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रोहिंग्या शरणार्थियों की बीच समंदर मौत,भारत जैसे पड़ोसी देश क्या कर सकते हैं?

UNHCR ने दावा किया कि अकेले 2022 में, कम से कम 119 Rohingya Refugees की समुद्र में मौत हो गई

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26 दिसंबर को, सैकड़ों रोहिंग्या शरणार्थी (Rohingya refugees) अंडमान सागर में एक महीने तक भटकते रहने के बाद आखिर किसी तरह इंडोनेशिया (Indonesian)  के आचेह द्वीप के किनारे पर उतरे. भूख-प्यास और मौत के डर से कमजोर हो चुके कई शरणार्थी वहीं जमीन पर गिर गए लेकिन उनमें से कई तो उस द्वीप पर जिंदा ही नहीं पहुंच पाए थे.

हादसे के बारे में बोट पर मौजूद महिलाओं में से एक ने क्विंट को बताया कि नाव समुद्र में चलने के लिए फिट भी नहीं थी, उस पर सवार 160 में से कम से कम 20 समुद्र में डूब गए. ये सभी 25 नवंबर को बांग्लादेश से मलेशिया के लिए रवाना हुए थे.

8 दिसंबर को शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र के हाई कमिश्नर (UNHCR) ने इलाके में स्थित देशों से "समुद्र में फंसे व्यक्तियों को बचाने के लिए," अपील की थी. उन्होंने समुद्री कानून और लंबे वक्त से चली आ रही समुद्री परंपराओं और अंतरराष्ट्रीय दायित्वों की याद दिलाई.

जबकि इस बीच नाव एक समुंद्री क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भटकती रही, यहां तक कि 18 दिसंबर को बंगाल की खाड़ी भी पहुंची. लेकिन किसी भी पड़ोसी देश ने रेस्क्यू अभियान को आधिकारिक तौर पर शुरू नहीं किया. आखिर इंडोनेशियाई नागरिकों ने इन रोहिंग्या शरणार्थियों को बचाया.

UNHCR ने दावा किया कि सिर्फ 2022 में, इन कठिन यात्राओं के दौरान कम से कम 119 रोहिंग्या शरणार्थियों की समुद्र में मौत हो गई है. इससे हमारे सामने कई सवाल आते हैं.

  • संकट के वक्त पड़ोसी मुल्क किस तरह मददगार हो सकते हैं ?

  • भारत क्या कर सकता है और भारत को क्या जरूर करना चाहिए ?

  • आखिर इस तरह की रिस्की समुद्री यात्राओं में 6 गुना इजाफा क्यों ?

क्विंट के साथ बातचीत में सुप्रीम कोर्ट के सीनियर एडवोकेट कॉलिन गोंजाल्विस और दिल्ली के सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में एसोसिएट फेलो अंगशुमन चौधरी ने इमरजेंसी रीजनल रिस्पॉन्स के बारे में बात की. उन्होंने रोहिंग्या शरणार्थियों पर भारत के रुख और भारत में रोहिंग्या की दुर्दशा के बारे में बताया.

रोहिंग्या शरणार्थियों की बीच समंदर मौत,भारत जैसे पड़ोसी देश क्या कर सकते हैं?

  1. 1. 'इमरजेंसी रीजनल रिस्पॉन्स फ्रेमवर्क बनाने की जरूरत‘

    अंगशुमन चौधरी, जो मुख्य तौर पर म्यांमार पर काम करते हैं, वो आर्म्स विद्रोह और जबदरस्ती इलाके से हो रहे पलायन को इसका मुख्य कारण मानते हैं. वो मानते हैं कि असम और म्यांमार के रखाइन स्टेट में इमरजेंसी रीजनल रिस्पॉन्स फ्रेमवर्क बनाना बहुत जरूरी है. ताकि अंडमान सागर में रेस्क्यू ऑपरेशन किया जा सके और गैरकानूनी तौर पर चल रहे ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर भी नजर रखी जा सके. क्योंकि समुद्र के रास्ते से इसे खूब अंजाम दिया जाता है.

    इलाके में स्थित पड़ोसी देश इस बारे में क्या कुछ कर सकते हैं उन्होंने क्विंट से कहा

    “2016 की बाली घोषणा, जिसमें इन मुद्दों के बारे में वर्क फ्रेम बनाया गया था उसे ठीक से लागू करने की जरूरत है और जिन देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं उन्हें इसका पालन करना चाहिए.”

