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"कोटा छोड़ दिया पर उसके ट्रॉमा ने पीछा नहीं छोड़ा"- छात्रों के स्ट्रेस का जिम्मेदार कौन?

Kota Coaching: अकेले खाना, अकेले पढ़ना और अकेले रहना, यही कोटा के छात्रों की जिंदगी है. कोटा में पढ़ने वाले छात्रों की ऐसी रुटीन है कि वो दोस्त भी नहीं बना पाते हैं.

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"अपने आसपास देखो. इस क्लास में सभी तुम्हारे कंपटीटर हैं. तुम्हारा कोई दोस्त नहीं है." ये शब्द स्तुति (बदला हुआ नाम) के हैं. स्तुति, राजस्थान के कोटा में कोचिंग (Kota Coaching) में कोचिंग के अपने पहले दिन का अनुभव बताती हैं. वह कहती हैं कि 150 कोचिंग संस्थानों में शामिल एलन करियर इंस्टीट्यूट में पहले दिन 2014 में कथित तौर पर यही बताया गया था. एक साल में यहां नीट और जेईई की तैयारी के लिए 1.25 लाख लोग एडमिशन लेते हैं.

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अब अमेरिका से पीएचडी स्कॉलर स्तुति अभी भी पिछले नौ साल में कोटा के सदमे से उबर नहीं पाई हैं. वे फिट को बताती हैं कि "वहां के शिक्षक छात्रों के बीच लगातार एक नकारात्मक कंपीटिशन को बढ़ावा देते हैं. वे हमें हमेशा याद दिलाते रहते हैं कि हममें से कोई भी वास्तव में एक-दूसरे का दोस्त नहीं हो सकता."

क्या कोटा के सभी कोचिंग संस्थानों में यही माहौल है, जहां केवल इस साल कम से कम 26 छात्रों ने आत्महत्या कर ली. फिट ने कोचिंग छात्रों से यह समझने कि कोशिश की कि कोचिंग छात्रों के लिए सिस्टम और सख्त नियम कैसे बनाए जाते हैं, जिससे वो किसी साथ पढ़नेवाले के साथ दोस्त नहीं कर पाते हैं?

'समय की कमी और लगातार बड़ों का प्रेशर'

15 साल के अभिज्ञान कुमार कोटा के अनअकेडमी में नीट की तैयारी करने के लिए एडमिशन लेनेवाले 4 हजार छात्रों में से एक हैं. अभिज्ञान के लिए कोटा में अलग-थलग रहने की बात अजीब या हैरान करनेवाला नहीं है. वे फिट को बताते हैं...

"आप कोटा आते हो. कोचिंग संस्थान में एडमिशन लेते हो. क्लास जाते हो, पढ़ते हो. फिर वहां से होस्टल जाते हो, फिर पढ़ते हो. कोटा में यही लाइफ है. इस अलग-थलग की जिंदगी के लिए कोई जिम्मेवार नहीं है."

ऐसा किस लिए? वे कहते हैं, यहां दोस्त होना और न होना एक समान है.

"अगर दोस्त बना भी लो तो तो उनके लिए समय कहां है?" अनएकेडमी के छात्र पावस मोहबंसी (16) कहते है.

हर दिन, पावस कोचिंग में 6-8 घंटे पढ़ते हैं. इसके बाद, वे सेल्फ स्टडी और अपने होमवर्क असाइनमेंट को पूरा करने के लिए लाइब्रेरी में जाते हैं. इन कामों के बाद उन्हें कोचिंग सेंटर में होनेवाली वीकली परीक्षाओं के लिए पढ़ना होता है. उसको रिवाइज करना होता है. अगर कोई छुट्टी मिलती है तो जो लेक्चर छूट गई होती हैं, सबजेक्ट का वह उस दिन क्लास लेते हैं.

लेकिन समय की कमी एकमात्र कारण नहीं है कि कोटा में छात्र अक्सर दोस्त बनाने में असमर्थ होते हैं. अभिज्ञान कहते हैं, "हमारे पास दोस्त नहीं हैं क्योंकि यहां हर कोई एक दूसरे को प्रतिस्पर्धी यानी कंपटीटर मानता है."

दूसरों को कंपटीटर मानने का आइडिया सिर्फ टीचर का नहीं है. 20 साल के वेदांत रिनवा जिन्होंने पिछले साल एलन में पढ़ाई की थी. वे नीट की तैयारी कर रहे थे. वेदांत कहते हैं कि मैंने हॉस्टल में दोस्त बनाया था पर वार्डन हर बार छात्रों के ग्रुप को देखकर कमेंट करता था.

