"कहेहू तें कछु दुख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई॥"
यह पंक्तियां सुंदरकांड के सीता-हनुमान संवाद की हैं. इसका अर्थ है, 'मन का दुख कह डालने से भी कुछ घट जाता है. पर कहूं किससे? यह दुख कोई जानता नहीं.'
यह लाइन यूपी के जिला अस्पतालों में बने 'मन कक्ष' के बाहर देखने को मिलती है.
मन कक्ष काउंसलिंग सेंटर्स हैं, जहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर परामर्श और काउंसलिंग दी जाती है.
उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के अन्तर्गत जिला अस्पतालों में मन कक्ष बनाने का काम होना था. हालांकि मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के लागू होने के करीब साढ़े तीन साल बीतने के बाद भी अब तक यूपी के 75 जिलों में से केवल 60 जिलों में मन कक्ष बन पाए हैं.
इसमें से भी केवल 38 जिलों के मन कक्ष में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट और 43 जिलों में सोशल वर्कर मौजूद हैं. इसके अलावा कई ऐसे मन कक्ष भी हैं, जहां एक कर्मचारी पूरा सेंटर चला रहा है.
इन आंकड़ों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि मन कक्ष में कर्मचारियों की कितनी कमी है. मन कक्ष बनाने का मकसद था कि एक सेंटर पर मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सभी बातों का निदान मिल सके, लेकिन जब काउंसलिंग के लिए क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट ही नहीं होंगे, तो निदान कहां से मिल पाएगा.
यूपी के किसी दूर दराज के जिलों के हालात क्या होंगे, इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि राजधानी लखनऊ के जिला अस्पताल में बने मन कक्ष में क्लीनिकल साइकेलॉजिस्ट की पोस्ट 2019 से खाली पड़ी है.
वहीं, स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी ने बताया कि बिहार बॉर्डर से सटे देवरिया जिले के सरकारी अस्पताल में बने मन कक्ष में सिर्फ एक कर्मचारी की नियुक्ति हुई है, वही पूरा सेंटर चला रही हैं.
जबकि प्रत्येक मन कक्ष में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े आठ पद होते हैं, मनोचिकित्सक, क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट, सोशल वर्कर, साइकेट्रिक नर्स, कम्युनिटी नर्स, केस रजिस्ट्री असिस्टेंट, वॉर्ड ब्वॉय और मॉनिटरिंग अफसर.
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की भर्तियां नहीं हो रही
इस बारे में उत्तर प्रदेश के मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के नोडल अधिकारी डॉ. सुनील पाण्डेय फिट से कहते हैं,
"मन कक्ष की अवधारणा यह थी कि जिला अस्पताल के सारे काउंसलर एक छत के नीचे उपलब्ध हों और लोग इनसे मन की व्यथा कह सकें. मन कक्ष का काम उन जनपदों में अच्छा हो रहा है, जहां क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट हैं, जहां नहीं हैं वहां अच्छे से काम नहीं हो पा रहा."
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्या के मद्देनजर 7 अप्रैल, 2017 को लोकसभा में मानसिक स्वास्थ्य संरक्षण कानून पारित हुआ, जो 29 मई 2018 को पूरे देश में लागू हो गया.
इसी के तहत यूपी के जिला अस्पतालों में 'मन कक्ष' बनाने का काम शुरू हुआ था. सुनील पाण्डेय ने बताया कि करीब साढ़े तीन साल होने को हैं. इस बीच कई बार सुनने में आया कि भर्तियां होंगी, लेकिन नहीं हो रही हैं. जब काम करने वाले लोग ही नहीं होंगे तो काम कैसे होगा.
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कर्मचारियों की कमी केवल यूपी में नहीं है, पूरे देश का यही हाल है.
अगस्त 2019 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) की राष्ट्रीय स्तर की एक बैठक हुई. इस बैठक में मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में कानून और उसको लागू करने के बीच की खाई पर चर्चा की गई.
इसमें बताया गया कि देश में 13,500 मनोचिकित्सक की आवश्कता है लेकिन 3827 ही उपलब्ध हैं. 20,250 क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की आवश्कता है, जबकि 898 ही उपलब्ध हैं.
