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परफेक्ट बॉडी एक सपना है, पर बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर हकीकत है

क्या अच्छा दिखने की ख्वाहिश भी एक विकार बन सकती है?

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ये सच है कि शरीर का अच्छा दिखना एक बड़ा मसला है, हम सब अपने शरीर के रंग-रूप को लेकर बहुत चिंतित और नाखुश रहते हैं और इसकी कोई भी वजह हो सकती है. हमारा वजन, हमारी लंबी नाक, उबड़-खाबड़ दांत या फिर चेहरे पर कोई निशान या धब्बा.

लेकिन क्या हो अगर नाखुशी का यह एहसास किसी डिसऑर्डर का रूप ले ले? क्या हो अगर अपने लुक को सुधारने की कोशिश आपको तन्हा कर दे? आप उस वक्त क्या करेंगे, जब खुद पर दया करना आपकी आदत में शामिल हो जाए.

कौन सी चीज लोगों को अकेलेपन की ओर ले जाती है? शर्म, आत्म-ग्लानि, घृणा और “परफेक्ट” बनने की ऐसी इच्छा, जो कभी मुमकिन नहीं है.
बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर पर अगर समय रहते ध्यान ना दिया जाए, तो ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (जुनूनी बाध्यकारी विकार), एन्जाइटी (घबराहट) और डिप्रेशन (अवसाद) में बदल सकता है. कुछ मामलों में, यह रोगी में ईटिंग डिसऑर्डर को जन्म दे सकता है, जो उनके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर विनाशकारी असर डाल सकता है.
डॉ. मधुमती सिंह, वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक

संकेतों को पहचानें

  • आप जैसे दिखते हैं, उसका बहुत ज्यादा विश्लेषण
  • किसी एक खामी को पकड़ लेना और उसके प्रति शिकायती हो जाना
  • लगातार आइने को निहारना या आइना देखना एकदम छोड़ देना
  • दूसरों से अपने को सही ठहराया जाना और यकीन दिलाने की अपेक्षा
  • करेक्टिव कॉस्मेटिक सर्जरी कराना
  • सामाजिक मेलजोल से बचना
  • अपने शरीर पर शर्मिंदा होना और खुद को चोट पहुंचाना
  • शर्म, घृणा, घबराहट से परेशान होना

आप अपने बारे में कैसे जानेंगे कि आप सिर्फ अपने लुक से नाखुश हैं या फिर बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर से पीड़ित हैं?

मनोविज्ञानी और दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. इतिशा नागर कहती हैं, बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर पीड़ित को बुरी तरह परेशान कर देता है, इसलिए इसका पता लगाना आसान हो जाता है.

जिस पल अपने दिखने के बारे में आपके विचार आपकी दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों में दखल देना शुरू करते हैं और दूसरों को परेशान करना शुरू करते हैं, तो उस वक्त आपको ठहर कर सोचने की आवश्यकता होती है.

वह कहती हैं कि बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर के रोगी अपने लुक को लेकर दिन में कई-कई घंटे खर्च कर सकते हैं- अपने धब्बे की फिक्र करते हुए, क्रीम लगाते हुए और कुछ अतिवादी मामलों में कई करेक्टिव सर्जरी कराने में.

बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर और आपके अपने शरीर के साथ आम असंतोष में जो चीज अंतर करती है वह है- असामान्य व्यवहार.

पॉपुलर कल्चर, सोशल मीडिया इसे और खराब बनाता है

FIT ने बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर का सामना करने वाली एक महिला से बात की, जिसने नाम गुप्त रखने की शर्त पर अपनी कठोर अग्निपरीक्षा का अनुभव साझा किया.

मैं अपने आसपास की महिलाओं को देखती रहती थी- उनके हाथ, होंठ, स्तन और उनकी फिर अपने शरीर के साथ तुलना करती. मैं दुखी महसूस करती, कभी-कभी आत्मघाती. मैं संघर्ष कर रही थी... गहरी निराशा भरा एहसास था.

