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COVID गाइडलाइंस से प्लाज्मा हटा, HCQ, आइवरमेक्टिन पर फैसला कब? 

जाने-माने विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी गाइडलाइंस साक्ष्य-आधारित शोध पर आधारित नहीं होती है.

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17 मई को भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने वयस्क कोविड-19 मरीजों के क्लिनिकल मैनेजमेंट प्रोटोकॉल से कॉन्वेलसेंट प्लाज्मा थेरेपी को हटा दिया है. भारत में अब तक व्यापक रूप से कोविड मरीज के इलाज के लिए सबसे प्रभावी चिकित्सा के रूप में प्लाज्मा थेरेपी इस्तेमाल की जा रही थी.

ये कदम एक विशेषज्ञ समूह के सुझाव के बाद आया, जिसमें पाया गया कि यह थेरेपी गंभीर कोविड मरीजों में अप्रभावी थी.

पिछले सप्ताह ही कोविड-19 के इलाज में कॉन्वेलसेंट प्लाज्मा थेरेपी के "तर्कहीन और गैर-वैज्ञानिक इस्तेमाल” से फिक्रमंद अस्पतालों के डॉक्टर, हेल्थकेयर प्रोफेशनल्स, वैज्ञानिकों और जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने स्वास्थ्य मंत्रालय, भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) और एम्स को एक खुला पत्र लिखा था.

इनमें डॉ सौम्यदीप भौमिक, डॉ गगनदीप कांग, डॉ सौमित्र पाथारे और डॉ शाहिद जमील शामिल थे.

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ICMR ने दुनिया में पहली बार प्लेसिड(Placid) ट्रायल के जरिये साबित किया था कि COVID-19 से लड़ने में प्लाज्मा थेरेपी अप्रभावी है, तो इसे गाइडलाइंस से आधिकारिक तौर पर हटाने में एक साल से ज्यादा समय क्यों लगा?

सावधानी बरतने की बात: जब ICMR की नेशनल टास्क फोर्स और स्वास्थ्य मंत्रालय के विशेषज्ञ अनुशंसित उपचार विकल्पों पर दिशानिर्देशों को अपडेट करते हैं, इसका मतलब है- दिशानिर्देश बदले हैं लेकिन कोई भी डॉक्टर इनसे बाध्य नहीं है.

सरकार सबूतों के आधार पर क्यों नहीं आगे बढ़ रही है?

ICMR के फैसले की वैज्ञानिकों ने सराहना की है, फिर भी ये भ्रम बरकरार है कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन(HCQ) और आइवरमेक्टिन (Ivermectin)जैसी दवाएं अब तक गाइडलाइंस में क्यों शामिल हैं?

गाइडलाइंस में 'क्या कर सकते हैं' नाम से कॉलम के तहत दो टैब हैं और वे स्पष्ट करते हैं कि निम्नलिखित उपचार "साक्ष्य की कम निश्चितता" पर आधारित हैं. प्रभावशीलता की कम दर के बावजूद इन्हें क्यों शामिल किया गया? ये गाइडलाइंस डॉक्टरों को वैसी दवाएं लिखने के लिए दबाव डालते हैं जिसके बारे में उन्हें पता है कि वे काम नहीं करेंगे और रिश्तेदारों को उन्हें खरीदने के लिए ज्यादा पैसा खर्च करना होगा.

यह एक दुष्चक्र है. दिल्ली में क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट डॉ. सुमित रे कहते हैं कि वह मरीज के परिवार और डॉक्टर दोनों तरफ की बातों को समझते हैं. “परिवार बेचैन हैं और कोई भी कोशिश करना चाहेंगे, और डॉक्टर इन दवाओं को बहुत ज्यादा प्रचार मिलने और लोगों में भारी दहशत के दबाव में हैं.”

डॉ. रे और डॉ. सौम्यदीप भौमिक दोनों का कहना है कि अभी मरीजों को दोष नहीं दिया जा सकता और अफरातफरी को कम करने में मदद के लिए स्पष्ट गाइडलाइंस की जरूरत है.

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दुनिया के दूसरे देशों में गाइडलाइंस कैसे तैयार की जाती है?

वो लोग उपायों की एक श्रृंखला पर अमल करते हैं.

डॉ. भौमिक कहते हैं, “सबसे पहले तो वहां अलग-अलग ट्रायल किए जाते हैं. सबूतों की समीक्षा की जाती है, जिसे मेटा-एनालिसिस (कई अध्ययनों को एक साथ मिलाकर देखना) भी कहा जाता है जिसमें आप संबंधित साहित्य को देखते हैं, रैंडम ट्रायल की पहचान करते हैं और हर नतीजे के लिए एक अनुमान हासिल करने के इरादे से नतीजों को एक साथ मिलाकर देखने के लिए सांख्यिकीय विधियों का इस्तेमाल करते हैं.”