वे बताते हैं "अगर हॉस्टल वार्डन 2-3 लोगों को एक साथ बैठे देखता, तो वह कहता, 'तुम लोग पढ़ना नहीं चाहते, खाना खाने के लिए ग्रुप में क्यों बैठे हो?"

जब क्विंट फिट ने कोटा हॉस्टल ऑनर्स एसोसिएशन के सदस्यों से संपर्क किया, तो उन्होंने ऐसे किसी भी आरोप से इनकार कर दिया.

हालांकि, कोटा के एक अन्य कोचिंग संस्थान मोशन एजुकेशन में फिजिक्स के टीचर विक्रम सिंह मीना ने कहा कि छात्र अकेलापन महसूस कर सकते हैं, लेकिन माता-पिता को इस मामले में बेहतर करने की जरूरत है.

“यहां छात्रों के पास दोस्त बनाने का समय नहीं है इसलिए वे अकेलापन महसूस करते हैं. माता-पिता को यह समझने की जरूरत है कि उन्हें अपने बच्चों से हर रोज बात करनी चाहिए और अपनी जिम्मेदारी से पीछे नहीं हटना चाहिए."

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रैंकों के आधार पर बनी कुछ देर की दोस्ती

कई अन्य छात्रों की बीच उनकी दोस्ती क्षणभंगुर थीं क्योंकि वे रैंक देखकर की गई. नोएडा स्थित 27 साल की सलाहकार अपूर्वा शर्मा नीट की तैयारी के लिए 2011 से 2013 तक कोटा में रहीं. जिन दो साल वे वहां थी, उन्हें दोस्त बनाने में सबसे ज्यादा मुश्किल हुई.

वह याद करती हैं कि छात्र एक-दूसरे के साथ नोट्स शेयर नहीं करते थे, वे पढ़ाई में एक-दूसरे की मदद नहीं करते थे और अधिकांश दिन, वे एक-दूसरे के साथ बातचीत भी नहीं करते थे.

“माता-पिता और शिक्षकों ने हमारे अंदर यह बात बैठा दी थी कि ‘पढ़ने वाले बच्चों के साथ ही पढ़ाई होती है’. जब मैं एक वीकली परीक्षा में टॉप 100 में जगह नहीं बना पाई तो दो लड़कियों ने मुझसे कन्नी काट ली और मुझसे बात करना बंद कर दिया."
अपूर्वा शर्मा

कोटा में छात्रों के लिए तनावपूर्ण होते हुए भी, ये साप्ताहिक परीक्षाएं यानी वीकली एग्जाम एक निश्चित लेवल का महत्व रखती हैं.

शुरुआती महीनों में इन परीक्षाओं के आधार पर, कोचिंग संस्थान लगातार टॉप करने वाले छात्रों या "क्रीम लेयर" जैसा कि उन्हें कहा जाता है, उन छात्रों की पहचान करते हैं और उन्हें अलग करते हैं. इन छात्रों को एक अलग बैच में रखा जाता है जिन्हें सर्वश्रेष्ठ शिक्षक पढ़ाते हैं और संस्थान के अपने निजी हॉस्टल में रहने की जगह दी जाती है.

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क्विंट FIT ने ईमेल के जरिए एलन करियर इंस्टीट्यूट, बंसल क्लासेज, रेजोनेंस और अनएकेडमी से संपर्क किया, ताकि यह समझा जा सके कि ये संस्थान छात्रों के लिए एक स्वस्थ वातावरण को बढ़ावा देने के लिए क्या कर रहे हैं? वे छात्रों के बीच पारस्परिक संबंधों और दोस्ती को कैसे प्रोत्साहित कर रहे हैं और शहर में बढ़ती छात्र आत्महत्या दर के बीच छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य के लिए वे क्या कदम उठा रहे हैं?

आर्टिकल लिखने तक कोटा के कोचिंग संस्थान 'मोशन क्लास' को हमने कई बार कॉल लगाया लेकिन उधर से किसी ने फोन नहीं उठाया.

हालांकि, हाल ही में 27 सितंबर को राजस्थान सरकार ने गाइडलाइन जारी की. राज्य ने कोचिंग संस्थानों से कहा है कि वे अब रैंक के आधार पर छात्रों को अलग न करें क्योंकि इससे उन पर अतिरिक्त दबाव पड़ता है.

