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लखनऊ KGMU: Vaccine लेने के बाद भी नहीं बनी एंटीबॉडी,ये सामान्य है?

Covid Vaccine: कोरोना वैक्सीन लेने के बाद एंटीबॉडी बनना जरूरी है?

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उत्तर प्रदेश के लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज(KGMU) के 10% हेल्थकेयर वर्कर्स में वैक्सीन लगने के बाद भी एंटीबॉडी नहीं बनने की खबरें आई हैं. क्या ये चिंता का विषय है?

कुछ न्यूज रिपोर्ट्स में ऐसा दावा किया गया कि KGMU के ब्लड एंड ट्रांसफ्यूजन डिपार्टमेंट में स्क्रीनिंग टेस्ट में कई हेल्थकेयर वर्कर्स में वैक्सीन के 2 डोज लगने के बाद भी एंटीबॉडी नहीं बनी.

इस स्टडी के बारे में विस्तार से समझने के लिए फिट ने KGMU में ब्लड एंड ट्रांसफ्यूजन डिपार्टमेंट की हेड तूलिका चंद्रा से बातचीत की.

उन्होंने बताया कि करीब 20 दिन से ये टेस्ट वाइस चांसलर डॉ बिपिन पुरी की देखरेख में ब्लड एंड ट्रांसफ्यूजन डिपार्टमेंट की ओर से की जा रही है. KGMU के 4000 हेल्थकेयर वर्कर पर स्टडी का टारगेट रखा गया है, इसलिए ये आगे जारी रहेगा. फिलहाल, 1000 लोगों का टेस्ट किया गया है जिससे ये संकेत मिले हैं-

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“90% हेल्थकेयर वर्कर्स ने एंटीबॉडी विकसित कर ली हैं, इसलिए हम आसानी से हर्ड इम्युनिटी की ओर जा सकते हैं अगर सभी को वैक्सीन लगाई जाए. कई लोग जो कोविड संक्रमित नहीं हुए थे और सिर्फ वैक्सीनेशन कराई, उनमें एंटीबॉडी का एक बड़ा प्रतिशत दिखाई दिया है जो एक अच्छा संकेत है.”
डॉ तूलिका चंद्रा

उन्होंने ये भी साफ किया कि 10% में एंटीबॉडी न बनना चिंता का संकेत नहीं माना जा सकता, क्योंकि इसके पीछे अलग-अलग वजहें हैं. भारत में वैक्सीन की एफिकेसी 70% से 80% तक है. KGMU की स्टडी के परिणाम बेहतर हैं क्योंकि करीब 90% हेल्थकेयर वर्कर्स में एंटीबॉडी बनी. यानी अगर वैक्सीनेशन पूरी आबादी में की जाए तो कोरोना इंफेक्शन के चेन को तोड़ा जा सकता है.

“निगेटिव एंटीबॉडी सैंपल में 14 (1.4%) लोगों ने वैक्सीन की सिंगल डोज ली थी. 61 (6.1%) लोगों ने दोनों डोज ली थी. 25 (2.5%) ऐसे लोग थे जिन्हें अबतक वैक्सीन नहीं लगी है. वहीं, 9 (0.9%) ऐसे लोग थे जो पिछले 4 महीने में कोविड पॉजिटिव आए थे और 11 (1.1%) वैसे लोग थे जो 4 महीने से पहले कोविड पॉजिटिव थे. ये शुरुआती ऑब्जर्वेशन हैं. एंटीबॉडी पॉजिटिव होने की अधिकतम संभावना हाल ही में कोविड पॉजिटिव होन वाले लोगों में थी. सैंपल साइज पूरा कर लेने पर डिटेल एनालिसिस की जाएगी.”
डॉ तूलिका चंद्रा

इस स्टडी के लिए अलाइजा (ELISA) और केमील्यूमेनिसेंस(chemiluminescence) तकनीक का इस्तेमाल किया गया.

एंटीबॉडी टेस्ट से क्या पता चलता है?

फिट ने पहले एंटीबॉडी पर एक विस्तृत लेख में वायरोलॉजिस्ट डॉ. शाहिद जमील से बातचीत की थी.

