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पूर्वोत्तर के हिंदू बहुल इलाकों में सिटिजन बिल से नाराजगी क्यों?

राजनीतिक दल और राज्य सरकारें क्यों कर रही हैं नागरिकता संशोधन विधेयक का विरोध

Updated
कुंजी
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मोदी सरकार का नागरिकता संशोधन बिल उसके गले ही हड्डी बन गया है. लोकसभा में बिल के मंजूर होते ही पूरा का पूरा पूर्वोत्तर उबल पड़ा है. असम में बीजेपी के सहयोगी एजीपी ने सरकार से हाथ खींच लिया. मेघायल और नगालैंड में बीजेपी के समर्थन से चल रही सरकारों के मुख्यमंत्री भी इस बिल को वापस लेने की मांग कर रहे हैं.

दूसरे देशों से आई हिंदू, जैन, सिख, पारसी और ईसाई आबादी को कवच देने के लिए लाए गए इस बिल का विरोध हिंदू बहुल इलाकों  में क्यों हो रहा है. इससे समझने के लिए नागरिकता संशोधन विधेयक 2016 विस्तार से जानना होगा.

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नागरिकता संशोधन विधेयक- 2016 है क्या?

नागरिकता संशोधन विधेयक-2016 का उद्देश्य उन धार्मिक अल्पसंख्यक लोगों को नागरिकता देने में सहूलियत देना है, जिन्हें भारत के पड़ोसी मुस्लिम बहुल देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक उत्पीड़न या उत्पीड़न के डर से भारत में शरण लेने को मजबूर होना पड़ा है.

हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और ईसाई अल्पसंख्यकों के लिए 1955 के नागरिकता अधिनियम के प्रावधानों में यह एक बड़ा बदलाव है. पहले के कानून में अवैध प्रवासी उसे माना जाता था, जो बिना वैध दस्तावेजों के भारत में दाखिल होता था या दस्तावेजों में दी गई तारीख को आगे नहीं बढ़ाया जाता था.

नागरिकता विधेयक में बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से आए हिंदू, जैन, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी समुदाय के लोगों को भारत में छह साल निवास करने के बाद किसी दस्तावेज बिना भी नागिरकता दिये जाने का प्रावधान है. फिलहाल, ऐसे लोगों को 12 साल भारत में निवास करने के बाद नागरिकता दिये जाने का प्रावधान है.

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विवाद की वजह क्या है?

असमिया संगठनों का कहना है कि विधेयक के परिणामस्वरूप अवैध प्रवासियों का बोझ अकेले राज्य पर ही पड़ेगा. पहले से ही यह राज्य गैरकानूनी अप्रवासन का दंश झेल रहा है. इस उदार नागरिकता कानून से यहां की सांस्कृतिक विविधता को खतरा पैदा होगा.

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केंद्र सरकार की दलील क्या है?

यह संशोधित विधेयक उन प्रवासियों के लिए है जो पूर्वी और पश्चिमी सीमाओं को लांघ कर आए थे और भारत में रह रहे हैं. यह बोझ पूरे देश द्वारा साझा किया जाएगा. कई सारे सीमावर्ती प्रदेशों में लोगों को बसाया जाएगा. केंद्र इसे लागू करने में मदद करने के लिए तैयार है.

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सरकार को ये विचार आया कहां से?

केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी ने साल 2014 के आम चुनावों के दौरान पड़ोसी देशों में सताए गए हिंदुओं को नागरिकता देने का वादा किया था. पार्टी के चुनावी घोषणा पत्र में बीजेपी ने हिंदू शरणार्थियों का स्वागत करने और उन्हें आश्रय देने का वादा किया था.

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NRC और नागरिकता संशोधन विधेयक में विरोधाभास

एनआरसी और नागरिकता संशोधन विधेयक में परस्पर विरोधाभास दिखता है. यह विवाद है कि बिल को लागू किया जाता है तो इससे पहले से अपडेटेड नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंश (NRC) बेअसर हो जाएगा.

जहां एक ओर विधेयक में बीजेपी धर्म के आधार पर शरणार्थियों को नागरिकता देने पर विचार कर रही है वहीं एनआरसी में धर्म के आधार पर शरणार्थियों को लेकर भेदभाव नहीं है. इसके मुताबि, 24 मार्च 1971 के बाद अवैध रूप से देश में घुसे अप्रवासियों को निर्वासित किया जाएगा. इस वजह से असम में नागरिकता और अवैध प्रवासियों का मुद्दा राजनीतिक रूप ले चुका है. फिलहाल असम में एनआरसी को अपडेट करने की प्रक्रिया जारी है.

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एनआरसी क्या है?

नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंश में जिनके नाम नहीं होंगे उन्हें अवैध नागरिक माना जाएगा. इसमें उन भारतीय नागरिकों के नाम शामिल किए गए हैं, जो 25 मार्च 1971 से पहले असम में रह रहे हैं. इसके बाद राज्य में पहुंचने वालों को बांग्लादेश वापस भेज दिया जाएगा. एनआरसी उन्हीं राज्यों में लागू होता है, जहां अन्य देशों के नागरिक भारत में आ जाते हैं.

साल 1947 में जब भारत पाकिस्तान का बंटवारा हुआ तो कुछ लोग असम में पूर्वी पाकिस्तान चले गए, लेकिन उनकी जमीन असम में थी और लोगों का दोनों ओर आना-जाना बंटवारे के बाद भी जारी रहा. तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान और अब बांग्लादेश से असम में लोगों का अवैध तरीके से आने का सिलसिला जारी रहा. इससे वहां पहले से रह रहे लोगों को परेशानियां होने लगीं. 1979 से 1985 के बीच 6 सालों तक इस समस्या को लेकर असम में एक आंदोलन चला.

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असम समझौता क्या है?

15 अगस्त 1985 को ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन और दूसरे संगठनों के साथ उस वक्त की राजीव गांधी सरकार का समझौता हुआ. इसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है. इस समझौते के तहत ही 25 मार्च 1971 के बाद असम आए लोगों की पहचान की जानी थी. इसके बाद उन्हें वापस भेजा जाना तय हुआ.

ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन ने 1979 में असम में अवैध तरीके से रह रहे लोगों की पहचान और उन्हें वापस भेजे जाने के लिए एक आंदोलन की शुरुआत की थी. असम समझौते के बाद आंदोलन से जुड़े नेताओं ने अमस गण परिषद के नाम से एक राजनीतिक दल का गठन किया. इस दल ने राज्य में दो बार सरकार भी बनाई.

साल 2005 में तत्काली प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने 1951 के एनआरसी को अपडेट करने का फैसला किया. उन्होंने तय किया कि असम समझौते के तहत 25 मार्च 1971 से पहले असम में अवैध तरीके से भी दाखिल हो गए लोगों का नाम नेशनल रजिस्टर और सिटिजंश में जोड़ा जाएगा. लेकिन ये विवाद सुलझने के बजाय बढ़ता ही गया. इसके बाद ये मामला कोर्ट में पहुंच गया.

सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर असम में नागरिकों के सत्यापन का काम साल 2015 में शुरू किया गया. तय हुआ कि उन्हें भारतीय नागरिक माना जाएगा, जिनके पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में या 24 मार्च 1971 तक के किसी वोटर लिस्ट या दूसरे 12 तरीके के दस्तावेजों में मौजूद हों.

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