कोटा में कई छात्रों की आत्महत्या के बाद राज्य सरकार की ओर से जारी किए गए ये गाइडलाइन कोचिंग इंडस्ट्री से जुड़े विभिन्न संस्थानों, छात्रावासों, मीडियाकर्मियों, पुलिस अधिकारियों आदि के साथ परामर्श के बाद तैयार किए गए थे.

कुछ गाइडलाइन इस प्रकार है...

  • संस्थानों को परीक्षा रिजल्ट गोपनीय रखना चाहिए

  • विद्यार्थियों के लिए एक सप्ताह पर छुट्टी अनिवार्य होना चाहिए

  • छात्रों को उनके अंकों के कारण अलग-अलग बैचों में बांटा नहीं जाना चाहिए

  • कोचिंग संस्थान कक्षा 9 से नीचे के छात्रों का नामांकन नहीं कर सकते हैं

  • कोचिंग संस्थानों को छात्रों के लिए नियमित काउंसलिंग सेशन आयोजित करने की आवश्यकता है और शिक्षकों को भी उनसे निपटने के लिए प्रशिक्षित करने की जरूरत है

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'उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी': परिवार पर इमोशनल निर्भरता

आमतौर पर जब छात्रोंं को किसी नए शहर में दोस्त बनाने में दिक्कत होती है, तो उन्होंने माता-पिता या भाई-बहनों से इमोशनल सपोर्ट की दरकार होती है. हालांकि, आश्चर्य की बात यह है कि कोटा जाने वाले छात्रों के मामले में ऐसा नहीं है.

जब अपूर्वा पहली बार कोटा आई, तो ओरिएंटेशन के दौरान वे परेशान हो गईं और उन्होंने अपने माता-पिता से घर वापस ले जाने के लिए कहा.

“उन्होंने मेरी बात नहीं सुनी. उन्होंने मुझसे कहा 'बेटा, कुछ कर के ही आना है' (अच्छा स्कोर करने के बाद तुम वापस आ सकते हो) और फिर पूछा 'लोग क्या कहेंगे”

यह महसूस करते हुए कि उसके माता-पिता ने कोटा में उसकी पढ़ाई पर 4 लाख रुपये से अधिक खर्च किए हैं, अपूर्वा को लगा कि वह उनसे खुलकर बात नहीं कर सकती और वे उन्हें निराश भी नहीं कर सकती हैं.

वह कहती हैं, ''मुझे पता था कि मैं अपने लक्ष्य से नहीं भटक सकती थी और यहां दोस्त नहीं बना सकती, मुझे पढ़ाई करनी थी."

वहीं, कोटा में पढ़ाई कर रहे अभिज्ञान ने भी इस साल करीब 2.2 लाख रुपये खर्च किए हैं. इसमें 1.2 लाख रुपये कोचिंग फीस, 5 हजार रुपये प्रति माह हॉस्टल फीस और 3,200 रुपये प्रति माह कैंटीन/मेस का फीस शामिल है.

कोटा के कोचिंग सेंटरों माता-पिता और छात्रों पर समान रूप से डाला जाने वाला वित्तीय बोझ कोई नई बात नहीं है. हाल ही में जारी किए गए अपने दिशानिर्देशों में, राजस्थान सरकार ने कोचिंग संस्थानों से यह सुनिश्चित करने के लिए कहा कि यदि छात्र पढ़ाई छोड़ना चाहते हैं तो कोचिंग को छोड़ने की आसान पॉलिसी हो.

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लेकिन जब छात्रों को डर होता है कि पढ़ाई छोड़ कर वे अपने परिवार को शर्मिंदा करेंगे, तो ऐसे में पैसे वापस करने से भी कोई खास मदद नहीं मिलती.

मुंबई स्थित कॉर्पोरेट कर्मचारी अंशल ठाकुर (35) के साथ भी यही मामला था. उनकी बड़ी बहन पत्रकार अश्लेषा ठाकुर (36) फिट को बताती हैं...