    2016 में जो बाली घोषणा की गई थी उस पर 45 देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इसमें "शरणार्थियों और प्रवासियों के लिए समुद्र में रेस्क्यू और बचाव पर एक व्यापक नजरिया अपनाया गया था. इसमें राहत बचाव, तलाशी अभियान में एक दूसरे की सहायता करने की बात थी. आपसी सहयोग से काम करने पर जोर दिया गया था. एक व्यापक क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने की प्रतिज्ञा ली गई थी.

    बाली प्रक्रिया के सदस्य के तौर पर भारत ने म्यांमार के रखाइन में हिंसा का हवाला देते हुए इस घोषणा पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया था. भारत ने ये भी कहा था कि किसी देश विशेष के मुद्दे को इस तरह के घोषणा में शामिल किए जाने से ऐसे फोरम के लक्ष्य का फोकस ही पटरी से उतर जाता है क्योंकि इनका मकसद सभी सदस्य देशों के हितों के लिए काम करना है. ना कि किसी खास देश विशेष के लिए."

    भारतीय प्रतिनिधिमंडल का दल ऐसे वक्त पर आया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साल 2017 के म्यांमार यात्रा को पूरा कर रहे थे. तब अभी आंग सान सू जो कि जेल में नहीं थीं, उनसे भी प्रधानमंत्री मोदी ने मुलाकात की थी.

    चौधरी ने कहा कि , "समुद्री रेस्क्यू एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्व है. यह कुछ ऐसा है जिसे क्षेत्र के देशों को पूरी ईमानदारी के साथ पहचानने और अमल करने की जरूरत है. इसका मतलब यह होगा कि देश सामूहिक रूप से समन्वित मानवीय सहायता और आपदा राहत (एचएडीआर) मिशन शुरू कर रहे हैं जो शरणार्थी नौकाओं के लिए अंडमान सागर की निगरानी करते हैं, और जब भी जरूरत हो रेस्कयू प्रक्रिया को शुरू करने में सक्षम हों.

    इसके अलावा, अंगशुमन चौधरी ने बांग्लादेशी और बर्मा के अधिकारियों को सामूहिक रूप से सहायता करने के लिए देशों की आवश्यकता के बारे में समझाया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शरणार्थी गैर-समुद्री जहाजों में अपने तटों से नहीं जाएं क्योंकि अक्सर इस तरह की जहाज में ह्यूमन ट्रैफिकिंग होती है.

    16 दिसंबर को दिए गए एक बयान में, म्यांमार की निर्वासित सरकार ने दावा किया था कि एक नाव में सवार 154 रोहिंग्या शरणार्थियों को "म्यांमार में अवैध सैन्य जुंटा सरकार को" सौंप दिया गया था. इस बोट को एक वियतनामी ऑफशोर कंपनी ने पकड़ा था.

    अंडमान सागर में फंसने वाली नाव आचे द्वीप तक पहुंची सिर्फ अकेली नाव नहीं थी. नवंबर के अंत तक कम से कम पांच ऐसी नावें थीं. रिफ्यूजी बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में जेल जैसी जिंदगी से बचने के लिए इंडोनेशिया और मलेशिया के लिए रवाना हुए थे.

    • UNHCR के अनुसार, 180 रोहिंग्या शरणार्थियों को ले जा रही एक नाव के डूबने की सूचना मिली है, संभवतः 2022 समुद्र में समुदाय के लिए सबसे घातक वर्षों में से एक है. वो हताशा में शरण के लिए दूसरे देश की तरफ भाग रहे हैं.

    • UNHCR के अनुसार 2,000 से अधिक रोहिंग्या शरणार्थियों ने म्यांमार और बांग्लादेश से ऐसी यात्राएं कीं, जबकि 2021 में यह संख्या केवल 287 थी, जो एक खतरनाक उछाल का इशारा करती है.

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  2. 2. भारत क्या कर सकता है और क्या नहीं?

    क्विंट की रिपोर्ट के मुताबिक, 160 शरणार्थियों को लेकर नाव 18 दिसंबर को निकोबार द्वीप के कैंपबेल बे के पास बंगाल की खाड़ी में कुछ देर के लिए घुसी थी. भारतीय नौसेना, तट रक्षक या केंद्रीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से किसी भी बचाव अभियान या मानवीय सहायता के बारे में कोई निर्देश नहीं मिला.

    सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंजाल्विस ने भारत सरकार की इस चुप्पी के लिए "रोहिंग्याओं के प्रति कड़ाई की नीति " को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा "अगर कोई यह कहते हुए अदालत में अपील करता कि वे (रोहिंग्या शरणार्थी) भारतीय जलक्षेत्र में हैं और हमें उनकी देखभाल करनी चाहिए, तो अदालत में वे जीत गए होते. रोहिंग्या को लेकर भारत सरकार का नजरिया बहुत सख्ती वाला है. सरकार कहती है 'वे विदेशी हैं और उनके पास कोई अधिकार नहीं है'. यह सच है कि वे विदेशी हैं, लेकिन वे भी शरणार्थी हैं, और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत शरणार्थियों को वापस नहीं भेजा जा सकता है और उनकी देखभाल होनी चाहिए."

    दूसरी तरफ, चौधरी ने कहा कि भारत को "उन रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में लेने और निर्वासित करने की अपनी नीति को तुरंत रोक देना चाहिए जो पहले से ही देश में हैं. "

    दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एसोसिएट फेलो अंशुमन चौधरी ने कहा,

    “सरकार को यह समझने की जरूरत है कि रोहिंग्या को म्यांमार वापस भेजना, जहां सेना वर्तमान में सत्ता में है, उनकी जिंदगी और सुरक्षा को गंभीर रूप से खतरे में डालने जैसा है. कॉक्स बाजार में शरणार्थियों के समर्थन में अधिक मानवीय सहायता देकर भारत को बांग्लादेश का समर्थन जारी रखना चाहिए. यह सहायता एक बार के भोजन के पैकेट और इसी तरह की अन्य चीजों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि मानवीय सुरक्षा के सभी क्षेत्रों को व्यापक रूप से कवर करना चाहिए."

    उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि “भारत को म्यांमार की सेना पर लोकतांत्रिक नागरिक शासन को बहाल करने के लिए दबाव बनाना चाहिए .उसके बाद नई सरकार को रोहिंग्या के लिए नागरिकता बहाल करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. यह बांग्लादेश से आए शरणार्थियों के सुरक्षित, गरिमापूर्ण और स्वैच्छिक वापसी की स्थिति पैदा करेगा.

    अंगशुमन चौधरी ने कहा कि अभी, बांग्लादेश को "बेहद कम" सहायता पैकेज और म्यांमार को "बेहद अप्रभावी" रखाइन राज्य विकास कार्यक्रम (आरएसडीपी) के तहत कुछ "सीमित सहायता" देने के अलावा, भारत "कुछ खास नहीं कर रहा है.

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  3. 3. रोहिंग्या शरणार्थी इतनी खतरनाक यात्रा क्यों कर रहे हैं?

    रोहिंग्या एक मुस्लिम जातीय समूह है, जो बौद्ध बहुल म्यांमार से आते हैं. हालांकि, देश उन्हें एक आधिकारिक जातीय समूह के रूप में मान्यता नहीं देता है.

    दशकों के उत्पीड़न के बाद, 2017 में म्यांमार की सेना ने कथित तौर पर दर्जनों रोहिंग्या गांवों को जला दिया. निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं. UNHCR ने सितंबर 2017 में इसे "जातीय सफाई का उदाहरण" बताया.

    रोहिंग्या भाग गए और उन्हें पड़ोसी देश बांग्लादेश में शरण मिली. लेकिन शरणार्थी शिविर, जैसे कि कॉक्स बाजार में, घनी आबादी वाले हो गए हैं, जहां करीब दस लाख शरणार्थी रह रहे हैं.

    चौधरी ने क्विंट को बताया, "शिविरों में साफ-सफाई और चिकित्सा सुविधाओं की कमी है, साथ ही अगर मौसम खराब हुआ, जैसे चक्रवात आ जाए तो बचाव की सुविधा नहीं रहती है. अपराध बढ़ रहा है, जिससे शरणार्थियों में असुरक्षा और निराशा पैदा हो रही है.”

