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गुजरात: कोरोना से हो रही मौतों पर दिए जा रहे तर्क जायज क्यों नहीं 

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गुजरात में दूसरे राज्यों के मुकाबले COVID-19 से ज्यादा मरीजों की मौत हो रही है. इस ऊंची मृत्यु दर की कई वजहें बताई गई हैं. इन वजहों में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री द्वारा पेश ‘कम टेस्टिंग दर’ शामिल है और एम्स के निदेशक द्वारा पेश कोविड-19 वायरस से जुड़ी बदनामी शामिल है.

किसी खास इलाके में कोविड-19 से ज्यादा मौत की वजहों में यात्रियों और कार्गो की अंतरराष्ट्रीय आवाजाही की ऊंची दर, बड़े पैमाने पर शहरीकरण, को-मॉर्बिडिटीज (साथ में दूसरी बीमारी) वाले लोग, बुजुर्ग आबादी और हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर है.

यहां, मैं समझाने की कोशिश करूंगा कि गुजरात में कोविड-19 के कारण ज्यादा मौतों पर दिए जा रहे तर्क जायज क्यों नहीं हैं.

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कम टेस्टिंग रेट

टेस्टिंग की कम दर और ऊंची मृत्यु दर में संबंध के बारे में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री के दावे के एकदम उलट, भारतीय-अमेरिकी फिजीशियन और ऑन्कोलॉजिस्ट सिद्धार्थ मुखर्जी का कहना है कि प्रमुख पश्चिमी देशों की तुलना में भारत में अपेक्षाकृत कम मृत्यु दर का कारण काफी हद तक भारत में कम टेस्टिंग है. जबकि हमारे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ऊंची मृत्यु दर के लिए कम टेस्टिंग दर को जिम्मेदार मानते हैं, फिजीशियन और ऑन्कोलॉजिस्ट कम मृत्यु दर के लिए कम टेस्टिंग दर को जिम्मेदार मानते हैं. एक ही स्थिति को लेकर यह विपरीत व्याख्या रहस्यमय है.

गुजरात में टेस्टिंग रेट राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है. केरल, तेलंगाना, कर्नाटक और पंजाब जैसे राज्यों की टेस्टिंग रेट गुजरात की तुलना में बहुत कम है और अभी भी उनकी मृत्यु दर गुजरात के मुकाबले कम है.

गुजरात में टेस्टिंग रेट प्रति दस लाख आबादी पर 2540 है, जबकि केरल में सिर्फ 1662, मध्य प्रदेश में 1569, पंजाब में 2090 और तेलंगाना में 628 है. गुजरात की मृत्यु दर 6.04% है, जबकि केरल में सिर्फ 0.68%, पंजाब में 1.92%, तेलंगाना में 2.73% और मध्य प्रदेश में 4.41% है. इस तरह ऊंची मृत्यु दर और कम टेस्टिंग रेट के बीच संबंध दावे को नहीं साबित करता है.

एकमात्र राज्य जिसकी गुजरात से ज्यादा मृत्यु दर है वह पश्चिम बंगाल (7.95%) है. मृत्यु दर की गिनती में, बंगाल एकमात्र राज्य है जिसमें कोविड -19 से कुल मौतों में को-मॉर्बिटीज के कारण मौतें शामिल हैं और इससे राज्य में मृत्यु दर काफी हद तक बढ़ी हो सकती है.

उम्रदराज आबादी

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, कोविड-19 के कारण होने वाली कुल मौतों में से 95% मौतें 60 वर्ष से ज्यादा उम्र के लोगों की हुई हैं, जबकि आधी से ज्यादा मौतें 80 वर्ष से ज्यादा उम्र वर्ग लोगों की हुई हैं.

जनसंख्या के आयु वितरण के मामले में, फिर से गुजरात कई अन्य राज्यों की तुलना में, जिनकी मृत्यु दर कम है, ज्यादा युवा है.

2011 की जनगणना के अनुसार, गुजरात में सिर्फ 7.93% जनसंख्या 60 साल से ज्यादा उम्र की है, जबकि केरल और तमिलनाडु में क्रमशः 12.55% और 11.41% है. केरल में 80 वर्ष से ज्यादा उम्र की आबादी का अनुपात गुजरात की तुलना में लगभग दोगुना है.

इसी तरह गुजरात की तुलना में महाराष्ट्र और पंजाब में भी उम्रदराज लोगों का अनुपात ज्यादा है, लेकिन यहां कोविड-19 से मृत्यु दर गुजरात से कम है.

