क्या मोदी सरकार गिर जाएगी? क्या मोदी सरकार के पास संसद में बहुमत नहीं है? ये सवाल इसलिए क्योंकि मणिपुर हिंसा के मुद्दे को लेकर संसद में हंगामे के बीच विपक्षी गठबंधन INDIA यानी कि ‘इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस’ के घटक दलों ने 26 जुलाई 2023 को लोकसभा में सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव का नोटिस दिया. जिसे लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्वीकार कर लिया. मतलब इंग्लिश में नो कॉन्फिडेंस मोशन एक्सेप्ट कर लिया गया है.
अब सवाल है कि ये अविश्वास प्रस्ताव होता क्या है? ये क्यों लाया जाता है, कौन सरकार गिराने का प्रस्ताव रख सकता है? ऐसे ही सवालों के जवाब आसान शब्दों में समझाने के लिए हम लेकर आए हैं.. नई सीरीज QXplainer- आसान भाषा में.
नो कॉन्फिडेंस मोशन का ए टू जेड बताने से पहले आपको बता दें कि क्विंट पर हम लगातार आपको संसद से लेकर सड़क तक के मुद्दे बताते रहे हैं, इसलिए हमें भी आपके साथ की जरूरत है. आप हमारा साथ क्विंट मेंबर बनकर दे सकते हैं...क्विंट मेंबर बनने के लिए वीडियो का डिस्क्रिप्शन देखिए.
अविश्वास प्रस्ताव क्या है?
आसान भाषा में कहें तो जब ससंद में विपक्ष के किसी दल को लगता है कि मौजूदा सरकार के पास बहुमत नहीं है या फिर सरकार सदन में विश्वास खो चुकी है, तो अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है. लेकिन सिर्फ किसी के ये लगने भर से ये नहीं हो सकता कि सरकार गिर जाए या प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़े बल्कि इसका एक पूरा प्रोसेस है. इस वीडियो में आगे आपको पूरा प्रोसेस बताएंगे.
अविश्वास प्रस्ताव कौन ला सकता है, इसका प्रोसेस क्या है?
दरअसल, अविश्वास प्रस्ताव ज्यादातर सरकार का विरोध करने वाले यानी विपक्षी दल लाते हैं. इसके साथ ही कोई भी लोकसभा सांसद अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सकता है लेकिन उसके पास 50 सांसदों के समर्थन का हस्ताक्षर होना चाहिए. इसके बाद लोकसभा स्पीकर के सामने प्रस्ताव रखा जाता है. लोकसभा की नियमावली 198 के मुताबिक अगर स्पीकर उस अविश्वास प्रस्ताव को मंजूर कर लेता है तो प्रस्ताव पेश करने के 10 दिनों के अंदर इस पर चर्चा कराई जाती है. स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में वोटिंग करा सकता है.
जब सदन में अविश्वास प्रस्ताव लाया जाता है तो सत्ताधारी पार्टी को साबित करना होता है कि उनके पास बहुमत है. यहां एक बात जानना अहम है कि नो कॉन्फिडेंस मोशन के वोटिंग में सिर्फ लोकसभा के सांसद ही शामिल हो सकते हैं, राज्यसभा के सांसद वोटिंग प्रोसेस में हिस्सा नहीं ले सकते.
पहली बार कब लाया गया था अविश्वास प्रस्ताव?
भारत के संसदीय इतिहास में सबसे पहली बार पंडित जवाहर लाल नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था. अगस्त 1963 में जे बी कृपलानी ने संसद में नेहरू सरकार के खिलाफ प्रस्ताव रखा था. ये अविश्वास प्रस्ताव गिर गया था और नेहरू की जीत हुई थी. चार दिनों तक 21 घंटे अविश्वास प्रस्ताव पर बहस हुई। 40 सांसदों ने इसमें हिस्सा लिया था.