    उन्होंने दावा किया कि अधिकांश शिविरों पर "बांग्लादेशी अधिकारी कड़ी निगरानी रखते हैं जिससे रोहिंग्याओं के लिए बाहर निकलना और रोजी रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो जाता है." बांग्लादेश के कुतुपालोंग शरणार्थी शिविर में रहने वाले रोहिंग्या शरणार्थी रेजुवान खान, जिनकी बहन और भतीजी नाव पर थीं, ने क्विंट को बताया था:

    "हम जानते हैं कि यात्रा जोखिमों से भरी है लेकिन यहां हमें शिक्षा या काम करने का कोई अधिकार नहीं है. यही कारण है कि लोग इतना बड़ा जोखिम उठा रहे हैं और पलायन कर रहे हैं.. उम्मीद है कि कोई देश हमें शरण देगा."

    उन्होंने कहा कि “शिविर में, हमारे साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं होता है. अधिकांश शरणार्थी पलायन के लिए बेताब हैं. हमें शिविरों में शारीरिक और भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया जाता है, कभी विद्रोहियों से, कभी किसी और से.

    रेजुवान खान और उनका परिवार पांच साल पहले म्यांमार से बांग्लादेश आया था. वो बताते हैं , "जब हम शिविर में पहुंचे, तो हमें उम्मीद थी कि किसी दिन हमें वापस भेज दिया जाएगा लेकिन पिछले साल म्यांमार जुंटा के तख्तापलट के बाद, हमने सारी उम्मीद खो दी है. हम पांच साल से ऐसी जिंदगी जी रहे हैं, इसलिए हर कोई पलायन करना चाहता है.

    अंगशुमन चौधरी ने कहा कि "शरणार्थियों और मेजबान समुदाय के बीच कॉक्स बाजार में तनाव बढ़ रहा है. बाद में स्थानीय संसाधनों की तेजी से कमी और व्यापक वनों की कटाई के लिए रोहिंग्या को दोषी ठहराया गया है."

    चौधरी के शोध ने दिखाया है कि, समय के साथ, कई शरणार्थियों को ‘भाशान चार’ में ले जाया गया है, जो दक्षिणी तट से दूर एक अलग, ड्रेज-अप द्वीप है, जहां शरणार्थी किसी कैदखाने की तरह रहने के लिए मजबूर हैं.

    बर्मा के मानवाधिकार कार्यकर्ता और (नरसंहार) डॉक्यूमेंटेशन सेंटर, कंबोडिया के एक शोध साथी डॉ मौंग ज़र्नी ने अलजज़ीरा के साथ एक इंटरव्यू में कहा कि,

    "वे (रोहिंग्या शरणार्थी) गरीबी से नहीं भाग रहे हैं, वे दूसरी उत्पीड़न से भाग रहे हैं. बांग्लादेश में, उन्हें शरणार्थी के रूप में भी संबोधित नहीं किया जाता है क्योंकि बांग्लादेश को डर है कि उन्हें मान्यता देने से उन्हें शरणार्थी अधिकार देना अनिवार्य हो जाएगा. इसलिए उन्हें सरकार 'जबरन विस्थापित लोगों' के रूप में बताती है जो (2017 या उससे पहले भागे).
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  4. 4. रोहिंग्या के पास विकल्प क्या ?

    अक्सर यह पूछा जाता है कि रोहिंग्या शरणार्थी बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले देशों में क्यों नहीं जा सकते. इस बारे में अंगशुमन चौधरी ने कहा, 'वे इस्लामिक देशों में जाते हैं, मलेशिया और बांग्लादेश इस्लामिक देश हैं... एक देश का बहुसंख्यक धर्म हमेशा एक रोहिंग्या शरणार्थी के लिए प्राइमरी फैक्टर नहीं होता है जो शरण लेने के लिए कहीं जाना चाहते हैं.

    उन्होंने कहा कि एक रोहिंग्या शरणार्थी - किसी भी अन्य शरणार्थी की तरह - किसी भी देश में जाएगा जहां वे सम्मान, सुरक्षा और कुछ हद तक कानूनी सुरक्षा के साथ रह सकते हैं.

    उन्होंने कहा, “वास्तव में, सऊदी अरब और मलेशिया के दो प्रमुख उदाहरण होने के साथ, कई इस्लामी देश अपनी शरण और निर्वासन नीतियों में रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ भेदभाव करते हैं. इसलिए, जब शरणार्थियों के एक विशेष समूह की मेजबानी करने वाले देश की बात आती है, तो धर्म आवश्यक रूप से रचनात्मक भूमिका नहीं निभा सकता है."