लेकिन और भी बहुत कुछ है. डॉ. भौमिक बताते हैं कि इसके बाद एक पैनल नतीजों का आकलन करता है और यह समझने के लिए क्रेड नाम के एक फ्रेमवर्क का इस्तेमाल करता है कि हम सबूतों को लेकर कितने निश्चित हैं. वह कहते हैं. “डब्ल्यूएचओ(WHO) भी इसी तरीके का इस्तेमाल करता है, दुनिया भर में यही मानक है.”

फिर इन सबूतों को फैसले लेने वाले लोगों के सामने रखा जाता है जहां इसे स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता के अनुसार समायोजित किया जाता है.

डॉ. भौमिक का कहना है कि इससे इलाज करने वाले डॉक्टरों को मरीजों की जरूरतों, इच्छा और अस्पताल की जरूरतों के अनुसार गाइडलाइंस के संदर्भ में अपनी क्षमता के इस्तेमाल का मौका मिलता है. “हमें अंतरराष्ट्रीय मानकों की गाइडलाइंस को देखना चाहिए.”

“बिना बैकग्राउंड डॉक्यूमेंटेशन वाला फ्लो-चार्ट रख देना या यह कहना कि कौन सी दवा या थेरेपी किस नतीजे पर कितना असर डालती है, इससे डॉक्टरों को फैसले लेने में मदद नहीं मिलती है. यह एक तरह की कॉपी-पेस्ट मेडिसिन है, जो मरीजों के लिए सबसे अच्छी थेरेपी तैयार करने में मददगार नहीं होगी. एम्स-आईसीएमआर दिशानिर्देशों के साथ यह सबसे बड़ी समस्या है.
डॉ. सौम्यदीप भौमिक

डॉ. भौमिक कहते हैं कि गाइडलाइंस में भी पारदर्शिता होनी चाहिए, “गाइडलाइंस तैयार करने से कौन लोग जुड़े हैं और किसी का हितों के टकराव का मामला तो नहीं है? लोकतंत्र और चिकित्सा क्षेत्र दोनों में पारदर्शिता और जवाबदेही की जरूरत है.”

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HCQ, आइवरमेक्टिन के इस्तेमाल को लेकर क्या हैं समस्याएं?

  • आइवरमेक्टिन

आइवरमेक्टिन एक कीड़े मारने वाली (deworming) दवा है जिसका इस्तेमाल जानवरों में, खासतौर से घोड़ों में पैरासाइट्स (परजीवियों) को मारने और रोकथाम के लिए किया जाता है. इंसानों में इसका इस्तेमाल आंतों और त्वचा पर पाए जाने वाले कुछ पैरासाइट्स कीड़ों और त्वचा की कुछ समस्याओं के इलाज के लिए किया जाता है.

WHO के मुताबिक, इसका इस्तेमाल खुजली, आंकोसर्कायसिस (river blindness), स्ट्रॉन्गाइलॉयोडायसिस (strongyloidiasis) और मिट्टी से संक्रमित हेलमिंथियासिस से होने वाली दूसरी बीमारियों के इलाज में भी किया जाता है.

WHO ने मार्च 2021 में पहले ही कहा था कि कोविड-19 मरीजों के इलाज के लिए आइवरमेक्टिन दवा के इस्तेमाल पर उपलब्ध सबूत निश्चित नहीं हैं, और सिफारिश की थी कि इस दवा का इस्तेमाल सिर्फ क्लीनिकल ट्रायल में ही किया जाए. इस समय यूएस फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (FDA) और यूरोपियन मेडिसिंस एजेंसी (EMA) समेत दुनिया की सभी प्रमुख स्वास्थ्य संस्थाओं ने कोविड के इलाज के लिए आइवरमेक्टिन के इस्तेमाल को हतोत्साहित किया है.

महामारी विज्ञानी और जन स्वास्थ्य व नीति विशेषज्ञ डॉ. चंद्रकांत लहरिया कहते हैं, “वैज्ञानिक रूप से हम जानते हैं कि आइवरमेक्टिन एक एंटी-पैरासाइटिक दवा है, जबकि कोविड-19 एक वायरल संक्रमण है. इसलिए इस बात की कोई व्याख्या नहीं है कि एक एंटी-पैरासाइटिक दवा कोविड का इलाज कैसे कर सकती है.”

  • HCQ

WHO ने मार्च के ताजा अपडेट में कहा है-

“इंटरनेशनल गाइडलाइन डेवलपमेंट पैनल का मानना है कि हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन अब शोध के लिए प्राथमिकता में नहीं है और कोरोना की रोकथाम के लिए दूसरी दवाओं के मूल्यांकन के लिए संसाधनों का इस्तेमाल किया जाना चाहिए.”
WHO

द न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के एक अध्ययन ने इस निष्कर्ष का समर्थन किया कि HCQ ने माइल्ड से मॉडरेट COVID-19 मरीजों की स्थिति में सुधार नहीं किया. पीयर रिव्यूड जर्नल द बीएमजे में प्रकाशित एक अन्य स्टडी में पता चला कि कोविड के इलाज में HCQ का प्रभाव स्टैंडर्ड केयर की तुलना में बहुत कम था.

