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वर्ल्ड रेबीज डे: मौत का दूसरा नाम रेबीज, हर साल ले रहा हजारों जान

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वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक रेबीज के कारण हर 9 मिनट में एक इंसान की मौत होती है. इसके सबसे ज्यादा शिकार बच्चे होते हैं. इंसानों में रेबीज के 99 फीसदी मामले कुत्तों के काटने से होते हैं.

53 साल के सत्या रेड्डी अपने घर के बाहर एक पिल्ले के साथ खेल रहे थे. तभी उस पिल्ले ने उनकी उंगली पर काट ली. मैं उनसे दो महीने बाद बेंगलुरु के एक आइसोलेशन अस्पाल में मिली. उनकी हालत बहुत खराब थी.

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जब मरीज यहां आया, उसके मुंह से लार बह रही थी. वह पहले ही हाइड्रोफोबिक (पानी से खौफ खाने वाला) हो चुका था. ऐंठन के कारण उसको बहुत तेज दर्द हुआ. 
डॉ. अंसार अहमद, जिला सर्जन, आइसोलेशन अस्पताल

रेड्डी की पत्नी बेहद दुखी थीं. हमने पहले उनकी बेटी से बात करने की कोशिश की, लेकिन कैमरे पर वो आने से थोड़ी हिचकी. लेकिन जब हम मेडिकल सुप्रि‍टेन्डेंट का इंतजार कर रहे थे, मैं उसके बगल में बैठी और तब उसने थोड़ा बोलना शुरू किया.

वो पहले एक आयुर्वेदिक डॉक्टर के पास गए. उसने उन्हें एक महीने तक मेडिकल पाउडर लगाने को कहा. घाव भर गया. उन्होंने कोई इंजेक्शन नहीं लगवाया. हम नहीं जानते थे कि वेक्सीनेशन इतना जरूरी होता है. ये तो बस एक छोटा-सा पिल्ला था. हमें बाद में पता लगा कि वो पिल्ला पागल था.
सत्या रेड्डी की बेटी
बेंगलुरु में आइसोलेशन अस्पताल का एक रेबीज वॉर्ड 
(फोटो: The Quint/Parul Agrawal)

पूरी दुनिया में हर साल 59 हजार लोग रेबीज के कारण मर जाते हैं. ज्यादातर मौतें एशिया और अफ्रीका में होती है. अकेले भारत में हर साल 21000 लोग रेबीज के कारण अपनी जान गंवाते हैं. हैरान करने वाली बात है कि रेबीज से मरने वालों की तादाद भारत में सबसे ज्यादा है. पिछले कई सालों में बेंगलुरु में आइसोलेशन हॉस्पिटल के डॉ. अहमद अंसारी ने रेबीज के कारण सैकड़ों मौतें देखी हैं.

रेबीज मरीजों की मेरी सबसे खराब यादों में से एक 6 साल की बच्ची की है, जो तकरीबन 10 साल पहले मेरे पास लाई गई. बच्ची चीख रही थी, कूद रही थी. उसकी मां बस उससे चिपकी हुई थी. वो जानती थी कि 2-3 दिनों के भीतर वो अपनी बच्ची को खो देगी. मैंने बच्ची के चेहरे पर थोड़ी हवा मारी, तो वो ऐसे चीखी जैसे उसके ऊपर किसी ने एसिड डाल दिया हो. रेबीज के इस लक्षण को एरोफोबिया कहते हैं. उसकी मां बस यही कहे जा रही थी कि लड़की बस कुत्ते के साथ खेल रही थी और कुत्ता उसको चाट रहा था. उसके हाथ पर बस खरोंच आई थी, जिससे उसको इंफेक्शन हो गया.
डॉ. अंसार अहमद
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जानवर के काटे जाने के बाद घाव को खुला छोड़ दें, सामान्य पट्टी करें. लेकिन घाव को सिलने की कोशिश न करें 
(फोटो: iStockphoto)

विश्व में कुत्तों की संख्या सबसे ज्यादा तेजी से भारत में बढ़ रही है. 15 फीसदी से ज्यादा कुत्तों को टीका नहीं लगा होता है.

भारत में हर साल 17.4 मिलियन कुत्ते के काटने के मामले आते हैं. इनमें से ज्यादातर लोगों की दर्दनाक मौत हो जाती है. मौत की ज्यादातर खबरें ग्रामीण क्षेत्र से आती हैं, लेकिन रेबीज किसी को को नहीं छोड़ता. मरने वालों में वकील, डॉक्टर अफसर और समृद्ध परिवारों के लोग होते हैं.

भारत में ज्यादातर मौतें गलत या अधूरे तरीके से टीका लगाने के कारण होती हैं. यहां तक कि कई डॉक्टरों को भी यह पता नहीं होता क्या करना चाहिए और क्या नहीं. यह हालात गांवों में और बुरे हैं. वहां इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया जाता कि कुत्ते के काटने पर घाव पर टाइट पट्टी या टांका नहीं लगाना चाहिए.
डॉ. मुरली, चिन्मय मिशन अस्पताल, बेंगलुरु
भारत में पशुओं में रेबीज के निदान के लिए केवल एक ही लैब है, जो कि कर्नाटक के वैटरीनरी कॉलेज ऑफ कर्नाटक में स्थित है 
(फोटो: Reuters)

रेबीज साधारण सी बीमारी है, लेकिन भारत में यह ‘साइलेंट किलर’ की तरह है.