    इस बीच, सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट गोंजाल्विस ने कहा कि रोहिंग्या शरणार्थी कहां जा सकते हैं या कहां नहीं , यह कोई सवाल ही नहीं है. "उन्होंने एक फैसला किया. उनकी नाव भारतीय जल सीमा में प्रवेश कर गई, इसलिए एकमात्र सवाल भारत सरकार के कानूनी और संवैधानिक दायित्व का है... समय-समय पर, हमारे कानून मंत्री इस पर बयान देंगे कि वे उन्हें कैसे निर्वासित करना चाहते हैं. लेकिन भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 – राइट टू लाइफ न केवल भारतीय नागरिकों के लिए है, बल्कि यह भारत की सीमाओं के भीतर रहने वाले हर शख्स पर लागू होता है.

    इस बीच, 21 दिसंबर को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 74 वर्षों में म्यांमार पर पहली बार अपना प्रस्ताव लाया. इसमें हिंसा को समाप्त करने की मांग की गई. इसमें म्यांमार के सैन्य जुंटा से अपदस्थ नेता आंग सान सू की सहित सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का आग्रह किया गया.

    चीन और रूस ने कड़ी कार्रवाई के खिलाफ तर्क दिया. बुधवार को जब वोटिंग हुई तो, दोनों देशों ने उसमें हिस्सा नहीं लिया. भारत समेत शेष 12 सदस्यों ने पक्ष में मतदान किया.

    (क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)

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'इमरजेंसी रीजनल रिस्पॉन्स फ्रेमवर्क बनाने की जरूरत‘

अंगशुमन चौधरी, जो मुख्य तौर पर म्यांमार पर काम करते हैं, वो आर्म्स विद्रोह और जबदरस्ती इलाके से हो रहे पलायन को इसका मुख्य कारण मानते हैं. वो मानते हैं कि असम और म्यांमार के रखाइन स्टेट में इमरजेंसी रीजनल रिस्पॉन्स फ्रेमवर्क बनाना बहुत जरूरी है. ताकि अंडमान सागर में रेस्क्यू ऑपरेशन किया जा सके और गैरकानूनी तौर पर चल रहे ह्यूमन ट्रैफिकिंग पर भी नजर रखी जा सके. क्योंकि समुद्र के रास्ते से इसे खूब अंजाम दिया जाता है.

इलाके में स्थित पड़ोसी देश इस बारे में क्या कुछ कर सकते हैं उन्होंने क्विंट से कहा

“2016 की बाली घोषणा, जिसमें इन मुद्दों के बारे में वर्क फ्रेम बनाया गया था उसे ठीक से लागू करने की जरूरत है और जिन देशों ने इस पर हस्ताक्षर किए हैं उन्हें इसका पालन करना चाहिए.”

2016 में जो बाली घोषणा की गई थी उस पर 45 देशों ने हस्ताक्षर किए थे. इसमें "शरणार्थियों और प्रवासियों के लिए समुद्र में रेस्क्यू और बचाव पर एक व्यापक नजरिया अपनाया गया था. इसमें राहत बचाव, तलाशी अभियान में एक दूसरे की सहायता करने की बात थी. आपसी सहयोग से काम करने पर जोर दिया गया था. एक व्यापक क्षेत्रीय दृष्टिकोण अपनाने की प्रतिज्ञा ली गई थी.

बाली प्रक्रिया के सदस्य के तौर पर भारत ने म्यांमार के रखाइन में हिंसा का हवाला देते हुए इस घोषणा पर दस्तखत करने से इंकार कर दिया था. भारत ने ये भी कहा था कि किसी देश विशेष के मुद्दे को इस तरह के घोषणा में शामिल किए जाने से ऐसे फोरम के लक्ष्य का फोकस ही पटरी से उतर जाता है क्योंकि इनका मकसद सभी सदस्य देशों के हितों के लिए काम करना है. ना कि किसी खास देश विशेष के लिए."

भारतीय प्रतिनिधिमंडल का दल ऐसे वक्त पर आया जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साल 2017 के म्यांमार यात्रा को पूरा कर रहे थे. तब अभी आंग सान सू जो कि जेल में नहीं थीं, उनसे भी प्रधानमंत्री मोदी ने मुलाकात की थी.