डॉ. शाहिद जमील इसे समझाते हैं-

“चाहे हमें बीमारी हुई हो या न हुई हो, अगर हमारा एंटीबॉडी टेस्ट पॉजिटिव आता है तो हमें ये पता चलता है कि हम वायरस के संपर्क में आए हैं या नहीं. वायरस से एक्सपोज होने पर हमारा शरीर प्रतिक्रिया के तौर पर एंटीबॉडी तैयार करता है.”

किसी व्यक्ति के ब्लड का सैंपल लेकर एंटीबॉडी टेस्ट या सीरोलॉजिकल (सीरम से संबंधित) टेस्ट किए जाते हैं. हमारा इम्यून सिस्टम (प्रतिरक्षा प्रणाली) बॉडी में वायरस को बेअसर करने के लिए एंटीबॉडी प्रोड्यूस करता है. वायरस से होने वाला इन्फेक्शन पूरी तरह से खत्म हो जाने के बाद भी ये एंटीबॉडी शरीर में कुछ समय तक मौजूद रहते हैं. इससे डॉक्टरों को ये पहचानने में मदद मिलती है कि मरीज पहले संक्रमित था या नहीं.

वैक्सीन लेने के बाद भी शरीर में ऐसी ही प्रतिक्रिया होती है.

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क्या ये मुमकिन है कि वैक्सीन लेने के बाद एंटीबॉडी न बने?

आमतौर पर वैक्सीन की पहली डोज लेने के 28 दिन बाद अच्छी-खासी मात्रा में एंटीबॉडी तैयार होते हैं और वैक्सीन का कंप्लीट डोज लेने के बाद बीमारी से सुरक्षा मिल जाती है. गौर करने वाली बात ये है कि ये एंटीबॉडी बीमारी से बचाएंगे, इंफेक्शन से नहीं.

डॉ जमील कहते हैं कि ये दुर्लभ मामला होता है कि किसी ने वैक्सीन ली और एंटीबॉडी न बनाई हो. इसके पीछे जेनेटिक एब्नॉर्मैलिटी एक वजह हो सकती है.

लोगों में आम धारणा है कि वैक्सीन लेने के बाद अगर किसी ने खास मात्रा में एंटीबॉडी नहीं बनाई तो शायद उन्हें सुरक्षा न मिले जबकि ये जरूरी नहीं है.

एंटीबॉडी टेस्ट का एक थ्रेसहोल्ड होता है.

“खून में एंटीबॉडी को इंटरनेशनल यूनिट (IU) में मापा जाता है. इसकी रेंज 0 से 1000 होती है. आमतौर पर 10 IU प्रति मिलीलीटर को कट ऑफ माना जाता है. 10 और 1000 के बीच के स्तर को सुरक्षात्मक माना जाता है. हालांकि ये हमेशा सहसंबंधित(Correlate) नहीं हो सकता है. 10 से नीचे के काउंट वाले लोग भी सेल के जरिये मिलने वाली इम्युनिटी के माध्यम से बीमारी से बच सकते हैं जो एंटीबॉडी टेस्ट द्वारा नहीं मापा जाता है.”

वैक्सीन के दूसरे शॉट के बाद एवरेज काउंट 300 से 1000 तक आता है.

“300 एंटीबॉडी काउंट है, तो जरूरी नहीं कि वो 3 महीने बाद भी उतनी ही हों. सिर्फ एंटीबॉडी पैमाना नहीं होता, टी-सेल की भी जांच जरूरी है.”
डॉ. शाहिद जमील

कोविड-19 वैक्सीन पर केंद्र सरकार की टास्क फोर्स के अध्यक्ष और नीति आयोग के मेंबर डॉ वीके पॉल ने भी एक बयान में इस बारे में बताया था- "अकेले एंटीबॉडी किसी व्यक्ति की इम्यूनिटी का संकेत नहीं देते हैं क्योंकि जब हम वैक्सीन लेते हैं तो टी-सेल या मेमोरी सेल में कुछ बदलाव होते हैं, वे मजबूत होते हैं और रेजिस्टेंस पावर यानी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और टी-सेल के बारे में एंटीबॉडी टेस्ट से पता नहीं चलता है क्योंकि ये बोन मैरो में पाए जाते हैं."

