वन नेशन-वन इलेक्शन का मुद्दा इन दिनों सुर्खियों में है. केंद्र की मोदी सरकार चाहती है कि पूरे देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए जाएं. ये पहली बार नहीं है जब मोदी सरकार इसे लेकर गंभीर दिख रही है. इससे पहले भी वन नेशन-वन इलेक्शन का विचार चर्चा में रहा है.
इतना ही नहीं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, लालकृष्ण आडवाणी और नीतीश कुमार भी इसके हक में अपनी राय जाहिर कर चुके हैं. लेकिन अब मोदी सरकार वन नेशन-वन इलेक्शन के सपने को साकार करना चाहती है.
क्या है वन नेशन-वन इलेक्शन का मुद्दा और इसे लागू करने में किस तरह की है चुनौती आ सकती है. इन सवालों के जवाब तलाशने के साथ ही यह जानना भी जरूरी है कि आखिर सरकार के पास ये वन नेशन-वन इलेक्शन का आइडिया आया कहां से.
कैसे आया वन नेशन-वन इलेक्शन का आइडिया?
इलेक्शन कमीशन ने पहली बार साल 1983 में इसे लेकर सुझाव दिया था. इलेक्शन कमीशन ने कहा था कि एक ऐसा सिस्टम बनाया जाना चाहिए, जिसके तहत लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित कराए जा सकें.
जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अगुवाई वाले लॉ कमीशन ने साल 1999 में अपनी रिपोर्ट में कहा था, "हमें उस स्थिति में वापस जाना चाहिए, जहां लोकसभा और सभी विधानसभाओं को एक साथ आयोजित किया जाता है."
दिसंबर 2015 में 'लोक सभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव आयोजित करने की व्यवहार्यता' रिपोर्ट पर पार्लियामेंट की स्टेंडिंग कमेटी ने एक साथ चुनाव आयोजित करने पर एक वैकल्पिक और व्यावहारिक तरीका अपनाने की सिफारिश की.
एक साथ चुनाव के हक में दिए जाने वाले तर्क.
- आयोग को बार-बार चुनावों की तैयारी से छुटकारा मिलेगा.
- चुनावी खर्चों में कमी आएगी.
- केंद्र और राज्य सरकारें एक साथ पॉलिसी बना सकते हैं.
- पूरे देश में एक वोटर लिस्ट होगी.
- चुनाव ड्यूटी में खर्च होने वाला सुरक्षा बलों का वक्त बचेगा.
- चुनावी प्रचार में लगने वाला नेताओं का वक्त बचेगा और वो उसे रचनात्मक कामों में लगा सकेंगे.
नीति आयोग के मुताबिक, साल 2009 में हुए लोकसभा चुनाव पर करीब 1,115 करोड़ रुपये का खर्च आया था. जबकि साल 2014 के लोकसभा चुनाव पर करीब 3870 करोड़ रुपये खर्च हुए.
चुनावों में खर्च किए गई कुल रकम, जिसमें पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा किया गया खर्च भी शामिल है, घोषित रकम से कई गुना ज्यादा होता है.
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुमान के मुताबिक, साल 2014 के लोकसभा चुनाव में अघोषित तौर पर करीब 30,000 करोड़ रुपये खर्च किए गए. चुनाव आयोग की मानें तो सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों पर करीब 4,500 करोड़ रुपये का खर्च आता है.
एक साथ चुनाव से खिलाफ दिए जाने वाले तर्क.
- ज्यादातर लोग वोट देते समय एक ही पार्टी को वोट कर सकते हैं. लिहाजा, देश में एक ही पार्टी का शासन हो जाएगा.
- एक साथ चुनाव तयशुदा वक्त की लोकसभा और विधासभाओं की सिफारिश करता है जिसके लिए संविधान में बदलाव जरूरी होगा.
- इससे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के बीच मतभेद बढ़ेंगे.
