भारत में करीब 5 हजार साल पहले आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली की उत्पत्ति हुई. मानव शरीर की हर प्रणाली को समझते हुए आयुर्वेद में कई विशेषज्ञ हुए हैं, उनमें आचार्य कश्यप स्त्री रोग और प्रसूति के विशेषज्ञ माने जाते हैं.
इस विषय पर उनकी अपनी एक अलग संहिता है, जिसे 'कश्यप संहिता' के नाम से जाना जाता है. महान आचार्य चरक, सुश्रुत और वाग्भट का भी आयुर्वेदिक गाइनेकोलॉजी में बड़ा योगदान है.
महिलाओं के प्रजनन शरीर विज्ञान के बारे में आयुर्वेद का बहुत ही अनूठा दृष्टिकोण है. मासिक धर्म चक्र महिलाओं की प्रजनन प्रणाली का केंद्र है.
मेंस्ट्रुअल साइकिल और त्रिदोष
आयुर्वेद त्रिदोषों (वात, पित्त, कफ) के मूल सिद्धांत के आधार पर मासिक धर्म को भी समझता है. आयुर्वेद के अनुसार प्रजनन शरीर विज्ञान और मासिक धर्म चक्र इन्हीं तीन दोषों द्वारा नियंत्रित होता है और इन्हीं के अनुसार मासिक धर्म चक्र को तीन चरणों में विभाजित किया गया है.
1. वात चरण (अवधि: 1-5 दिन)
ये पीरियड के पहले दिन से शुरू होता है.
प्रजनन प्रणाली में वात का मुख्य कार्य गर्भाशय का संकुचन है ताकि रक्त की नीचे की ओर गति हो सके.
अगर वात असंतुलित है या ठीक से काम नहीं कर रहा है तो इसका मुख्य लक्षण दर्द है. यह असंतुलित वात द्वारा असमान या अत्यधिक गर्भाशय संकुचन के परिणामस्वरूप होता है.
इसके लक्षण दर्द, चिंता, अनिद्रा, कम भूख, पाचन में गड़बड़ी, कब्ज या लूज मोशन हो सकते हैं.
2. कफ चरण (अवधि: 4-14 दिन)
ये पीरियड खत्म होने पर शुरू होता है और ओव्यूलेशन (अंडोत्सर्ग) से पहले समाप्त होता है.
प्रजनन प्रणाली में यह अंडाशय में अंडे के वृद्धि और विकास के लिए जिम्मेदार होता है और इस चरण के दौरान गर्भाशय के आंतरिक अस्तर का वृद्धि और विकास भी शामिल है.
अगर प्रजनन प्रणाली में कफ असंतुलित है या ठीक से काम नहीं कर रहा है, तो अंडा और गर्भाशय की आंतरिक परत अच्छी तरीके से विकसित नहीं होगी.
यह अंततः बांझपन, पीरियड्स के दौरान कम ब्लीडिंग का कारण बन सकता है. इसके अलावा शरीर में भारीपन, सुस्ती, वजाइनल डिस्चार्ज, वाटर रिटेंशन भी जैसे लक्षण भी नजर आ सकते हैं.
3. पित्त चरण (अवधि: 14-18 दिन)
ये ओव्यूलेशन के साथ शुरू होता है और अगली अवधि के साथ समाप्त होता है.
प्रजनन प्रणाली में पित्त अपने ऊष्ण गुण की मदद से ओव्यूलेशन में मदद करता है और गर्भाशय की आंतरिक परत में ऐसे परिवर्तन लाता है, जिससे ये प्रेग्नेंसी के लिए तैयार होती है. पित्त गर्भाशय के अंदरूनी अस्तर को अधिक ग्रहणशील बनाता है.
अगर पित्त ठीक से काम नहीं कर रहा है, तो ओव्यूलेशन समय पर नहीं होगा और एंडोमेट्रियम गर्भ को ग्रहण नहीं करेगी, जिसके परिणामस्वरूप बांझपन हो सकता है.
इस चरण में देखे गए असंतुलित पित्त के दूसरे लक्षण क्रोध, चिड़चिड़ापन, मूड स्विंग, मुंहासे या ब्रेकआउट, त्वचा पर चकत्ते, सिर दर्द हो सकते हैं.
मासिक धर्म चक्र से जुड़ी समस्याओं का आयुर्वेदिक उपचार
आयुर्वेदिक उपचार में मासिक धर्म चक्र को गहराई से समझना महत्वपूर्ण होता है. आधुनिक चिकित्सा में भी मासिक धर्म को तीन चरणों में वर्गीकृत किया गया है, जो आयुर्वेद में वात, कफ और पित्त चरण से मेल खाते हैं.
मॉडर्न मेडिसिन में सीधे रासायनिक रूप में हार्मोन प्रदान करके स्त्री रोग संबंधी विकारों का इलाज किया जाता है ताकि लक्षण गायब हो जाएं.
वहीं आयुर्वेद में विभिन्न जड़ी-बूटियों से इन विकारों के लिए जिम्मेदार जैविक ऊर्जा में सुधार किया जाता है. यही कारण है कि आयुर्वेदिक उपचार में कोई साइड इफेक्ट नहीं होता और समस्या की जड़ को ठीक किया जाता है.
मेंस्ट्रुअल दिक्कतों में सबसे आम 'पीरियड पेन' का ही उदाहरण लें. एलोपैथी पीरियड्स के दर्द को पेन-किलर, एंटीस्पास्मोडिक्स, एंटी-इंफ्लेमेटरी या स्टेरॉयड से ट्रीट करती है. ये दवाएं कुछ समय के लिए दर्द का सामना कर सकती हैं, लेकिन इनमें से कोई भी विकल्प मूल कारण का इलाज नहीं कर सकता है और इसलिए प्रभाव अस्थाई रहता है.
इसके अलावा इसके कई साइडइफेक्ट भी हो सकते है, जैसे वजन बढ़ना, मूड स्विंग्स, हर बार गोली खाने की आदत पड़ जाना, एसिडिटी.
दूसरी ओर आयुर्वेद अपनी मूल समझ के अनुसार, कुमारी, दशमूल, देवदारू, हरितकी जैसी कई जड़ी-बूटियों से वात ऊर्जा में सुधार करता है, जिससे असमान संकुचन कम होता है और दर्द में लंबे समय तक राहत मिलती है.
स्त्री रोगों में आयुर्वेदिक इलाज में जल्द आराम नहीं मिलता, ये सिर्फ एक मिथ है. आयुर्वेद पीरियड दर्द, श्वेत प्रदर, चक्र अनियमितताओं, रक्तस्राव संबंधी असामान्यताओं के साथ-साथ पॉलिसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम (PCOD), पेल्विक इंफ्लेमेटरी डिजीज (PID), एंडोमेट्रियोसिस, एडेनोमायोसिस, ओवेरियन सिस्ट, फाइब्रॉएड, बांझपन का कुशलतापूर्वक और सुरक्षित रूप से इलाज कर सकता है.
(डॉ आरती पाटिल, एमडी, गाइनेकोलॉजी आयुर्वेद Gynoveda की चीफ डॉक्टर हैं.)
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