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को-मॉर्बिडिटी और COVID-19

कई शोधकर्ताओं ने यह बात सामने रखी है कि डायबिटीज, हार्ट की बीमारी, फेफड़े की बीमारी, हाइपरटेंशन और कैंसर जैसी पहले से मौजूद लंबी बीमारी होने से कोविड-19 के कारण लोगों की मौत का खतरा बढ़ जाता है. WHO ने बताया कि कोविड-19 के कारण हुई 10 में से 8 मौतों के मामले में मरने वाले शख्स को पहले से कम से कम एक बीमारी थी, खासकर हार्ट की बीमारी हाइपरटेंशन और डायबिटीज.

नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 में बताया गया है कि गुजरात की तुलना में केरल, महाराष्ट्र और राजस्थान में हार्ट डिजीज के मरीजों की संख्या लगभग दोगुनी है जबकि उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में हार्ट के मरीजों की संख्या तीन गुनी है.

इन बीमारियों के लिए NCB क्लीनिक में जाने वाले लोगों की संख्या के मामले में गुजरात कई राज्यों से काफी निचले पायदान पर है, जिनमें केरल, राजस्थान और महाराष्ट्र शामिल हैं. गुजरात में को-मॉर्बिडिटी के निम्न स्तर के बावजूद, गुजरात में मृत्यु दर ऊपर वर्णित राज्यों और राष्ट्रीय औसत से बहुत ज्यादा है. इस तरह को-मॉर्बिडिटी का तर्क भी गुजरात में ऊंची मृत्यु दर की व्याख्या करने की स्थिति में नहीं है.

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अंतरराष्ट्रीय आवागमन

ऐसा माना जाता है कि कोविड-19 बीमारी बाहर से भारत में आई है. स्वाभाविक रूप से जिस राज्य में ज्यादा अंतरराष्ट्रीय यात्री और कार्गो आते हैं, वहां कोविड-19 के अधिक संक्रमित मामले होंगे. लेकिन एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के अनुसार, अंतरराष्ट्रीय आवागमन की नजर से भारत का सबसे व्यस्त राज्य दिल्ली है.

मुंबई के छत्रपति शिवाजी महाराज इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर प्रतिवर्ष सबसे अधिक संख्या में अंतरराष्ट्रीय यात्री और कार्गो आते हैं. गुजरात का एकमात्र इंटरनेशनल एयरपोर्ट जो 20 सबसे व्यस्त इंटरनेशनल एयरपोर्ट्स (सरदार वल्लभभाई पटेल इंटरनेशनल एयरपोर्ट) की लिस्ट में है, दशकों से केरल (कोचीन इंटरनेशनल एयरपोर्ट) के साथ 7वें पायदान के लिए संघर्ष कर रहा है. जबकि अंतरराष्ट्रीय यात्रियों और कार्गो के मामले में 20 सबसे व्यस्त एयरपोर्ट्स की सूची में केरल के 3 इंटरनेशनल एयरपोर्ट शामिल हैं, उस सूची में गुजरात का सिर्फ एक एयरपोर्ट है.

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शहरीकरण

शहरी सेटअप में घनी बस्ती किसी भी संक्रामक बीमारी के लिए शहरी आबादी को ज्यादा जोखिम में डालती है. यहां फिर से, गुजरात की तुलना में केरल ज्यादा शहरीकृत है.

गुजरात की 42.58% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है जबकि केरल में 47.72% आबादी शहरी क्षेत्रों में रहती है. यहां तक कि महाराष्ट्र और तमिलनाडु भी गुजरात की तुलना में ज्यादा शहरीकृत हैं.

पश्चिम बंगाल में शहरीकरण गुजरात की तुलना में बहुत कम है, जबकि बंगाल में मृत्यु दर गुजरात की तुलना में ज्यादा है.

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बदनामी और COVID-19

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) के निदेशक रणदीप गुलेरिया का यह दावा कि गुजरात में ऊंची मृत्यु दर की वजह इस बीमारी से जुड़ा बदनामी (कलंक) है, इस पहेली को और रहस्यमय बनाता है. कम से कम संबंधित आंकड़े इस दावे से सहमति नहीं जताते.

यह आंकना मुश्किल है कि किस राज्य में अन्य राज्यों की तुलना में कोविड-19 से जुड़ी बदनामी की भावना ज्यादा गहरी है.

सबसे मुमकिन उपाय स्क्रीनिंग, क्वॉरन्टीन या अस्पताल में भर्ती होने में लोगों का प्रतिरोध हो सकता है. इस तरह के प्रतिरोध में अक्सर हेल्थ वर्कर, पुलिस और लोगों के बीच टकराव होता है.

डॉ. गुलेरिया का कहना है, “नाम खराब होने या क्वॉरन्टीन होने की आशंका के कारण, कुछ मरीज अस्पताल जाने या टेस्टिंग कराने से डरते हैं. जब वे पॉजिटिव होते हैं और देरी से आते हैं, तो इससे मौत का जोखिम बढ़ जाता है.

