लखनऊ के मलीहाबाद के रहने वाले फहीम बेग के 5 महीने के बेटे नईम की तबीयत 16 नवंबर को अचानक खराब हुई. नईम को सांस लेने में तकलीफ हो रही थी. आनन-फानन में फहीम अपने बेटे को लेकर लखनऊ के जिला अस्पताल भागे. यहां जांच में पता चला कि नईम को निमोनिया की शिकायत थी. करीब एक हफ्ते जिला अस्पताल के बाल रोग वार्ड में भर्ती रहने के बाद नईम को 22 नवंबर को डिस्चार्ज कर दिया गया.
नईम के पिता फहीम कहते हैं, "खुदा का शुक्र है कि अभी बच्चा सही है. उसे कई दिनों से तकलीफ थी, लेकिन हम नजरअंदाज कर रहे थे. यह हमारी गलती थी, वक्त पर अस्पताल ले जाना चाहिए था."
सर्दियों के मौसम में पॉल्यूशन बढ़ने के साथ ही नईम की तरह बहुत से बच्चों में निमोनिया के मामले भी बढ़ने लगते हैं.
इस बारे में लखनऊ के बलरामपुर जिला अस्पताल के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ देवेंद्र सिंह कहते हैं, "सर्दियों के मौसम में बच्चों में निमोनिया के मामले ज्यादा देखने को मिलते हैं. टेंपरेचर चेंज होने से बच्चों पर तुरंत असर होता है. अभी जैसे-जैसे पारा नीचे जाएगा, यह मामले और बढ़ते जाएंगे और इनकी संख्या बढ़ेगी."
देवेंद्र सिंह की देखरेख में ही नईम का इलाज हुआ था. वो बताते हैं कि नईम जब अस्पताल आया तो बहुत सीरियस था. मां-बाप पहले टालते रहे तो कंडिशन खराब होती गई, हालांकि इलाज से वह रिकवर हो गया.
निमोनिया फेफड़ों से जुड़ा इंफेक्शन होता है. जब बच्चे को निमोनिया होता है तो उसके फेफड़ों में पस भर जाता है. ऐसे में उसे सांस लेने मे तकलीफ होती है. बच्चे को वक्त पर सही इलाज न मिलने पर उसकी मौत भी हो सकती है.
देवेंद्र सिंह सलाह देते हैं कि बच्चे को हल्का बुखार, खांसी, सांस लेने में तकलीफ होने पर तुरंत डॉक्टर के पास ले जाना चाहिए.
उत्तर प्रदेश में निमोनिया
यूनिसेफ की 2019 में आई एक रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2018 में भारत में 5 साल से कम उम्र के 1.27 लाख बच्चों की निमोनिया से मौत हुई, यानी हर घंटे करीब 14 बच्चों की जिंदगियां निमोनिया का शिकार हुईं. वहीं दुनिया में निमोनिया से हर 39वें सेकंड एक बच्चे की मौत होती है.
बात करें उत्तर प्रदेश (यूपी) की तो यूनिसेफ के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में दुनिया में निमोनिया से 5 साल से कम उम्र के 8.80 लाख बच्चों की मौत हुई थी. इसमें से करीब 2.9% बच्चों (26,200) की मौत यूपी में हुई थी. यह आंकड़ा भारत में किसी भी राज्य से ज्यादा था. यूपी के बाद बिहार में 23,200 बच्चों की मौत हुई थी.
हालांकि राज्यसभा में पेश आंकड़ों में निमोनिया से 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मौत यूनिसेफ के आंकड़ों से काफी कम है.
- 17 मार्च 2020 को पेश आंकड़ों के मुताबिक, यूपी में 2016-17 में 5 साल के कम उम्र के 118 बच्चों की मौत दर्ज की गई.
- 2017-18 में यह आंकड़ा बढ़कर 990 हो गया.
- 2018-19 में 568 बच्चों की मौत हुई.
- वहीं, 13 दिसंबर 2019 को लोकसभा में पेश आंकड़ों के मुताबिक वित्त वर्ष 2019-20 में अक्टूबर तक 206 बच्चों की मौत हुई.
