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'एक देश, एक चुनाव' की राह आसान नहीं है, वैधानिकता, संशोधन को लेकर सवाल

One Nation One Election: सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय हेगड़े पूछते हैं, तब क्या होगा अगर राज्यों की विधानसभाएं अपने 5 साल के कार्यकाल से पहले भंग करने से इनकार कर देंगी.

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सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) के सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े ने द क्विंट से कहा कि, “एक राष्ट्र एक चुनाव” सुनकर तो काफी अच्छा लगता है, लेकिन कई सवाल हैं."

केंद्र सरकार की तरफ से शनिवार, 2 सितंबर को ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ (One nation one election) की व्यवस्था लागू करने के अध्ययन के लिए पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अगुवाई में एक पैनल गठित करने के बाद से इस प्रस्ताव को गंभीरता मिली है.

प्रस्ताव का निश्चित नतीजा सभी राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिए एक साथ चुनाव कराना है– यह ऐसा कदम है जिसे नरेंद्र मोदी सरकार सालों से लगातार आगे बढ़ा रही है और यहां तक कि इसे 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के घोषणापत्र में भी शामिल किया था.

द क्विंट इस एक्सप्लेनर में उन अटकलों से पैदा होने वाले तीन जरूरी सवालों के जवाब देने की कोशिश कर रहा है कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ हकीकत बन सकता है.

  • इसे कैसे लागू किया जाएगा?

  • इसके रास्ते में क्या कानूनी अड़चनें हैं?

  • इसे लागू करने में क्या मुश्किलें हैं?

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‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ कैसे लागू किया जाएगा?

केंद्र सरकार ने 18-22 सितंबर तक संसद का विशेष सत्र बुलाया है. हालांकि सत्र के एजेंडे को लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन अटकलें लगाई जा रही हैं कि इसमें ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर बिल लाया जा सकता है. अगर ऐसा होता है, तो बिल में क्या शामिल हो सकता है?

  1. संशोधन: हेगड़े कहते हैं, “कानून में निश्चित रूप से विधानसभाओं के कार्यकाल को तय करने वाले संवैधानिक संशोधन होंगे. लोगों ने हिसाब लगाया है कि संविधान के कम से कम पांच आर्टिकल में बदलाव करना होगा.”

इसमें शामिल है:

  • आर्टिकल 83 (2), जिसमें कहा गया है कि लोकसभा का कार्यकाल पांच साल से ज्यादा नहीं होना चाहिए, लेकिन सदन को कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग किया जा सकता है.

  • आर्टिकल 85 (2) (B), जिसमें कहा गया है कि भंग करने से मौजूदा सदन का कार्यकाल खत्म हो जाएगा और आम चुनाव के बाद एक नया सदन बनाया जाएगा.

  • आर्टिकल 172 (1), जिसमें कहा गया है कि राज्य विधानसभा पांच साल की अवधि तक चलेगी, वशर्ते कि इसे बीच में भंग न कर दिया जाए.

  • आर्टिकल 174 (2) (B), जिसमें कहा गया है कि राज्यपाल कैबिनेट की सलाह पर राज्य विधानसभा को भंग कर सकता है.

  • आर्टिकल 356, जो किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने के बारे में है.

पूर्व चुनाव आयुक्त ओपी रावत ने समाचार एजेंसी ANI से बातचीत में कहा,

“मौजूदा हालात में एक परेशानी है– और वह है संविधान और कानून में संशोधन करना. यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह संसद के जरिये और सभी राजनीतिक दलों को साथ लेकर बदलाव करे. संशोधन नहीं होने पर चुनाव आयोग राज्यों में जब भी चुनाव होने होंगे, चुनाव कराने के लिए कानूनन बाध्य है.”
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संवैधानिक संशोधन पारित करने के लिए जरूरी है:

  • मतदान के समय सदन के कम से कम दो-तिहाई सदस्यों का हाजिर रहना जरूरी है.

  • सभी राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों की सहमति जरूरी है.

  • संशोधन संसद में पारित हो जाता है, तो इसे भारत के कम से कम आधे राज्यों की विधानसभाओं से अनुमोदित किया जाना जरूरी है.