“मैं अपने भाई के बहुत करीब हूं. वो मुझसे हर बात शेयर करता था लेकिन उसने कोटा में अपने बिताए टाइम के बारे में मुझसे कभी बात नहीं की. वह वहां जाने के बाद थोड़ा चुप रहना लगा. उसका नेचर लोगों से घुलमिलकर रहनेवाला है लेकिन उन्होंने कोटा में कोई दोस्त नहीं बनाया. वह कोटा छोड़ना चाहता था लेकिन उसे डर था कि अगर वह घर वापस आया तो उसका मजाक उड़ाया जाएगा और शर्मिंदा किया जाएगा.''

कोटा जाने के कुछ महीनों बाद, जब अंशल के पिता उनसे मिलने गए, तो उन्होंने उसे कमजोर और परेशान पाया. उन्होंने तुरंत उसे वापस पटना लाने का फैसला किया. ये 2006 की बात है. 2023 में भी कोटा के हालात में कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है.

बच्चों का परेशान होना और अलग-थलग महसूस करना भी एक कारण है कि दिल्ली में यूपीएससी के अभ्यर्थी अक्षय शर्मा (28) अपने छोटे भाई व्योम शर्मा को कोटा से वापस ले आए.

“कोटा जाने के बाद, (व्योम) हमारे साथ बहुत कम चीजें शेयर करता था. पहले वह हमें परीक्षा, तनाव, क्लास और शिक्षकों आदि के बारे में बताता था, लेकिन बाद में इनमें से किसी भी चीज के बारे में बात नहीं कर रहा था.'
अक्षय शर्मा
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जबकि व्योम ने जेईई की तैयारी के लिए एक निजी संस्थान में दाखिला लिया था, लेकिन उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा और उसे "दोस्तों के बिना कोटा में रहना मुश्किल" लगा. वहां उसने कुछ दोस्त बनाए थे, जिनमें कई ने पढ़ाई छोड़ दी और कोटा भी छोड़ दिया.

हॉस्टलों और शिक्षकों ने आरोपों को खारिज किया

अभिज्ञान के अनुसार, कोटा में छात्र कई तरह से तनाव झेल रहे होते हैं, इसी बीच हॉस्टल में सिंगल रूम में अकेले रहना, तनाव को और बढ़ाते ही हैं. वह कहते हैं...

''उन कमरों में बहुत अकेलापन महसूस होता है. अकेले रहना, अकेले खाना, 10*10 के कमरे में ज्यादातर शामें अकेले बिताना, उनकी सहन शक्ति से बाहर है."

लेकिन हॉस्टल यहां ऐसे किसी आरोप को खारिज करते हैं.

कोटा हॉस्टल ओनर्स एसोसिएशन के महासचिव पंकज जैन का कहना है कि कुछ साल पहले तक शहर के ज्यादातर हॉस्टल और पीजी में डबल या ट्रिपल शेयरिंग रूम होते थे लेकिन पिछले कुछ साल में सिंगल रूम की मांग बहुत बढ़ गई है. पंकज बताते हैं कि 2023 में हॉस्टल के सभी डबल या ट्रिपल-शेयरिंग रूम खाली रह जाएंगे.

“माता-पिता सिंगल रूम की मांग करते हैं. उनका मानना ​​है कि बच्चे डिस्टर्ब न हों और पढ़ाई पर बेहतर ध्यान दें. यहां तक ​​कि हमें शेयरिंग रूप में अक्सर विवादों को सुलझाना पड़ता है- एक छात्र सोना चाहता है, दूसरा पढ़ना चाहता है, इसलिए ये चीजें एक मुद्दा बन जाती हैं और छात्र एक-दूसरे के साथ दोस्ती नहीं कर पाते."
पंकज जैन, कोटा हॉस्टल ओनर्स एसोसिएशन के महासचिव
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वह आगे कहते हैं कि अधिकांश हॉस्टल में वैसे भी कॉमन एरिया होता है, जहां छात्र बातचीत कर सकते हैं लेकिन, बहुत से छात्रों का स्वभाव "फ्रेंडली" नहीं होता. इसलिए हॉस्टल इस बारे में कुछ नहीं कर सकते हैं.

हॉस्टल एसोसिएशन के अध्यक्ष नवीन मित्तल, पंकज से सहमत हैं. हालांकि, उन्होंने तुरंत इसका दोष पीजी पर मढ़ दिया. वे कहते हैं...

"छात्र हॉस्टल के मेस या कॉमन एरिया में दोस्त बन जाते हैं. शायद छात्र का अकेलापन महसूस करने का मामला पीजी में है, जहां छात्र मकान मालिकों के साथ रहते हैं और वे शोर नहीं कर सकते या बहुत सारे नियमों के साथ रहते हैं."