जवाब देते हुए नेहरू ने कहा था, "अविश्वास प्रस्ताव का उद्देश्य सत्तारूढ़ पार्टी को सरकार से हटाना होता है या होना चाहिए. मौजूदा स्थिति में साफ है कि ऐसी कोई उम्मीद या संभावना नहीं है. फिर भी डिबेट कई मायनों में काफी रोचक है. मुझे लगता है कि लाभकारी भी है... व्यक्तिगत तौर पर मैं इस प्रस्ताव और डिबेट का स्वागत करता हूं. मैंने महसूस किया है कि अगर हम समय-समय पर इस तरह के परीक्षण करते रहें तो यह अच्छी बात होगी.''
तब से लेकर अबतक संसद में 28 अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं. पिछली बार 20 जुलाई 2018 को मोदी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था. ये प्रस्ताव टीआरएस यानी कि तेलंगाना राष्ट्र समिति जोकि अब भारत राष्ट्र समिति बन गई है वो लेकर आई थी. जिसमें मोदी सरकार की जीत हुई थी.
किस सरकार के खिलाफ सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव लाए गए हैं?
अब तक सबसे ज्यादा 15 बार अविश्वास प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ लाए गए. लाल बहादुर शास्त्री और नरसिंह राव सरकार को तीन-तीन बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना करना पड़ा. मोदी सरकार के पिछले 9 साल के कार्यकाल में दो बार उनके खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया है.
क्या अविश्वास प्रस्ताव की वजह से कोई सरकार अबतक गिरी है?
भारत के इतिहास में अब तक सिर्फ एक बार ही अविश्वास प्रस्ताव से सरकार गिर गई है. 1978 में मोरारजी देसाई सरकार अविश्वास प्रस्ताव से गिर गई थी. 1993 में अविश्वास प्रस्ताव से नरसिंह राव सरकार के गिरने का खतरा था लेकिन बहुत कम वोटों के अंतर से वो अपनी सरकार बचाने में कामयाब रहे.
अविश्वास प्रस्ताव और विश्वास प्रस्ताव में अंतर?
अविश्वास प्रस्ताव हमेशा विपक्षी पार्टी की तरफ से लाया जाता है. जबकि विश्वास प्रस्ताव सदन में अपना बहुमत दिखाने के लिए सत्ताधारी पार्टी की तरफ से लाया जाता है.
अविश्वास प्रस्ताव और विश्वास प्रस्ताव दोनों निचले सदन यानी केंद्र सरकार के मामले में लोकसभा और राज्य सरकारों के मामले में विधानसभा में भी लाए जा सकते हैं.
विश्वास प्रस्ताव- ये केंद्र में प्रधानमंत्री और राज्य में मुख्यमंत्री पेश करता है, सरकार के बने रहने के लिए इस प्रस्ताव का पारित होना मतलब मंजूर होना जरूरी है. प्रस्ताव पारित नहीं हुआ तो सरकार गिर जाएगी. विश्वास प्रस्ताव दो स्थिति में लाया जाता है. जब सरकार को समर्थन देने वाले घटक समर्थन वापसी का ऐलान कर दें, ऐसे में राष्ट्रपति या राज्यपाल प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री को सदन का भरोसा हासिल करने को कह सकते हैं.
अटल बिहारी वाजपेयी ने दो बार सदन में विश्वास मत हासिल करने की कोशिश की और दोनों बार वे इसमें नाकामयाब रहे. 1996 में उन्होंने वोटिंग से पहले ही इस्तीफा दे दिया था. जबकि 1998 में वे एक वोट से हार गए थे और उन्हें अपनी सरकार गंवानी पड़ी.
90 के दशक में वाजपेयी के अलावा वी पी सिंह, एच डी देवेगौड़ा और आई के गुजराल की सरकारें भी विश्वास प्रस्ताव हार चुकी हैं. वहीं 1979 में ऐसे प्रस्ताव के लिए जरूरी सपोर्ट नहीं इकट्ठा कर पाने की स्थिति में चौधरी चरण सिंह ने इस्तीफा दे दिया था.
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