कई दूसरे राज्यों की तुलना में, गुजरात में कोविड-19 का इलाज करने की प्रक्रिया के दौरान लोगों और हेल्थ वर्कर या पुलिस के बीच कम झड़पें हुई. आज तक गुजरात में हेल्थ वर्कर के खिलाफ हिंसा का एक भी मामला नहीं है.

गुजरात में पुलिस पर हमले की दो रिपोर्ट दर्ज हुईं. एक मामले में, चार लोगों के एक समूह ने पुलिस वालों पर हमला किया जो उनके बीच निजी झगड़ा भी हो सकता है.

दूसरे मामले में वल्लभ-विद्यानगर कस्बे (आणंद जिला) में बदनामी का स्पष्ट मामला दिखता है जहां स्थानीय निवासियों ने पुलिस को उनके इलाके में एक शव का अंतिम संस्कार करने की इजाजत नहीं देने की कोशिश की. सूरत के अब्दुल मालाबारी ने कोविड -19 संक्रमण से मरने वाले लोगों के अंतिम संस्कार की सेवा देने में मिसाल हैं.

यहां तक कि केरल जैसे राज्यों में भी जिन्होंने संकट का सामना करने में बहुत अच्छा काम किया है, मरीजों और स्थानीय लोगों द्वारा हेल्थ वर्कर के साथ दुर्व्यवहार और भेदभाव के कई मामले देखे गए हैं.

खाड़ी से हाल ही में लौटे एक व्यक्ति ने एक आशा वर्कर के घर में घुस कर उस पर हमला किया और उसे थप्पड़ मारा, क्योंकि उसने उसके बारे में स्वास्थ्य अधिकारियों को खबर की थी. यहां तक कि सीपीआई (एम) के एक पूर्व सांसद ने कोझीकोड में हेल्थ वर्करों से कथित तौर पर दुर्व्यवहार किया.

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गुजरात की तुलना में, मध्य प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक सहित कई अन्य राज्यों में भी हेल्थ वर्कर और पुलिस पर हमलों की संख्या अधिक देखी गई, लेकिन वहां मृत्यु दर कम है. बिहार में कई ऐसे मामले देखे गए जहां लोग क्वॉरन्टीन सेंटर्स से भाग गए.

पंजाब और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में हेल्थ वर्कर पर एक भी हमले की सूचना नहीं है, लेकिन कोविड-19 के कारण उनकी मृत्यु दर काफी अधिक है. इस तरह कोविड-19 से जुड़ी बदनामी और ऊंची मृत्यु दर के बीच बताया गया सह-संबंध सच्चाई से परे लगता है.

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हेल्थकेयर पर जनता का भरोसा

हेल्थ वर्कर या पुलिस वालों पर सभी हमलों को कोविड-19 से जुड़ी बदनामी से नहीं जोड़ा जा सकता. अस्पतालों या क्वॉरन्टीन सेंटर में स्वास्थ्य सेवाओं में लापरवाही को लेकर हमले को बदनामी से नहीं जोड़ा जा सकता है.

इसी तरह प्रवासी कामगारों द्वारा लॉकडाउन नियमों के खिलाफ पुलिस वालों पर हमले को बदनामी से नहीं जोड़ा जा सकता है. जैसा कि ऊपर चर्चा की गई है, ऐसे हमले गुजरात और पश्चिम बंगाल में हुए थे.

इस तरह के हमले राज्य में सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की खस्ता हालत बारे में ज्यादा बताते हैं और कोविड-19 से जुड़ी बदनामी के बारे में कम.

ऊंची मृत्यु दर के लिए संदर्भ से हटकर बदनामी को दोष देने से मरीजों और लोगों के लिए खराब स्वास्थ्य सुविधाओं और सेवाओं की भूमिका की अनदेखी होती है.

द इंडिपेंडेंट के साथ इंटरव्यू में, गुरुग्राम के एक अस्पताल में आईसीयू विभाग के प्रमुख डॉ. सुमित रे ने दावा किया कि, एकमात्र उचित समाधान, जनता का भरोसा वापस हासिल करना है. “इस लंबी लड़ाई में हमें लोगों का भरोसा हासिल करना होगा और सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली में सुधार करना होगा.”

वे कहते हैं. “जहां भी अच्छी गुणवत्ता है, जवाबदेह हेल्थ सिस्टम है- और मैं उदाहरण के रूप में एनएचएस का नाम लेता हूं- तथ्य यह है कि वहां भरोसा है.”

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(संजीव कुमार TISS में प्रोग्राम मैनेजर हैं. ये लेखक के अपने विचार हैं. उनसे subaltern1@gmail.com पर संपर्क किया सकता है.)

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