2. चुनाव का समय: इसके साथ ही कानून में ही चुनाव के लिए एक तय तारीख या तारीख तय करने का तरीका बताया जा सकता है.

3. लॉजिस्टिक से जुड़े हुए मसले: तीसरा, कानून में प्रशासनिक सहायता के प्रावधान शामिल किए जा सकते हैं. हेगड़े कहते हैं, “उदाहरण के लिए, ऐसा क्यों है कि अप्रैल और मई के आसपास चुनाव नहीं होते? ऐसा इसलिए है क्योंकि उस समय स्कूल (मतदान केंद्रों के तौर पर इस्तेमाल के लिए) उपलब्ध नहीं होते क्योंकि इस दौरान परीक्षाएं होती हैं.”

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लॉजिस्टिक से जुड़ी मुश्किलें क्या हैं?

ANI से बातचीत में रावत ने कहा “एक राष्ट्र एक चुनाव” लागू किए जाने से सरकार जनता पर ज्यादा ध्यान दे सकेगी– और राजनेताओं और अफसरों के पास ज्यादा समय होगा.”

हालांकि, अमल के नजरिये से यह बहुत मुश्किल काम है.

‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के लिए पहली जरूरत देश भर में संसद और सभी राज्य विधानमंडलों के कार्यकाल को एक जैसा बनाना है. ऐसा करने के लिए, एक तारीख तय करनी होगी जिससे सभी का कार्यकाल एक बराबर होगा. मगर यह एक तारीख तय करना उतना आसान नहीं है जितना लगता है.

हेगड़े के हिसाब से, एक और समस्या अर्धसैनिक बलों की तैनाती की हो सकती है.

“लोकसभा चुनाव आमतौर पर छह-सात चरणों में होते हैं. इसकी वजह खासतौर से यह है कि आपको केंद्रीय बलों को एक से दूसरे चुनाव क्षेत्र में भेजना होता है. और ऐसा इसलिए है क्योंकि कोई भी पार्टी किसी खास राज्य में वहां के सुरक्षा बल पर भरोसा करने को राजी नहीं है. आप हर पांच साल में एक बार अचानक कैसे अर्धसैनिक बलों का विस्तार कर सकते हैं और फिर उन्हें हटा सकते सकते हैं?”
संजय हेगड़े

दूसरी तरफ कुछ एक्सपर्ट का कहना है कि एक साथ चुनाव कराने से काफी खर्च घटाने में मदद मिलेगी, जो इसे एक सकारात्मक कदम बनाता है. उनका यह भी कहना है कि “अलग-अलग समय पर चुनाव विकास में रुकावट डालते हैं क्योंकि चुनाव के दौरान नई योजनाएं और नीतियां जारी नहीं की जा सकती हैं”– जिससे 'एक राष्ट्र एक चुनाव' एक जरूरी कदम बन जाता है.

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कानूनी रुकावटें क्या हैं?

केंद्र सरकार लॉजिस्टिक संबंधी रुकावटों को दूर करने के उपाय खोज भी ले, तो भी आधी लड़ाई बाकी है. 'एक राष्ट्र, एक चुनाव' फिर भी कानूनी रूप से बहुत मुश्किल काम है. क्यों?

  • अगर कोई पार्टी दो साल तक सत्ता में रहने के बाद किसी विधानसभा में बहुमत गंवा देती है या विश्वास मत हार जाती है, और एक नई पार्टी सत्ता में आती है तो क्या होगा?

  • अगर कोई पार्टी सत्ता से हट जाती है और विपक्ष के पास सरकार बनाने के लिए पर्याप्त बहुमत नहीं है तब क्या होगा?

हेगड़े कहते हैं, “अगर एक पार्टी सदन में बहुमत खो देती है या विश्वास मत हार जाती है और दूसरी पार्टियां कोई विकल्प पेश करने में नाकाम रहती हैं, तो आपके पास दो अलोकतांत्रिक विकल्प बचते हैं.”

  • पहला यह कि सरकार सदन के विश्वास के बिना चलती रहे.