इन आंकड़ों से समझा जा सकता है कि बच्चों में निमोनिया के मामलों में यूपी का क्या हाल है. इसी वजह से राज्य के स्वास्थ्य विभाग की ओर से भी इसके लिए तैयारियां की गई हैं. यूपी के चिकित्सा और स्वास्थ्य विभाग के महानिदेशक, डॉ. देवेंद्र सिंह नेगी ने कहा,
“इस मौसम में एलर्जी, अस्थमा और बच्चों के निमोनिया के मामले ज्यादा देखने को मिलते हैं. अस्पतालों को इसके संदर्भ में निर्देश दिए जा जुके हैं. अस्पतालों ने भी इन बीमारियों के मद्देनजर तैयारी कर रखी है. साथ ही अगस्त के महीने से ही पूरे प्रदेश में निमोनिया पर काबू पाने के लिए न्यूमोकोकल टीका (PCV) लगाया जा रहा है.”
यूपी के 75 जिलों में लग रहा निमोनिया का टीका
यूपी में इस साल अगस्त के महीने से न्यूमोकोकल वैक्सीन पूरे 75 जिलों में लगना शुरू हुआ है. इससे पहले यह पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर पिछले 3 साल से यूपी के 19 जिलों में लगाया जा रहा था. इस साल 8 अगस्त से बाकी के 56 जिलों में भी इसकी शुरुआत हो गई है. इस टीके को नियमित टीकाकरण में शामिल किया गया है. साथ ही अस्पतालों में इसे मुफ्त में लगाया जा रहा है. एक साल तक के बच्चे को न्यूमोकोकल वैक्सीन के 3 डोज लगते हैं. बाजार में इसके 1 डोज की कीमत करीब 2 हजार रुपए है.
“निमोनिया का टीका अगस्त से लग रहा है. जबसे शुरुआत हुई है तबसे इस टीके की कमी नहीं हुई है. हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से अभी तक 457 बच्चों को न्यूमोकोकल का पहला डोज लग चुका है. अब दूसरा डोज भी लगना शुरू हआ है जो अब तक 42 बच्चों को लगा है.”अशोक कुमार, हेल्थ सुपरवाइजर
अशोक गोरखपुर जिले के खजनी ब्लॉक के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में तैनात हैं.
इस वैक्सीन को लेकर यूपी के चिकित्सा और स्वास्थ्य के एडिशनल चीफ सेक्रेटरी अमित मोहन प्रसाद ने 16 जुलाई को कहा था कि “सभी जनपदों में न्यूमोकोकल वैक्सीन उपलब्ध हो जाने से निमोनिया के कारण बच्चों की मौत में कमी आएगी.”
निमोनिया से मौत के पीछे प्रदूषण बड़ा कारण
निमोनिया से होने वाली मौतों के लिए मुख्य तौर पर दो कारक जिम्मेदार होते हैं.
बच्चे का कमजोर होना यानी कुपोषण
इनडोर/आउटडोर पॉल्यूशन
बच्चों की निमोनिया से मौत के मामलों में करीब 50% मामले पॉल्यूशन से जुड़े होते हैं. फिलहाल यूपी के साथ-साथ पूरे देश में हर दिन पॉल्यूशन तेजी से बढ़ रहा है, ऐसे में बच्चों में निमोनिया का खतरा भी बढ़ेगा.
हाल ही में हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट की सालाना ग्लोबल एयर 2020 रिपोर्ट भी आई है. इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2019 में नवजात बच्चों की मौत के मामले में 21 फीसदी मौतें वायु प्रदूषण की वजह से हुई हैं.
पॉल्यूशन से 1 महीने से कम के 1.16 लाख बच्चों की मौत हुई. इनमें से आधी से अधिक मौतें आउटडोर पीएम 2.5 से जुड़ी हैं. इसके अलावा लकड़ी या कोयले पर खाना पकाने, ईंधन का प्रयोग और गोबर के कंडे का उपयोग करने से जुड़ी हैं.