भरे होंठ, सीधे बाल, जांघों का अंतर वगैरह की ख्वाहिश काफी हद तक पॉपुलर कल्चर से प्रभावित है. सिनेमा की चमक-दमक और ग्लैमर, मैगजीन के कवर पर छपा खूबसूरत तराशा बदन और सोशल मीडिया, ये सभी परफेक्ट ना होने की इस भावना में योगदान देते हैं. यही वह कारण है, जिससे अरबों रुपये की ब्यूटी इंडस्ट्री फल-फूल रही है.

इस बुराई में सोशल मीडिया का बड़ा योगदान है. जब हम अपने जैसे लोगों- दोस्त, परिवार और सहयोगी को देखते हैं- वो सबसे अच्छे कपड़े पहनते हैं, लोगों का ध्यान खींचते हैं और बेदाग दिखते हैं; हम भी ‘मैं पीछे छूट ना जाऊं (FOMO)’ की भागमभाग में शामिल हो जाते हैं.

बहुत छोटा या बहुत लंबा या बहुत बड़ा होने का यह एहसास वर्षों की कंडिशनिंग और पितृसत्ता से दिमाग में भरा गया है- एक दोधारी तलवार, जो पुरुषों और महिलाओं दोनों पर वार करती है. हम अनजाने में और बे ख्याली में लोगों को आदर्श मान लेते हैं और उनके जैसा अच्छा नहीं होने के लिए खुद को कोसते हैं.

हममें से ज्यादातर के मामले में ऐसा हो सकता है, यहां तक कि फिटनेस के दीवानों और ईर्ष्या के लायक शरीर वाले लोगों के साथ भी हो सकता है. याद करें कि इलियानाडी'क्रूज ने बॉडी डिस्मॉर्फिक डिजीज के बारे में क्या कहा था?

खूबसूरती को देखने का हमारा नजरिया गलत है

क्या आपको लगता है कि आप जिस मॉडल को देखते हैं वह बेदाग है? हीरोइनों और मॉडल्स को डार्क सर्कल, स्ट्रेच मार्क और झुर्रियों के निशान नहीं होते?

इस खूबसूरती के भ्रम को बनाए रखने के लिए फोटोशॉप, मेकअप, लाइटिंग और टेक्नोलॉजी की मदद ली जाती है, जिससे हम अपने आप को धोखे में बनाए रखते हैं.

इन अवास्तविक पैमाने से खुद को परखने से निश्चित रूप से दुख और निराशा ही मिलेगी.

कॉरपोरेट और पितृसत्तात्मक ढांचे की परतों ने हमारे मन में सुंदरता के उन आदर्श विचारों को ठूंसा है, जो वास्तविकता में मौजूद ही नहीं हैं. बेदाग त्वचा और छरहरा बदन पाने की ख्वाहिश कभी ना खत्म होने वाले इस खतरनाक जुनून को पैदा कर रहा है और पाल-पोस रहा है.
डॉ. इतिशा नागर, मनोविज्ञानी और दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर

सुंदरता की हमारी धारणा त्रुटिपूर्ण है. हमारी धारणाएं गलत हैं. अपूर्णता के लिए हमारा तिरस्कार निर्मित किया हुआ है.

बॉलीवुड स्टार फैशन आइकन सोनम कपूर ने भी बीते साल बजफीड इंडिया के लिए “आई डिडनॉट वेक अप लाइक इट” नाम के अपने ब्लॉग पोस्ट में इसके बारे में बताया था.

एक महिला सेलिब्रिटी को आप जिस रूप में देखते हैं, उसके लिए भारी फौज, ढेर सारा पैसा, और बहुत ज्यादा वक्त लगता है. यह यथार्थवादी नहीं है, और इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसकी आप ख्वाहिश करें.