यह हाल तब है, जब विश्व स्वस्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 7.5 फीसद आबादी किसी न किसी मानसिक समस्या से जूझ रही है.
मनोचिकित्सकों की कमी और काम का बोझ
इन आंकड़ों से साफ है कि भारत में मनोचिकित्सकों की भारी कमी है, जिसका असर यूपी में भी देखने को मिल रहा है. इसकी वजह से मरीजों का इलाज और मनोचिकित्सकों का काम भी प्रभावित होता है.
लखनऊ के बलरामपुर जिला अस्पताल में मनोचिकित्सक प्रवीण कुमार श्रीवास्तव बैठते हैं. जब उनसे मिलने पहुंचा गया, तो दोपहर के 2 बजे अस्पताल की ओपीडी बंद होने के वक्त भी उनके चेंबर के बाहर लंबी लाइन लगी थी.
प्रवीण कुमार श्रीवास्तव मरीजों को देखने के साथ-साथ मुश्किल से पांच मिनट का वक्त दे पाते हैं. वो बताते हैं, "सुबह से अब तक करीब 70 मरीजों को देखा है और ज्यादा से ज्यादा 20 मरीज देख पाउंगा, क्योंकि अस्पताल बंद हो गया है. जो बचे हुए मरीज हैं उन्हें कल सुबह देखूंगा."
“मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मरीजों को वक्त देना होता है, लेकिन लोड इतना ज्यादा है कि मैं उस हिसाब का वक्त नहीं दे पा रहा. एक दिन में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े 100 मरीजों को देखना कम नहीं होता है, बल्कि यह बहुत ही ज्यादा है.”प्रवीण श्रीवास्तव, मनोचिकित्सक, बलरामपुर जिला अस्पताल, लखनऊ
प्रवीण श्रीवास्तव के जिम्मे केवल ओपीडी में मरीजों को देखने का काम नहीं है. इसके अलावा उन्हें जेल के मरीजों को भी देखना है. साथ ही बाल संरक्षण गृह, मेंटल हेल्थ से जुड़े आपराधिक मामलों की रिपोर्ट कोर्ट को देने जैसे काम भी हैं.
प्रवीण श्रीवास्तव लखनऊ जिला अस्पताल में बने मन कक्ष के नोडल अधिकारी भी हैं. वो बताते हैं, "अगर किसी मरीज को खुदकुशी के ख्याल आ रहे हैं, तो उसे करीब 6 काउंसलिंग की जरूरत होती है. अगर मुझे क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट मिल जाए तो इस तरह के इलाज हम दे पाएंगे. करीब आठ महीने पहले लिखित में डिमांड भी भेज दी है, लेकिन अभी तक कोई नहीं आया."
मन कक्ष में क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की अहमियत को समझाते हुए स्वास्थ्य विभाग के एक कर्मचारी ने बताया कि मन कक्ष में विशेष तौर पर 'वेंटिलेशन टेक्निक' पर जोर दिया जाता है. इस टेक्निक का सार है कि अगर किसी व्यक्ति के दिमाग में कुछ चल रहा है, तो उसे वह किसी को बता सके. इससे वह विचार उसके मन में बैठते नहीं हैं और उसे फायदा होता है. इस टेक्निक को लागू करने के लिए क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की जरूरत होती है.
15 जिलों में नहीं बन पाए मन कक्ष
क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट की कमी के अलावा यूपी के 75 जिलों में से करीब 15 जिलों में अब तक मन कक्ष नहीं बने हैं. यह जिले हैं, औरैया, आजमगढ़, बलिया, बाराबंकी, बस्ती, एटा, फिरोजाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, कानपुर देहात, कासगंज, महाराजगंज, सहारनपुर, संभल और शामली.
इन जिलों में मन कक्ष क्यों नहीं बन पाए, इस बारे में मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम के नोडल अधिकारी डॉ. सुनील पाण्डेय कहते हैं, "कई जिला अस्पताल बहुत छोटे हैं, वहां पहले से चल रही योजनाओं के लिए कमरे उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे में मन कक्ष को अलग से कमरा नहीं मिल पाया है."
(रणविजय सिंह, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं. इनके काम के बारे में और जानकारी यहां ली जा सकती है.)
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