चौधरी ने कहा कि , "समुद्री रेस्क्यू एक अंतरराष्ट्रीय कानूनी दायित्व है. यह कुछ ऐसा है जिसे क्षेत्र के देशों को पूरी ईमानदारी के साथ पहचानने और अमल करने की जरूरत है. इसका मतलब यह होगा कि देश सामूहिक रूप से समन्वित मानवीय सहायता और आपदा राहत (एचएडीआर) मिशन शुरू कर रहे हैं जो शरणार्थी नौकाओं के लिए अंडमान सागर की निगरानी करते हैं, और जब भी जरूरत हो रेस्कयू प्रक्रिया को शुरू करने में सक्षम हों.

इसके अलावा, अंगशुमन चौधरी ने बांग्लादेशी और बर्मा के अधिकारियों को सामूहिक रूप से सहायता करने के लिए देशों की आवश्यकता के बारे में समझाया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शरणार्थी गैर-समुद्री जहाजों में अपने तटों से नहीं जाएं क्योंकि अक्सर इस तरह की जहाज में ह्यूमन ट्रैफिकिंग होती है.

16 दिसंबर को दिए गए एक बयान में, म्यांमार की निर्वासित सरकार ने दावा किया था कि एक नाव में सवार 154 रोहिंग्या शरणार्थियों को "म्यांमार में अवैध सैन्य जुंटा सरकार को" सौंप दिया गया था. इस बोट को एक वियतनामी ऑफशोर कंपनी ने पकड़ा था.

अंडमान सागर में फंसने वाली नाव आचे द्वीप तक पहुंची सिर्फ अकेली नाव नहीं थी. नवंबर के अंत तक कम से कम पांच ऐसी नावें थीं. रिफ्यूजी बांग्लादेश के शरणार्थी शिविरों में जेल जैसी जिंदगी से बचने के लिए इंडोनेशिया और मलेशिया के लिए रवाना हुए थे.

  • UNHCR के अनुसार, 180 रोहिंग्या शरणार्थियों को ले जा रही एक नाव के डूबने की सूचना मिली है, संभवतः 2022 समुद्र में समुदाय के लिए सबसे घातक वर्षों में से एक है. वो हताशा में शरण के लिए दूसरे देश की तरफ भाग रहे हैं.

  • UNHCR के अनुसार 2,000 से अधिक रोहिंग्या शरणार्थियों ने म्यांमार और बांग्लादेश से ऐसी यात्राएं कीं, जबकि 2021 में यह संख्या केवल 287 थी, जो एक खतरनाक उछाल का इशारा करती है.

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भारत क्या कर सकता है और क्या नहीं?

क्विंट की रिपोर्ट के मुताबिक, 160 शरणार्थियों को लेकर नाव 18 दिसंबर को निकोबार द्वीप के कैंपबेल बे के पास बंगाल की खाड़ी में कुछ देर के लिए घुसी थी. भारतीय नौसेना, तट रक्षक या केंद्रीय विदेश मंत्री एस जयशंकर से किसी भी बचाव अभियान या मानवीय सहायता के बारे में कोई निर्देश नहीं मिला.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क के संस्थापक कॉलिन गोंजाल्विस ने भारत सरकार की इस चुप्पी के लिए "रोहिंग्याओं के प्रति कड़ाई की नीति " को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने कहा "अगर कोई यह कहते हुए अदालत में अपील करता कि वे (रोहिंग्या शरणार्थी) भारतीय जलक्षेत्र में हैं और हमें उनकी देखभाल करनी चाहिए, तो अदालत में वे जीत गए होते. रोहिंग्या को लेकर भारत सरकार का नजरिया बहुत सख्ती वाला है. सरकार कहती है 'वे विदेशी हैं और उनके पास कोई अधिकार नहीं है'. यह सच है कि वे विदेशी हैं, लेकिन वे भी शरणार्थी हैं, और सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के तहत शरणार्थियों को वापस नहीं भेजा जा सकता है और उनकी देखभाल होनी चाहिए."

दूसरी तरफ, चौधरी ने कहा कि भारत को "उन रोहिंग्या शरणार्थियों को हिरासत में लेने और निर्वासित करने की अपनी नीति को तुरंत रोक देना चाहिए जो पहले से ही देश में हैं. "

दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एसोसिएट फेलो अंशुमन चौधरी ने कहा,

“सरकार को यह समझने की जरूरत है कि रोहिंग्या को म्यांमार वापस भेजना, जहां सेना वर्तमान में सत्ता में है, उनकी जिंदगी और सुरक्षा को गंभीर रूप से खतरे में डालने जैसा है. कॉक्स बाजार में शरणार्थियों के समर्थन में अधिक मानवीय सहायता देकर भारत को बांग्लादेश का समर्थन जारी रखना चाहिए. यह सहायता एक बार के भोजन के पैकेट और इसी तरह की अन्य चीजों तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि मानवीय सुरक्षा के सभी क्षेत्रों को व्यापक रूप से कवर करना चाहिए."

उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि “भारत को म्यांमार की सेना पर लोकतांत्रिक नागरिक शासन को बहाल करने के लिए दबाव बनाना चाहिए .उसके बाद नई सरकार को रोहिंग्या के लिए नागरिकता बहाल करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए. यह बांग्लादेश से आए शरणार्थियों के सुरक्षित, गरिमापूर्ण और स्वैच्छिक वापसी की स्थिति पैदा करेगा.

अंगशुमन चौधरी ने कहा कि अभी, बांग्लादेश को "बेहद कम" सहायता पैकेज और म्यांमार को "बेहद अप्रभावी" रखाइन राज्य विकास कार्यक्रम (आरएसडीपी) के तहत कुछ "सीमित सहायता" देने के अलावा, भारत "कुछ खास नहीं कर रहा है.

रोहिंग्या शरणार्थी इतनी खतरनाक यात्रा क्यों कर रहे हैं?

रोहिंग्या एक मुस्लिम जातीय समूह है, जो बौद्ध बहुल म्यांमार से आते हैं. हालांकि, देश उन्हें एक आधिकारिक जातीय समूह के रूप में मान्यता नहीं देता है.

दशकों के उत्पीड़न के बाद, 2017 में म्यांमार की सेना ने कथित तौर पर दर्जनों रोहिंग्या गांवों को जला दिया. निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर अंधाधुंध गोलियां चलाईं. UNHCR ने सितंबर 2017 में इसे "जातीय सफाई का उदाहरण" बताया.

रोहिंग्या भाग गए और उन्हें पड़ोसी देश बांग्लादेश में शरण मिली. लेकिन शरणार्थी शिविर, जैसे कि कॉक्स बाजार में, घनी आबादी वाले हो गए हैं, जहां करीब दस लाख शरणार्थी रह रहे हैं.

चौधरी ने क्विंट को बताया, "शिविरों में साफ-सफाई और चिकित्सा सुविधाओं की कमी है, साथ ही अगर मौसम खराब हुआ, जैसे चक्रवात आ जाए तो बचाव की सुविधा नहीं रहती है. अपराध बढ़ रहा है, जिससे शरणार्थियों में असुरक्षा और निराशा पैदा हो रही है.”

उन्होंने दावा किया कि अधिकांश शिविरों पर "बांग्लादेशी अधिकारी कड़ी निगरानी रखते हैं जिससे रोहिंग्याओं के लिए बाहर निकलना और रोजी रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो जाता है." बांग्लादेश के कुतुपालोंग शरणार्थी शिविर में रहने वाले रोहिंग्या शरणार्थी रेजुवान खान, जिनकी बहन और भतीजी नाव पर थीं, ने क्विंट को बताया था:

"हम जानते हैं कि यात्रा जोखिमों से भरी है लेकिन यहां हमें शिक्षा या काम करने का कोई अधिकार नहीं है. यही कारण है कि लोग इतना बड़ा जोखिम उठा रहे हैं और पलायन कर रहे हैं.. उम्मीद है कि कोई देश हमें शरण देगा."

उन्होंने कहा कि “शिविर में, हमारे साथ मनुष्यों जैसा व्यवहार नहीं होता है. अधिकांश शरणार्थी पलायन के लिए बेताब हैं. हमें शिविरों में शारीरिक और भावनात्मक रूप से प्रताड़ित किया जाता है, कभी विद्रोहियों से, कभी किसी और से.

रेजुवान खान और उनका परिवार पांच साल पहले म्यांमार से बांग्लादेश आया था. वो बताते हैं , "जब हम शिविर में पहुंचे, तो हमें उम्मीद थी कि किसी दिन हमें वापस भेज दिया जाएगा लेकिन पिछले साल म्यांमार जुंटा के तख्तापलट के बाद, हमने सारी उम्मीद खो दी है. हम पांच साल से ऐसी जिंदगी जी रहे हैं, इसलिए हर कोई पलायन करना चाहता है.