- आर्टिकल 356 का गलत इस्तेमाल हो सकता है
- इससे राष्ट्रीय दलों को फायदा होगा जबकि छोटी पार्टियों को नुकसान.
पहली बार एक साथ चुनाव साल 1951-52, 1957, 1962 और 1967 में कराया गया था. लेकिन इसकी वजह कोई नियम कायदा नहीं बल्कि संयोग था. उस वक्त देश में कमोबेश सिर्फ कांग्रेस पार्टी का राज था. तमाम विधानसभाएं पांच साल का कार्यकाल पूरा कर रही थीं और केंद्र सरकार भी.
साल 1970 में समय से पहले विधानसभा भंग हो जाने के कारण यह चक्र बाधित हो गया. इसकी वजह से लोकसभा भी प्रभावित हुई और उसे भी तय समय से पहले भंग कर दिया गया.
राजनीतिक दलों की क्या है राय?
केंद्र समेत कई राज्यों में सत्ताधारी बीजेपी वन नेशन-वन इलेक्शन को साकार करने में जुटी है. बीजेपी ने 2014 लोकसभा चुनाव के लिए पेश किए गए अपने मेनिफेस्टो में भी सभी चुनाव एक साथ कराए जाने का जिक्र किया था.
हालांकि, कांग्रेस ने इसे अव्यवहारिक बताया है. यूपीए सरकार में वित्त मंत्री रहे पी चिदंबरम ने तो वन नेशन-वन इलेक्शन को जुमला करार दिया है. इ सके अलावा पश्चिम बंगाल की तृणमूल कांग्रेस ने इसे अलोकतांत्रिक करार दिया है. सीपीएम का कहना है कि इसे लागू करने में कई चुनौतियां हैं.
वन नेशन-वन इलेक्शन लागू कैसे होगा?
इसे लागू करने के लिए सबसे पहले संविधान में कुछ संशोधन करने होंगे. चुनाव आयोग ने सुझाव दिया है कि तय समय से पहले सदन भंग होने से बचाने के लिए लोकसभा पहले से तय तारीखों पर शुरू और समाप्त हो सकती है.
प्रधान मंत्री बनने की आशा रखने वाले व्यक्ति के लिए अविश्वास प्रस्ताव और विश्वास प्रस्ताव एक साथ ही लाए जाने चाहिए. अगर इसके बावजूद भी सदन भंग होता है तो बाकी वक्त के लिए राष्ट्रपति शासन लगाना होगा और अगर सदन के कार्यकाल में ज्यादा वक्त बाकी है तो उस सदन के लिए चुनाव कराना होगा.
वन नेशन, वन इलेक्शन का असर क्या होगा?
वन नेशन-वन इलेक्शन को लेकर कई तरह की प्रतिक्रियाएं आ रहीं हैं. हाल के दिनों में वन नेशन, वन इलेक्शन की चर्चाओं को देखते हुए लोकसभा चुनाव पहले कराए जाने की अटकलें भी लग रही हैं. बीजेपी के कई नेताओं ने भी माना है कि पार्टी नेतृत्व 2019 के लोकसभा चुनाव वक्त से पहले कराने की बीत सोच सकता है.
अगर एक साल के भीतर लोकसभा चुनाव होते हैं तो मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, त्रिपुरा, नागालैंड और मेघालय में एक साथ नई विधानसभाएं होंगी, जबकि गुजरात और हिमाचल प्रदेश भी अपेक्षाकृत नई विधानसभाएं होंगी.
अगर उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और हरियाणा में भी इलेक्शन जल्दी कराए जाते हैं तो वह भी इस लिस्ट में शामिल हो सकते हैं. और पांच सालों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में देरी से चुनाव कराए गए तो देश का ज्यादातर हिस्सा ऐसा होगा, जहां एक वक्त पर ही चुनाव होंगे.
स्रोतः इंडियन एक्सप्रेस
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