(दुख की बात है कि भारत इस समय कैंसर के मामलों में होने वाली संभावित वृद्धि का सामना करने के लिए तैयार नहीं है. इस समय सबसे बड़ी जरूरत है कैंसर स्पेशलिस्ट्स की और मौजूदा ढांचे में बेहतर इलाज के विकल्प पैदा करने की. हमारा ध्यान अगर आर्थिक विकास पर है, तो स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ाना भी हमारी प्राथमिकता होना चाहिए. इस विश्व कैंसर दिवस पर हम उम्मीद करते हैं कि सरकार इन सब जरूरी बातों पर ध्यान देगी.)
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, वर्ष 2025 के अंत तक भारत में कैंसर रोगियों की संख्या 5 गुनी हो जाएगी, जिसमें महिलाओं की संख्या पुरुषों से कहीं ज्यादा होगी.
यही नहीं, इस समय देशभर में 1 करोड़ से ज्यादा कैंसर रोगियों की देखभाल के लिए सिर्फ 2000 कैंसर स्पेशलिस्ट हैं.
देश की स्वास्थ्य सेवाएं पहले ही बुरी अवस्था में हैं, यह बात किसी से छुपी हुई नहीं है. बॉलीवुड को अगर हम समाज का आईना मानें, तो ‘वेलकम’ (2007) फिल्म का डायलॉग, “सरकारी हॉस्पिटल की टूटी हुई बेंच” हमारे सरकारी ढांचे की सही तस्वीर दिखा देता है. भारतीय नागरिकों को तीन ही चीजों से सबसे ज्यादा डर लगता है: पुलिस स्टेशन, कोर्ट और सरकारी अस्पताल.
सरकारी स्वास्थ्य सेवा के ढांचे के इलाज के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने एम्स स्तर के 20 नए कैंसर ट्रीटमेंट सेंटर शुरू करने की घोषणा की. पर कैंसर अस्पताल कोई बेकरी आइटम नहीं कि जब मर्जी हुई, नया बना दिया.
और फिर हमें जरूरत सिर्फ स्पेशलाइज्ड इमारतों की नहीं, स्पेशलाइज्ड डॉक्टर्स की है. क्या एम्स जैसे अन्य अस्पताल इस समस्या का समाधान हो सकते हैं? इस सवाल को उठाने के पीछे कई वजहेें हैं.
भारत में 1 करोड़ कैंसर मरीजों के इलाज के लिए सिर्फ 2000 कैंसर डॉक्टर्स
आपको जानकर आश्चर्य होगा कि हर साल भारत में सिर्फ एक नया गाइनेकोलॉजिकल ओंकोलॉजिस्ट (स्त्रियों में होने वाले कैंसर का विशेषज्ञ डॉक्टर) तैयार होता है. इस ब्रांच के डॉक्टर गर्भाशय, ओवरी या योनि में होने वाले कैंसर का इलाज करते हैं.
इसी तरह सिर्फ 4 पीडियाट्रिक ओंकोलॉजिस्ट और 6 ब्लड कैंसर स्पेशलिस्ट भारत के मेडिकल कॉलेजों से निकलते हैं.
अगर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों की मानें, तो वर्ष 2020 तक कैंसर के मामलों में 20 प्रतिशत तक की वृद्धि की आशंका है. ऐसे में स्थिति और खराब हो जाएगी.
भारत में डॉक्टर-पेशेंट अनुपात जल्दी कम होता नजर नहीं आता. इसे कम करना तभी संभव है, जब बड़े स्तर पर इसके लिए कदम उठाए जाएं और मेडिकल कॉलेजों में सीटों को बढ़ाया जाए. कैंसर कोई एक बीमारी नहीं है. यह 200 से ज्यादा बीमारियों का समूह है और इस तरह की सुपरस्पेशलिटी के लिए हमारे पास बेहद कम सीटें हैं.
देश में प्रति 10,000 लोगों पर 9 हॉस्पिटल बेड हैं और यहां भी पैरामेडिकल स्टाफ और लैब टेक्नीशियन आदि की भारी कमी है. भारत अपनी जीडीपी का एक फीसदी से भी कम हिस्सा स्वास्थ्य सेवा पर खर्च करता है.