डॉ जमील बताते हैं, सटीक संवेदनशीलता और विशिष्टता (पॉजिटिव और निगेटिव मामलों का पता लगाने में टेस्ट की सटीकता को इंगित करने के लिए मार्कर) इस पर निर्भर करेगा कि कौन से किट का इस्तेमाल किया जा रहा है.

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क्या ये टेस्ट वैक्सीन प्रभावकारिता (Efficacy) साबित करती है?

डॉ. शाहिद जमील का कहना है- "नहीं, वैक्सीन एफिकेसी सिर्फ ट्रायल के दौरान ही जांची जा सकती है और प्लेसिबो से तुलना कर की जाती है. एंटीबॉडी टेस्ट से एफिकेसी नहीं मापी जा सकती."

दिल्ली एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया भी इस बारे में बता चुके हैं- "ये समझना महत्वपूर्ण है कि हमें वैक्सीन एफिकेसी का आकलन सिर्फ एंटीबॉडी की मात्रा से नहीं करना चाहिए. वैक्सीन कई प्रकार की सुरक्षा देते हैं- जैसे एंटीबॉडी, सेल मेडियेटेड इम्यूनिटी और मेमोरी सेल(जो हमारे संक्रमित होने पर ज्यादा एंटीबॉडी पैदा करते हैं). इसके अलावा, अब तक जो एफिकेसी रिजल्ट आए हैं वे ट्रायल स्टडी पर आधारित हैं, जहां हरेक ट्रायल की स्टडी डिजाइन कुछ अलग है."

एंटीबॉडी टेस्ट को लेकर न हों कंफ्यूज!

डॉ जमील समझाते हैं- वायरस में 2 अलग-अलग तरह के प्रोटीन होते हैं- स्पाइक प्रोटीन(S Protein) और न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन(N Protein).

स्पाइक प्रोटीन वायरस की सतह पर होता है और न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन वायरस के अंदर होता है.

कोरोनावायरस के खिलाफ तैयार की गई ज्यादातर वैक्सीन स्पाइक प्रोटीन पर बनी हैं. भारत में इस्तेमाल की जा रही वैक्सीन कोविशील्ड स्पाइक प्रोटीन पर बनी है. इस वैक्सीन से एंटी स्पाइक एंटीबॉडी तैयार होगी.

वहीं कोवैक्सीन होल वायरस है, इसलिए उसमें न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन भी है. इसलिए कोवैक्सीन लगवाने पर न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन और स्पाइक प्रोटीन दोनों के खिलाफ एंटीबॉडी बनेगी.

लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि अगर न्यूक्लियोकैप्सिड एंटीबॉडी बन रही है तो आपको ज्यादा सुरक्षा मिलेगी. एंटीबॉडी सिर्फ वायरस के सतह को बाइंड करके ही न्यूट्रलाइज करती है. चूंकि न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन वायरस के सरफेस पर होती ही नहीं है तो न्यूक्लियोकैप्सिड एंटीबॉडी न्यूट्रलाइज किसे करेगी!

इसके अलावा न्यूट्रलाइजिंग एंटीबॉडी भी होते हैं जो वायरस को सेल से बाइंड करने से रोकते हैं. ये स्पाइक एंटीबॉडी का एक हिस्सा होते हैं. मान लीजिए आपके शरीर में स्पाइक एंटीबॉडी के 100 मॉलिक्यूल बनें तो उनमें 10 न्यूट्रलाइजिंग होंगे.

इसलिए इनके काउंट्स के बारे में जानकर और उसे सुरक्षा से जोड़कर चिंता करने की जरूरत नहीं है.

वो कहते हैं कि ये आम लोगों के लिए व्यवहार्य नहीं है कि वो संक्रमण के बाद या वैक्सीन का डोज लेने के बाद अपना एंटीबॉडी लेवल चेक कराएं. पॉपुलेशन लेवल पर इसकी सिफारिश नहीं की जा सकती.

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