  • दूसरा, राज्यों के मामले में राज्यपाल सत्ता संभाल सकते हैं. लेकिन केंद्र सरकार के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है.

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भारत में 1951-1952, 1957 और 1962 में एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव हुए थे. हालांकि, इस व्यवस्था को ठीक इन्हीं वजहों से खत्म करना पड़ा– सदन का विश्वास या बहुमत खोने के बाद कुछ राज्य विधानसभाएं और लोकसभा अपना कार्यकाल खत्म होने से पहले ही भंग हो गई थीं.

पूर्व चुनाव आयुक्त रावत बताते हैं, “1967 से यह तालमेल बिगड़ने लगा... चुनाव आयोग ने साल 1982-83 में एक संशोधन (संबंधित कानून में) लाने का सुझाव दिया था, ताकि फिर से एक साथ ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ कराया जा सके. उस समय यह सुझाव सिरे नहीं चढ़ा.’’

ऊपर बताई गई चुनौतियों के साथ ही,

अगर राज्य विधानसभाएं अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा होने से पहले भंग करने से इन्कार कर दें तब क्या होगा?

क्या विधानसभाओं को उनकी सहमति के बिना भंग किया जा सकता है?

हेगड़े बताते हैं, “पिछला उदाहरण 1977 का है जब जनता पार्टी सरकार सत्ता में आई थी. इसने उन सभी राज्यों को जनता से नया जनादेश लेने की सलाह दी थी, जहां कांग्रेस हार गई थी. इसे राजस्थान के मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई. उस समय के हालात को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश का समर्थन किया.”

हालांकि, वह इस बात पर संदेह जताते हैं कि क्या सिर्फ चुनावों को एक साथ कराने के लिए इस तरह की किसे कदम को सही ठहराया जा सकता है.

“उदाहरण के लिए कर्नाटक का मामला लेते हैं, जहां इसी साल एक नई सरकार बनी है. क्या आप वहां विधानसभा भंग करने के लिए कह सकते हैं? क्या इस तरह विधानसभा को भंग करना अदालत में सही ठहराया जा सकेगा?”
संजय हेगड़े
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सुप्रीम कोर्ट के वकील निपुण सक्सेना और प्रदीप राय ने भी CNBC से बातचीत में इसी तरह की समस्याएं सामने रखीं. उनका कहना था कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ में ऐसे हालात को भी शामिल किया जाना चाहिए जहां राजनीतिक दलों में दलबदल हो, राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में इमरजेंसी लागू हो, राष्ट्रपति शासन, अविश्वास प्रस्ताव या कोई और हालात हो, जो केंद्र या राज्य सरकारों को भंग किए जाने की वजह बने.

“इन हालात में, बीच में ही दोबारा चुनाव कराना होगा... तब राज्य विधानसभाओं का क्या होगा? इसके अलावा, ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ को लागू करने के लिए, सभी चुनावों की शून्य से शुरुआत करनी होगी.”
निपुण सक्सेना ने CNBC से कहा

संविधान की मूल संरचना का टेस्ट

इसके अलावा क्या एक राष्ट्र एक चुनाव भारतीय संविधान के ‘मूल संरचना सिद्धांत’ (basic structure' doctrine) को पास कर सकेगा, यह एक बेहद जटिल बहस का मुद्दा है.

हेगड़े द क्विंट से कहते हैं, “संसदीय लोकतंत्र संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है. संसदीय रूप के लिए जरूरी यह है कि सरकार को सदन का विश्वास हासिल होना चाहिए. और अगर ऐसे हालात पैदा होते हैं जहां ऐसी कोई सरकार मुमकिन नहीं है, तो जनता के बीच जाने का रास्ता हमेशा खुला रहना चाहिए.’'

वह कहते हैं, “अगर एक राष्ट्र एक चुनाव में यह शामिल है कि विधानसभाओं को किसी भी तरह भंग नहीं किया जा सकता है, तो आपके पास गैर-प्रतिनिधि सरकारें हो सकती हैं और यह निश्चित रूप से संविधान के बुनियादी ढांचे के खिलाफ होगा.”

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