नए अस्पतालों के लिए सबसे बड़ी चुनौती है मानव संसाधन की भारी कमी, खास तौर पर जूनियर और सीनियर रेजिडेंट्स की.
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार देश के 300 से ज्यादा कैंसर अस्पतालों में से 40 फीसदी में जरूरी सुविधाओं और उपकरणों की भारी कमी है. बीमार होती जनसंख्या के लिए देश को इस दशक के आखिर तक करीब 600 नए कैंसर स्पेशलिटी अस्पतालों की जरूरत होगी. वर्ष 2006 में एम्स जैसे 6 नए इंस्टीट्यूट शुरू करने की घोषणा की गई थी, जिनमें बड़े स्तर पर कैंसर वॉर्ड बनाए जाने थे. ये इंस्टीट्यूट 2011 में शुरू हुए और दिल्ली स्थित एम्स जैसी तनख्वाह दिए जाने के बावजूद यहां फैकल्टी की मात्र एक-चौथाई सीटें ही भर सकी हैं. पैरामेडिकल स्टाफ की हालत और भी खराब है.
एम्स रायपुर में 305 फैकल्टी की सीटें होने के बावजूद सिर्फ 64 ही भरी जा सकी हैं. 18,00 नर्सिंग की जगहों में से यहां सिर्फ 200 नर्सें हैं, जो कि कॉन्ट्रैक्ट पर काम कर रही हैं. इसी तरह भुवनेश्वर में खुले एम्स में सिर्फ 68 फैकल्टी हैं.
चुनौती अस्पतालों से आगे की है
आम राय के विपरीत, भारत में स्वास्थ्य सेवा की स्थिति खुद अभी ICU में है, जिसकी वजह सिर्फ डॉक्टर्स की कमी नहीं, डॉक्टर्स का भ्रष्ट होना और अस्पतालों का बुरी स्थिति में होना भी है.
1) पिछले साल टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल की एक स्टडी में सामने आया कि 2014 में अस्पतालों से डिस्चार्ज किए जाने वाले कैंसर रोगियों में से 30 फीसदी की मौत सिर्फ इसलिए हुई, क्योंकि उन्हें ऑपरेशन के बाद अस्पताल की सही सुविधाएं नहीं मिलीं.
2) हम बीमारी की रोकथाम के उपायों पर ध्यान देने की बजाय सारा ध्यान इलाज के लिए दी जाने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं पर लगाते हैं. अगर रोकथाम पर ध्यान दिया जाएगा, तो देश में न्यूट्रीशन की स्थिति भी बेहतर होगी.
3) दुर्भाग्य से हमारे गावों में सेलफोन तो पहुंच गए हैं, पर स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं पहुंची हैं. अगर डॉक्टर्स की कमी एक समस्या है, तो गांवों में काम करने की उनकी अनिच्छा दूसरी समस्या, जिससे एक क्षेत्र में कृत्रिम कमी पैदा हो जाती है और दूसरे क्षेत्र में डॉक्टर्स की सघनता.
कहा जाता है कि “सर सलामत, तो पगड़ी हजार.” इसका अर्थ पहले आधारभूत समस्या का समाधान जरूरी है, अन्य सुविधाएं बाद में भी जुटाई जा सकती हैं.
हमारे नीति निर्माताओं को भी इस कहावत से सीख लेनी चाहिए. शायद “मेक इन इंडिया” के साथ-साथ प्रधानमंत्री को “ट्रीट इन इंडिया” के बारे में भी सोचना चाहिए. स्वास्थ्य में निवेश का सीधा असर देश के विकास पर भी देखने को मिलेगा. सरकार भी तो विकास का नारा लेकर ही तो आगे बढ़ने की बात करती नजर आ रही है.
डॉक्टर-पेशेंट रेशियो में भारी अंतर, मेडिकल कॉलेजों में कम सीट्स के साथ हम देश में बढ़ते कैंसर के मामलों का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं.
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