महाराष्ट्र में अजित पवार के समर्थन के बाद देवेंद्र फडणवीस ने सीएम पद की शपथ ले ली. अजित पवार के पास एनसीपी के कितने विधायकों का समर्थन है यह तो पता नहीं लेकिन उनके चाचा और एनसीपी चीफ शरद पवार ने कहा कि बीजेपी का समर्थन करने वाले विधायकों को पता होना चाहिए कि उनके खिलाफ दलबदल विरोधी कानून में कार्रवाई हो सकती है. आइए जानते हैं क्या है दलबदल विरोधी कानून. किन हालातों में यह लाया गया और अब तक यह कानून दलबदल को रोकने में किस हद तक कामयाब रहा है.
दलबदल रोकने की दिशा में कब उठा पहला कदम ?
दलबदल रोकने के लिए कानून बनाने की पहली पहल 1967 में में हुई थी जब केंद्र में तो कांग्रेस की सरकार बन गई थी लेकिन सात राज्यों में वह हार गई थी. इनमें से अधिकतर में कांग्रेस के विधायक दूसरे दलों में चले गए थे. उस दौरान यह कहा गया था कि विधायकों को मंत्री पद का लालच दिए जाने की वजह इसे बढ़ावा मिल रहा है. इसलिए इसके खिलाफ प्रावधान किए जाएं. दलबदल की समस्या की पड़ताल के लिए वाई बी चह्वाण पैनल बना था. इस पैनल की रिपोर्ट के बाद 1973 में उमाशंकर दीक्षित (इंदिरा सरकार) और फिर 1978 में शांति भूषण (मोरारजी देसाई सरकार) की अगुआई में इस समस्या को खत्म करने के कदम उठाए गए. लेकिन दोनों कोशिश नाकाम रही.
कब बना दलबदल विरोधी कानून ?
आखिरकार साल 1985 में राजीव गांधी सरकार संविधान में संशोधन करने और दलबदल पर रोक लगाने के लिए एक बिल लाई और 1 मार्च 1985 को यह लागू हो गया. संविधान की 10वीं अनुसूची, जिसमें दलबदल विरोधी कानून शामिल है, को इस संशोधन के जरिये संविधान में जोड़ा गया.
- अगर विधायकों या सांसदों ने व्हिप के खिलाफ वोट दिया और संसद से बाहर बयान तो उनकी सीट चली जाएगी
- अगर विधायकों ने एक तिहाई सदस्यों के साथ पार्टी में विभाजन किया तो उनकी विधायकी नहीं जाएगी. लेकिन किसी दूसरी पार्टी में विलय की स्थिति में विधायकी तब नहीं जाएगी जब दो तिहाई सदस्यों के साथ यह कदम उठाया गया हो.
- संसद या विधानसभा में दलबदल की कार्यवाही के मामले में संबंधित अध्यक्ष का फैसला अंतिम होगा.
दलबदल मामले में स्पीकर की भूमिका पर सवाल
इन संशोधनों की संसद में आलोचना हुई. कहा गया कि इससे विधायक और संसद सदस्यों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कम हो जाएगी. साथ ही इससे स्पीकर के पद पर भी असर पड़ेगा. लेकिन आखिरकार राजीव गांधी के कार्यकाल में यह बिल पास हो गया.
लेकिन इस कानून को ठीक इसके बाद ही इसे कसौटी पर कसने की नौबत आ गई जब वीपी सिंह और चंद्रशेखर दोनों सरकारों को दलबदल की समस्या का सामना करना पड़ा. इस कानून के बाद सदन के अध्यक्ष के पद के काफी राजनीतिकरण की संभावना पैदा हो गई थी.
फिर इस मामले को अदालत में ले जाया गया और वहां पूछा गया कि संसद और विधानसभा के बाहर सांसद और विधायकों का कैसा आचरण उन्हें दल बदल के दायरे में नहीं रखेगा. दलबदल हुआ है या नहीं यह तय करने का अधिकार किस हद तक स्पीकर को दिया जाएगा. सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में स्पीकर को सबसे ऊपर रखा. हालांकि यह भी कहा कि स्पीकर के फैसले की न्यायिक समीक्षा हो सकती है.
2003 के संशोधन में क्या हुआ?
दलबदल विरोधी कानून में आखिरी संशोधन 2003 में किया गया.अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने इसकी समीक्षा के लिए एक बिल पारित किया. कमेटी बनाई गई और इसके चीफ प्रणब मुखर्जी बनाए गए. इसमें एक तिहाई सदस्यों के साथ पार्टी के विभाजन करवाने वालों को संरक्षण देने का प्रावधान खत्म कर दिया गया. साथ ही यह 1967 में वाईबी चह्वाण की गई सिफारिश को शामिल कर लिया गया, जिसमें कहा गया था कि मंत्री परिषद का आकार सीमित किया जाए. साथ ही यह व्यवस्था भी शामिल की गई कि दलबदल करने वाला विधायक या सांसद दोबारा चुने जाने पर ही मंत्री बने. हालांकि अब तक यह देखने में आया है कि इन संशोधनों का दलबदल पर कोई बड़ा असर नहीं दिखा है.
अब क्या हो रहा है?
एक तिहाई सदस्यों के साथ विभाजन करने वालों को संरक्षण वाले प्रावधान को खत्म किए जाने से राजनीतिक दलों ने बड़ी संख्या में दलबदल करने को प्रोत्साहित करना शुरू किया. मंत्री पद से महरूम होने से बचने के लिए विधायकों और सांसदों ने सदन की सदस्यता से त्याग पत्र देना शुरू किया. खुद को अयोग्य घोषित होने से बचाने के लिए उन्होंने त्यागपत्र का कदम उठाना शुरू किया. इसके साथ ही संसद और विधानसभा स्पीकर्स ने राजनीतिक मामलों में दिलचस्पी लेना शुरू कर दिया और सरकारें बनाने और गिराने लगे.
दल बदल विरोधी कानून में स्पीकर के लिए इसकी प्रक्रिया शुरू करने के लिए कोई टाइमफ्रेम निर्धारित नहीं है. राजनीतिक स्थिति को देखते हुए स्पीकर्स ने या तो दलबदल के मामले में तुरंत फैसला दिया फिर मामलों को लटकाया रखा. कर्नाटक में पिछले दिनों जो हुआ उससे साफ है कि तीन दशकों के बाद भी दलबदल विरोधी कानून, दलबदल रोकने में नाकाम रहा है.
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