वह आगे कहते हैं, "और जहां तक ​​कंपीटीशन यानी प्रतिस्पर्धा की बात है तो यह जरूरी है. जब कंपीटीशन होगा, तभी छात्र कड़ी मेहनत करेंगे और सफल होंगे. उन्हें इसे सकारात्मक नजरिये से देखना चाहिए."

बंसल क्लासेज में फिजिक्स के शिक्षक मोहम्मद गुफरान इस बात से इनकार करते हैं कि यहां अकेलापन की कोई समस्या है. उनका कहना है..."आजकल के छात्र एक-दूसरे से बातचीत नहीं करना चाहते क्योंकि वे "हमेशा अपने फोन पर व्यस्त रहते हैं."

यह दावा करते हुए उन्होंने कहा कि शिक्षक छात्रों के बीच कोई "कंपीटीशन भावना" पैदा नहीं करते हैं बल्कि उन्हें एक-दूसरे की मदद करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. गुफरान ने फिट को बताया...

“अपने खाली समय में या खाना खाते समय भी छात्र रील देखते हैं या सोशल मीडिया पर स्क्रॉल कर रहे होते हैं. वे दूसरे लोगों से बात नहीं करना चाहते. इसलिए वे दोस्त नहीं बना पाते हैं."

गुफरान की तरह, मोशन एजुकेशन के विक्रम भी कहते हैं कि शिक्षक बच्चों को दूसरों की मदद करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं, लेकिन उनका कहना है कि, "जब छात्रों को पढ़ाई करनी हो तो उन्हें दूसरे बच्चों की मदद करने या उन्हें पढ़ाने के लिए बहुत अपना समय नहीं देना चाहिए, क्योंकि उनके चारों तरफ कंपीटीशन है."

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सहपाठियों का साथ मिले तो कर सकते हैं बहुत बेहतर

एम्स दिल्ली में मानसिक स्वास्थ्य चिकित्सक संचिता जैन कहती हैं, कोटा में छात्रों के लिए सपोर्ट सिस्टम की कमी चिंताजनक है. वह कहती हैं कि इमोशनल सपोर्ट की कमी अक्सर युवाओं को हाशिये पर ढकेल सकती है.

वाशी के फोर्टिस मुलुंड और हीरानंदानी अस्पताल में सलाहकार मनोचिकित्सक डॉ. केदार तिलवे इस सहमत हैं. उनकी सलाह है कि सहपाठी सपोर्ट ग्रुप बनाएं और अपनी भावनात्मक जरूरतों (इमोशनल नीड) को अपने परिवार और दोस्तों से शेयर करें.

जब मेंटल हेल्थ की समस्या इतनी जटिल है तो ऐसे में कोटा में छात्रों की मदद के लिए हॉस्टल और कोचिंग संस्थान क्या कर रहे हैं? नवीन, जिनकी पूरे कोटा में हॉस्टल हैं, फिट को छात्रों के स्ट्रेस को रोकने के लिए उठाए गए कदम के बारे में बताया, वे इस प्रकार हैं...

  • अपने स्टाफ सदस्यों को परामर्श देना

  • यह जानने के लिए कि छात्र कहां हैं, दोपहर और रात का खाना सभी छात्र ने खाया, ये सुनिश्चित करना

  • छात्रों से व्यक्तिगत रूप से बात करने के लिए स्टाफ सदस्यों को नाइट विजिट पर भेजना

  • यह पहचानना कि क्या कोई छात्र परेशान है

  • विद्यार्थियों के कमरों के पंखों में स्प्रिंग लगाना

26 साल के शांतनु शर्मा, जो 2015-16 में वाइब्रेंट एकेडमी के छात्र थे, उनका अगर साथ पढ़नेवाले सपोर्ट करते तो उनके लिए चीजें काफी अलग होतीं. वे कहते हैं...

“हर कोई एक ही समस्या से गुजर रहा था. इसलिए हमें नहीं लगा कि हमें मदद मांगनी चाहिए. इतनी कम उम्र में आप जिस तरह का अकेलापन महसूस करते हैं, वह आपका पीछा कभी नहीं छोड़ता. मैंने कोटा छोड़ दिया है लेकिन कोटा और ट्रॉमा ने अभी भी मेरा पीछा नहीं छोड़ा है.”

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