कोविड से लड़ने या रोकने में इसकी दक्षता की कमी की ओर इशारा करते हुए अध्ययनों के अलावा, दवा से जुड़े दुष्प्रभाव और गंभीर जोखिम इसे और भी कम व्यवहार्य विकल्प बनाते हैं.

FDA ने हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन के इस्तेमाल से कार्डियक डेथ के खतरे से आगाह करते हुए चेतावनी जारी की थी.

इसके अलावा, अस्पष्ट सबूत कोविड इलाज के लिए HCQ दवा को फिर से आवंटित करने के लिए पर्याप्त नहीं है, वो भी तब, जब ये ल्यूपस और अर्थराइटिस जैसी अन्य स्थितियों से पीड़ित लोगों के लिए उपलब्ध नहीं हो पा रहा है. कोविड का 'वंडर ड्रग' माने जाने के बाद, जरूरतमंदों ने इसकी कमी का सामना करना शुरू कर दिया था.

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रेमडेसिविर के इस्तेमाल पर भी भ्रम

डॉ. सुमित रे कहते हैं, “इसके असरदार होने के सबूत मिले-जुले हैं. कुछ सकारात्मक अध्ययनों का कहना है कि यह अस्पताल में रहने की अवधि को घटाता है लेकिन मृत्यु दर या मरीजों के वेंटिलेटर पर जाने की संभावना को कम नहीं करता है. WHO सॉलिडैरिटी ट्रायल में भी इसके सकारात्मक परिणाम नहीं दिखे, केवल कुछ उप-समूह विश्लेषणों में इसे असरदार दिखाया गया है- कुछ मरीजों में जो ऑक्सीजन की कम मात्रा पर थे, अस्पताल में रहने की अवधि घटने के नजरिये से उनको फायदा हुआ. जो लोग ऑक्सीजन पर नहीं हैं उन्हें अस्पताल में रहने की अवधि में कमी से फायदा नहीं होता है. जो लोग हाई ऑक्सीजन सपोर्ट या वेंटिलेटर पर हैं, उनके लिए यह जिंदगी बचाने वाली दवा नहीं है.”

“मुझे पता है कि इस समय लोग हर मुमकिन कोशिश करना चाहते हैं- भले ही दवा के असर के सबूत उतने दमदार न हों.”
डॉ. सुमित रे

गाइडलाइंस में ‘ऑफ-लेबल इस्तेमाल’ को समझना

सरकारी गाइडलाइंस में “खास हालात में” ली जाने वाली कुछ दवाओं और थेरेपी का भी जिक्र है.

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डॉ. भौमिक कहते हैं, “परिभाषा के अनुसार ऑफ-लेबल का मतलब है अन-अप्रूव्ड (मंजूर नहीं की गई).”

वह समझाते हैं कि क्लिनिकल शब्दावली में इसका क्या मतलब है,

“ऑफ-लेबल का परंपरागत रूप से मतलब है कि इलाज करने वाले डॉक्टर के रूप में मैं X दशा के इलाज में Y दशा के लिए तय दवा का इस्तेमाल कर रहा हूं. इसकी मंजूरी नहीं है लेकिन मुझे यकीन है कि यह मेरे मरीज की मदद कर सकता है. लेकिन हम यह नहीं समझ पा रहे हैं कि गाइडलाइंस के संदर्भ में ऑफ-लेबल का क्या मतलब होगा.”
डॉ. सौम्यदीप भौमिक

"मरीजों के अधिकारों की सुरक्षा की जरूरत है": एथिकल मेडिसिन

“हमारे देश में मेडिसिन का एक अधिकार भरा अंदाज है. अगर हम इसके बारे में निष्पक्ष रूप से सोचते हैं, तो यह मेरा शरीर है और अगर इसमें कोई दखल दिया जा रहा है तो मुझे यह जानने की जरूरत है. यही साझा-निर्णय लेना है.”
डॉ. सौम्यदीप भौमिक

वह स्वीकार करते हैं कि महामारी के हालात में मरीजों और परिवारों के साथ ज्यादा चर्चा हमेशा मुमकिन नहीं हो सकती है, लेकिन “साइड इफेक्ट और फायदों की संभावनाओं जैसे बुनियादी विवरण को बताने की जरूरत है. संकट में होने का भी मतलब यह नहीं है कि हम अपने अधिकार और नैतिकता एक डॉक्टर के हाथ में सौंप दें.”

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