसने 12 दिसम्बर 1980 को अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया. तब तक देसाई सरकार गिर चुकी थी.

मंडल आयोग ने पाया कि देश में 3,743 जातियां हैं. पिछड़ी जातियों के लोगों की संख्या देश की जनसंख्या की आधी से ज्यादा है. आयोग ने सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी आरक्षण की सिफारिश की. इस सिफारिश को वीपी सिंह की सरकार ने लागू किया. इसके बाद एससी के लिए 15 फीसदी, एसटी के लिए 7.5 फीसदी और पिछड़े वर्ग केलिए 27 फीसदी यानी कुल मिलाकर 49.5 फीसदी आरक्षण देश में लागू हो गया.

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आरक्षण की अधिकतम सीमा

संवैधानिक स्थिति ये है कि 50 फीसदी से ज्यादा आरक्षण नहीं हो सकता. 1963 में बालाजी मामला और 1992 में इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट कर दिया है. मगर, इंदिरा साहनी केस में ही जस्टिस जीवन रेड्डी ने स्पष्ट किया है कि विशेष परिस्थिति में स्पष्ट कारण दिखाकर सरकार 50 फीसदी की सीमा रेखा को भी लांघ सकती है.

वर्तमान में एससी के लिए 15 फीसदी, एसटी के लिए 7.5 फीसदी और मंडल कमीशन की सिफारिशों के तहत पिछड़े वर्ग के लिए 27 फीसदी यानी कुल 49.5 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था है.

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सबसे पहले कब उठी आरक्षण की मांग

साल 1882 में हंटर आयोग बना. तभी महात्मा ज्योतिराव फुले ने वंचित तबकों के लिए मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की वकालत की. सरकारी नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व मांगा. पहली बार आरक्षण की मांग तभी सामने आयी.

साल 1891 में त्रावणकोर रियासत में सरकारी नौकरियों में आरक्षण की मांग उठी, जब सिविल नौकरियों में बाहरी लोगों का विरोध किया गया.

आरक्षण पर पहला राजकीय आदेश 1902 में कोल्हापुर रियासत में आया, जब पिछड़े या वंचित तबके के लोगों के लिए 50 फीसदी आरक्षण की घोषणा की गयी.

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स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान आरक्षण की मांग

साल 1930 में डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने गोलमेज सम्मेलन में आबादी के हिसाब से प्रतिनिधित्व का सवाल उठाया. साल 1932 में अंग्रेज कम्युनल अवार्ड लेकर आए. इसमें अल्पसंख्यकों और पिछड़े और वंचित तबके के लिए पृथक निर्वाचन का अधिकार दिया गया.

पृथक निर्वाचन में दलितों के लिए दो वोट देने का प्रावधान था. इसके तहत एक वोट सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने के लिए और दूसरा वोट केवल दलित प्रतिनिधि चुनने के लिए था. गांधीजी ने इसका विरोध किया. वे आमरण अनशन पर बैठ गये. 24 सितम्बर 1932 को अम्बेडकर-गांधी के बीच ‘पूना पैक्ट’ हुआ. अम्बेडकर ने पृथक निर्वाचन की मांग छोड़ी, तो महात्मा गांधी अछूत जातियों के लिए हर स्तर पर आरक्षण के लिए राजी हुए.

  • कम्युनल अवार्ड में 78 आरक्षित सीटें थी, जिन्हें बढ़ाकर 148 कर दिया गया
  • हर प्रांत में शिक्षा अनुदान के रूप में राशि निश्चित करायी गयी
  • सरकारी नौकरियों में बिना किसी भेदभाव के दलित वर्ग की भर्ती सुनिश्चित करना तय हुआ
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न्यायिक समीक्षा के दायरे में होगा संविधान में संशोधन

अगर नरेंद्र मोदी सरकार सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण के लिए संविधान संशोधन में कामयाब हो भी जाती है तब भी यह न्यायिक समीक्षा के दायरे में होगा. केशवानंद भारती विवाद में सुप्रीम कोर्ट की 13 जजों की संवैधानिक पीठ कह चुकी है कि संविधान की बुनियादी संरचना से छेड़छाड़ नहीं की जा सकती.

स्पष्ट है कि सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण के ताजा मामले में भी आरक्षण की 50 फीसदी की सीमा तोड़ा जाना और अनुच्छेद 16 में उल्लिखित समानता के अधिकार के उल्लंघन की समीक्षा होगी. सुप्रीम कोर्ट यह भी स्पष्ट कर चुका है कि 9वीं अनुसूची में रखकर ऐसा कोई कानून नहीं बनाया जा सकता या कानून में संशोधन नहीं किया जा सकता जो संविधान की बुनियादी संरचना से छेड़छाड़ करता हो.

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