किसी को भी हो सकता है बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर

मैं कहूंगी कि अनुपात 50-50 है. पुरुषों की शरीर की खामियां भी उतनी ही ठीक कराई जाती हैं जितनी महिलाओं की. समतल पेट और तराशे हुए शरीर की ख्वाहिश लगभग हर जगह है.
डॉ. मधुमती सिंह, वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक

इससे निजात पाएं, मदद लें

बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर अपरिवर्तनीय नहीं है. लेकिन खुद इलाज करने से बचें. सही मदद हासिल करें और इससे निजात पाएं.

निश्चित रूप से ग्रूमिंग कुछ मामलों में मददगार होती है. इसके साथ ही दवाएं लेना, काउंसलिंग और मनोचिकित्सा का रास्ता भी है. 
डॉ. इतिशा नागर, मनोविज्ञानी और दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर

एक मनोवैज्ञानिक मुख्य रूप से रोगी के असामान्य विचारों को समझने के लिए काम करता है, कुछ समय तक उनकी निगरानी करता है और इलाज से उनकी समस्या को ठीक करने में मदद करता है.

बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर के खिलाफ कॉग्निटिव बिहेवियर थेरेपी प्रभावी है. फिर सॉल्यूशन-फोकस थेरेपी, साइकोडायनमिक थेरेपी, मनोविश्लेषण और बहुत कुछ है.
सुधा शाश्वती, रिसर्च स्कॉलर, मनोवैज्ञानिक और पूर्व असिस्टेंट प्रोफेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
थेरेपी के बारे में सोचने से पहले, मैं उन लोगों से मिलने का सुझाव दूंगी जिन पर आप भरोसा करते हैं- दोस्त,परिवार, सहयोगी. संकट के समय में मदद के लिए एक सपोर्ट प्रणाली कायम रखना जरूरी है.
डॉ. मधुमती सिंह, वरिष्ठ मनोवैज्ञानिक

वह कहती हैं, “सकारात्मक बातों पर ध्यान केंद्रित करना आत्म-सम्मान को ऊंचा उठाने में काफी मददगार होता है, जिसे बीडीडी (बिहेवियर-ड्रिवेन डेवलपमेंट) से पीड़ित होने पर भारी चोट लगती है.”

मदद हासिल करना एक पहलू है, लेकिन हमारा अंतिम मकसद रवैये में बदलाव होना चाहिए. डॉ. इतिशा के मुताबिक, हमें अपनी असुरक्षाओं से निजात पाने के लिए सुरक्षित स्थान बनाने की जरूरत है.

अपनी समस्याओं के बारे में बात करना रिकवरी का पहला कदम है. यह जानना कि कैदखाने में आप अकेले नहीं हैं, ये आश्वासन देता है.
डॉ. इतिशा नागर, मनोविज्ञानी और दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर

कुछ असुरक्षाओं को पोषित करने में माता-पिता महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लापरवाही से की गई टिप्पणियां जैसे कि, “किट्टी काली है, इससे कौन शादी करेगा?”, “मोटी हो गई”, “तैराकी मत करो, रंग काला हो जाएगा", एक बच्चे के मनोविज्ञान पर अमिट छाप छोड़ देते हैं.

हमें एक समय में एक स्टीरियोटाइप तोड़ने की जरूरत है

इस विचार को त्याग देना चाहिए कि एक महिला की योग्यता उसका यौनाकर्षण है. शारीरिक आकर्षण किसी महिला या पुरुष की योग्यता तय करने वाला नहीं होना चाहिए. सौंदर्य के मानक जड़ नहीं हो सकते हैं. शारीरिक विविधता को समझने की जरूरत है.

सुंदरता और आकर्षण के बारे में सदियों पुराने स्टीरियोटाइप को तोड़ने में मीडिया को सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए.
डॉ. इतिशा नागर, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर और मनोविज्ञानी

बॉडी डिस्मॉर्फिक डिसऑर्डर से रिकवरी सिर्फ थेरेपी के माध्यम से नहीं हो सकती है. इसके लिए रवैये में भारी बदलाव की जरूरत है और यह एक चुनौती है जिसका हमें समाज के रूप में सामूहिक रूप से सामना करना है.

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