सही देखभाल और वक्त पर इलाज जरूरी
ऐसा नहीं कि बच्चों को निमोनिया होने से बचाया नहीं जा सकता. बच्चों को शुरुआती दिनों में स्तनपान, टीकाकरण, साफ पानी, अच्छा खान-पान और खराब हवा से बचाने जैसे उपाय किए जाएं तो बच्चे को निमोनिया से बचाया जा सकता है.
पिछले साल इसी वक्त गोरखपुर के पानापार गांव की रहने वाली साधना शुक्ला की एक महीने की बेटी को निमोनिया हो गया था. समय पर सही इलाज से साधना की बेटी सिया ठीक हो गई. इसके बाद से ही साधना अपनी बेटी का खास ध्यान रखती हैं. “मुझे डॉक्टर ने बताया था कि बच्ची को सही खान-पान देना है और सर्दियों के वक्त खास ध्यान रखना है. मैं डॉक्टर की सभी सलाह का पालन कर रही हूं,” साधना कहती हैं.
साधना की बेटी सिया को वक्त पर सही इलाज मिला तो वो ठीक हो गई. हालांकि बहुत से बच्चे अस्पताल तक पहुंच ही नहीं पाते हैं. निमोनिया को लेकर किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) की बाल रोग विभाग की अध्यक्ष शैली अवस्थी की निगरानी में एक सर्वे किया गया, जिसकी रिपोर्ट मार्च 2019 में आई. इसमें सामने आया कि उत्तर प्रदेश में निमोनिया से जूझ रहे बहुत से बच्चे अस्पताल तक पहुंच ही नहीं पाते.
अवस्थी और उनकी टीम ने कम्युनिटी बेस सर्वे किया था.
- लखनऊ के 240 गांव के 2400 घरों का सर्वे किया गया
- इस टीम ने 2 साल से 59 महीने तक के 3351 बच्चों का सर्वे किया
- इसमें से 25% बच्चे यानी 824 को निमोनिया था, लेकिन सिर्फ 33 बच्चे (4%) ही हॉस्पिटल में भर्ती हो सके.
एक्सपर्ट्स का भी मानना है कि बच्चों की मौत के पीछे यह बड़ी वजह है कि उन्हें ठीक से इलाज ही नहीं मिल पाता. बहुत से मां-बाप प्रति दिन कमाने खाने वाले होते हैं. ऐसे में वह इलाज के चक्करों में नहीं पड़ना चाहते. वहीं, गरीबी और कम आमदनी भी इसकी पीछे बड़ी वजह है. इसके अलावा सरकारी अस्पतालों में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी भी एक वजह हो सकती है.
लोकसभा में 6 दिसंबर 2019 को निमोनिया से जुड़े एक सवाल में यह भी पूछा गया कि ग्रामीण इलाकों में हर साल निमोनिया जैसी इलाज हो सकने वाली बीमारियों से लाखों बच्चे मर जाते हैं. क्या सरकार की ओर से कोई असेसमेंट किया गया कि इनके इलाज के लिए स्पेशलिस्ट डॉक्टर और अस्पतालों की कितनी कमी है.
इसके जवाब में जो डेटा पेश किए गए उसके मुताबिक, यूपी के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 3288 स्पेशलिस्ट (सर्जन, फिजिशियन, बाल रोग विशेषज्ञ) की जरूरत है. जबकि इसकी तुलना में सिर्फ 192 स्पेशलिस्ट काम कर रहे हैं. यानी 3096 स्पेशलिस्ट की कमी है. वहीं, देश में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 22496 स्पेशलिस्ट डॉक्टर की जरूरत है और इसके मुकाबले सिर्फ 4074 स्पेशलिस्ट डॉक्टर काम कर रहे हैं. यानी पूरे देश के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 18422 स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी है. यह आंकड़े 31 मार्च 2018 तक के हैं.
(रणविजय सिंह, लखनऊ में स्वतंत्र पत्रकार हैं. इनके काम के बारे में और जानकारी यहां ली जा सकती है.)
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