सवा सौ करोड़ अाबादी वाले भारत में केवल बेंगलुरु में जानवरों के रेबीज डायग्‍नोसिस की लैब है. इतनी बड़ी आबादी में एक लैब होने की वजह से यहां काम का दबाव बहुत अधिक होता है.

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हमें पूरे देश से सैंपल मिलते हैं. कोई भी व्यक्ति जिसे यह शक हो कि कोई जानवर पागल हो गया है, उसका सैंपल हमें भेज सकता है. इससे डॉक्टर को पता चलता है कि किस तरह का इलाज किया जाना है. रेबीज की इंसानों और जानवरों में मॉनिटरिंग बहुत जरूरी होती है. हमें ऐसी और लैबों की जरूरत है.
प्रोफेसर येथिराज, डीन, वेटरि‍नरी कॉलेज, बेंगलुरु

रेबीज पागल जानवर के काटे जाने वाली लार से फैलता है. कुत्ते, चमगादड़, बंदर ,बिल्ली, भेड़िया या भालू के काटे जाने भी रेबीज फैल सकता है. काटने के बाद रेबीज वायरस कई गुना बढ़ता जाता है और सेंट्रल नर्वस सिस्टम पर हमला करता है. इंसानों में इसके लक्षण कुछ दिनों से लेकर महीनों तक में दिखाई देते हैं.

एक बार लक्षण दिखने के बाद उल्टी गिनती शुरू हो जाती है. रोगी की हालत घंटे दर घंटे बिगड़ती जाती है. रोगियों को तब आइसोलेशन सेंटर भेज दिया जाता है, ताकि हिंसक होने पर वो किसी को नुकसान न पहुचाएं. यह जानना काफी मुश्किल होता है कि कौन-सा कुत्ता रेबीज से ग्रस्त है, कौन सा नहीं. इसलिए सही इलाज लेना ही इससे बचने का सुरक्षित उपाय होता है.
डॉ. अनिल कुमार, विक्टोरिया अस्पताल, बेंगलुरु
कम कीमतों के कारण कुछ फार्मा कंपनियों को अब लगता है कि इन दवाओं का उत्पादन लाभदायक नहीं है 
(फोटो: Reuters)
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वैक्‍सीन की कमी सबसे बड़ी समस्‍या

वहीं वैक्सीन की कमी भी रेबीज संकट का एक कारण है. रेबीज वैक्सीन इम्यूनोग्लोबिन की कीमत को नियंत्रण में रखने के लिए सरकार ने इसकी कीमत तय कर रखी है. वहीं इसकी मात्रा मांग के हिसाब से बनाए रखने के लिए सरकार इस वैक्सीन को बड़ी मात्रा में खरीदती है.

परिणाम यह होता है कि इसकी मांग हमेशा ज्यादा रहती है. लेकिन फार्मा कंपनियां इसकी कम कीमत के चलते इसे बनाने में आनाकानी करती हैं, क्योंकि यह फायदे का सौदा नहीं होता. वहीं निजी अस्पतालों के लिए इसे उपलब्ध कराना मुश्किल होता है.

कम कीमतों के चलते बहुत कम कंपनियां इस ड्रग्स को बनाती हैं. हमें यह याद रखना चाहिए कि भारत में ज्यादातर लोग प्राइवेट अस्पतालों और क्लिनिक में इलाज कराना ज्यादा बेहतर समझते हैं. जानवर के काटने के बाद उल्टी गिनती शुरू हो जाती है और लोग वैक्सीन के लिए यहां-वहां दौड़-भाग करने लगते हैं.
डॉ. मुरली, चिन्मय मिशन अस्पताल, बेंगलुरु
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लावारिस कुत्तों पर कैसे लगे रोक?

लावारिस कुत्तों को मारना भारत में गैरकानूनी है और रेबीज नियंत्रण का ये अच्छा तरीका भी नहीं है. भारत में 50 फीसदी से ज्यादा घरेलू कुत्तों के काटने के मामले मिलते हैं.

हालांकि समय-समय पर एजेंसियों द्वारा कुत्तों को पकड़कर वैक्सीन लगाया जाता है. लेकिन असलियत यह है कि आज भी भारत में ज्यादातर भाग में इस तरह के अभियानों का फायदा नहीं मिला पाता.

रेबीज को खत्म करने के लिए हमें जानवरों की प्रजनन दर पर नियंत्रण रखने के लिए कार्यक्रम चलाने होंगे. जब तक यह नहीं हो जाता, तब तक सावधानी बरतिए और उन एरिया को कवर करना होगा, जो सरकार और एनजीओ की नजरों से बच गए हैं.

तो अगली बार जब आपको कोई कुत्ता काटे, तो उसे हल्के में लेने से पहले सोचिएगा जरूर.

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