अंगशुमन चौधरी ने कहा कि "शरणार्थियों और मेजबान समुदाय के बीच कॉक्स बाजार में तनाव बढ़ रहा है. बाद में स्थानीय संसाधनों की तेजी से कमी और व्यापक वनों की कटाई के लिए रोहिंग्या को दोषी ठहराया गया है."

चौधरी के शोध ने दिखाया है कि, समय के साथ, कई शरणार्थियों को ‘भाशान चार’ में ले जाया गया है, जो दक्षिणी तट से दूर एक अलग, ड्रेज-अप द्वीप है, जहां शरणार्थी किसी कैदखाने की तरह रहने के लिए मजबूर हैं.

बर्मा के मानवाधिकार कार्यकर्ता और (नरसंहार) डॉक्यूमेंटेशन सेंटर, कंबोडिया के एक शोध साथी डॉ मौंग ज़र्नी ने अलजज़ीरा के साथ एक इंटरव्यू में कहा कि,

"वे (रोहिंग्या शरणार्थी) गरीबी से नहीं भाग रहे हैं, वे दूसरी उत्पीड़न से भाग रहे हैं. बांग्लादेश में, उन्हें शरणार्थी के रूप में भी संबोधित नहीं किया जाता है क्योंकि बांग्लादेश को डर है कि उन्हें मान्यता देने से उन्हें शरणार्थी अधिकार देना अनिवार्य हो जाएगा. इसलिए उन्हें सरकार 'जबरन विस्थापित लोगों' के रूप में बताती है जो (2017 या उससे पहले भागे).
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रोहिंग्या के पास विकल्प क्या ?

अक्सर यह पूछा जाता है कि रोहिंग्या शरणार्थी बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी वाले देशों में क्यों नहीं जा सकते. इस बारे में अंगशुमन चौधरी ने कहा, 'वे इस्लामिक देशों में जाते हैं, मलेशिया और बांग्लादेश इस्लामिक देश हैं... एक देश का बहुसंख्यक धर्म हमेशा एक रोहिंग्या शरणार्थी के लिए प्राइमरी फैक्टर नहीं होता है जो शरण लेने के लिए कहीं जाना चाहते हैं.

उन्होंने कहा कि एक रोहिंग्या शरणार्थी - किसी भी अन्य शरणार्थी की तरह - किसी भी देश में जाएगा जहां वे सम्मान, सुरक्षा और कुछ हद तक कानूनी सुरक्षा के साथ रह सकते हैं.

उन्होंने कहा, “वास्तव में, सऊदी अरब और मलेशिया के दो प्रमुख उदाहरण होने के साथ, कई इस्लामी देश अपनी शरण और निर्वासन नीतियों में रोहिंग्या शरणार्थियों के साथ भेदभाव करते हैं. इसलिए, जब शरणार्थियों के एक विशेष समूह की मेजबानी करने वाले देश की बात आती है, तो धर्म आवश्यक रूप से रचनात्मक भूमिका नहीं निभा सकता है."

इस बीच, सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट गोंजाल्विस ने कहा कि रोहिंग्या शरणार्थी कहां जा सकते हैं या कहां नहीं , यह कोई सवाल ही नहीं है. "उन्होंने एक फैसला किया. उनकी नाव भारतीय जल सीमा में प्रवेश कर गई, इसलिए एकमात्र सवाल भारत सरकार के कानूनी और संवैधानिक दायित्व का है... समय-समय पर, हमारे कानून मंत्री इस पर बयान देंगे कि वे उन्हें कैसे निर्वासित करना चाहते हैं. लेकिन भारत के संविधान का अनुच्छेद 21 – राइट टू लाइफ न केवल भारतीय नागरिकों के लिए है, बल्कि यह भारत की सीमाओं के भीतर रहने वाले हर शख्स पर लागू होता है.

इस बीच, 21 दिसंबर को, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 74 वर्षों में म्यांमार पर पहली बार अपना प्रस्ताव लाया. इसमें हिंसा को समाप्त करने की मांग की गई. इसमें म्यांमार के सैन्य जुंटा से अपदस्थ नेता आंग सान सू की सहित सभी राजनीतिक कैदियों को रिहा करने का आग्रह किया गया.

चीन और रूस ने कड़ी कार्रवाई के खिलाफ तर्क दिया. बुधवार को जब वोटिंग हुई तो, दोनों देशों ने उसमें हिस्सा नहीं लिया. भारत समेत शेष 12 सदस्यों ने पक्ष में मतदान किया.

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