फिट ने हाल ही में ग्लोबल हेल्थ स्ट्रेटेजिस (जीएचएस) के साथ मिलकर भारत में प्रजनन अधिकार और गर्भपात विषय पर वर्कशॉप का आयोजन किया. इसमें वक्ताओं ने जिन विषयों पर चर्चा की, उसमें गर्भापत पर किस तरह संवेदनशील तरीके से बातचीत करने की जरूरत है और क्यों इसमें भाषा का (सिर्फ मौखिक नहीं) पूरी तरह सही होना महत्वपूर्ण है, शामिल था.
इसमें चर्चा का एक आधार यह भी था कि गर्भपात एक ऐसा सामान्य अनुभव है, जो देशभर में कई महिलाओं को होता है. इसके बावजूद यह प्रत्येक मामलों में अनोखा और हर किसी के लिए अलग-अलग होता है. गर्भपात के दो मामले एक समान नहीं होते हैं. ऐसे में किस तरह से इनकी व्याख्या की जा सकती है?
गर्भपात पर रिपोर्टिंग के लिए दिशा-निर्देश
जब हम गर्भपात और प्रजनन अधिकार जैसे संवेदनशील विषयों पर बात करते हैं, ऐसे में शब्दावली और दृश्य संकेत अत्यंत महत्वपूर्ण होते हैं.
मीडिया में गर्भपात के बारे में बातचीत करने के लिए यहां कुछ बुनियादी दिशानिर्देश दिए गए हैं:
कई बार गर्भपात जैसे विषय पर बातचीत के दौरान गलत शब्दावली का इस्तेमाल देखा गया है. जैसे एक लाइव ऑडियंस टेलीविजन शो के एडवरटोरियल के लिए एक महिला को दो विकल्प दिए गए- ‘भगवान से खिलवाड़ (गर्भपात)’ और ‘मातृत्व की रक्षा (गर्भापत नहीं कराना).’ 20 हफ्ते से कम के भ्रूण के लिए खुलकर ‘बेबी’ या ‘चाइल्ड’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है. हेडलाइन को इस तरह से लिखा जाता हैः ‘मां से उसके बच्चों को मारने के लिए कहा.'
इसके अलावा गर्भपात की बात करते समय जब हम 'मातृत्व' के विचारों का आह्वान करते हैं, इससे महिला पर अनावश्यक दबाव पड़ने की संभावना होती है. वो महिला, जो पहले से ही शारीरिक और भावनात्मक रूप से बहुत दबाव में है.
फेडरेशन ऑफ ऑब्स्ट्रेटिक एंड गाइनाकोलॉजिकल सोसाइटीज ऑफ इंडिया (एफओजीएसआई) के डॉ नोजर शेरियर इस बात पर जोर देते हैं कि भारत में गर्भपात और प्रजनन स्वास्थ्य के मामले में बातचीत का अभाव है. यही कारण है कि हम मुख्यधारा में इस तरह के विषयों पर बातचीत करने से बचते हैं.
इपास डेवलपमेंट फाउंडेशन के कार्यकारी निदेशक विनोज मैनिंग इस बात को दावे से कहते हैं कि अगर बातचीत में जागरुकता और संवेदनशीलता का अभाव हो, तो यह सही की तुलना में ज्यादा नुकसानदायक है.
रूढ़िवादी सोच से लड़ाई
गर्भपात के बारे में अधिक से अधिक बातचीत और इस बात को फिर से बहाल करना होगा कि यह एक सामान्य मेडिकल प्रक्रिया है. सामान्य रूप से बातचीत के जरिये इस सोच से लड़ने में मदद मिलेगी. डॉ. शेरियर के साथ ही जीएचएस की निदेशक नंदिता सुनेजा इस बात पर सहमत हैं कि लोगों को इसके बारे में ध्यान दिलाना महत्वपूर्ण है. इस विषय के साथ जुड़े कलंक के बारे में सक्रिय रूप से बातचीत की जरूरत है.
सामान्यीकरण न सिर्फ वक्त की जरूरत है बल्कि ऐसी चीज है, जिसे लोग चाहते हैं. हमारी प्रमुख चितांओं में से एक महिलाओं के यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य है.
गलत इलाज की तरफ ले जाती है रूढ़िवादी सोच
भारत में साल 2015 में 1.56 करोड़ गर्भपात (लैंसेट स्टडी ) हुए. ऐसे में ‘कलंक’ की चिंता लोगों के बीच गर्भपात के बारे में बातचीत का बाधक नहीं बनना चाहिए.
जब बात कलंक की आती है, तो इस बारे में एक और अति महत्वपूर्ण चिंता नीम हकीमी या फर्जी क्लीनिक और असुरक्षित गर्भपात की है. महिलाएं क्लीनिक जाने के लिए के लिए संदेहास्पद बहाने बनाती हैं और खुद को असुरक्षित इलाज के तरीकों में उलझा लेती हैं. इसका कारण यह है कि इस संबंध में वे अपने परिवार से मदद मांगने में डरती हैं.
हमें एक लड़की की कहानी पता लगी, जो शादी से पहले प्रेगनेंट हो गई थी. उसने यह बात अपनी बड़ी बहन, जिसकी शादी होने वाली थी, को बताई. इस पर बड़ी बहन ने पहले तो उसे नैतिकता का पाठ पढ़ाया, फिर उसे एक दाई के पास लेकर गई. दाई ने उस प्रेगनेंट लड़की पर अपने सवालिया तौर-तरीके आजमाएं.
अंत में लड़की ने प्रेगनेंसी की बात अपने पार्टनर को बताई. वह बहुत सपोर्टिव था, उसने तुरंत लड़की के सामने शादी का प्रस्ताव रखा. तब इसके बाद लड़की का सही तरीके से इलाज हुआ. इसमें पता चला कि भ्रूण की धड़कन बंद थी. सर्जरी से भ्रूण को निकाला गया, जिससे लड़की का गर्भाशय स्थायी रूप से क्षतिग्रस्त हो गया.
समाज को जागरूक करने में मीडिया की भूमिका
इस बारे में बातचीत को सामान्य बनाने में मीडिया, विशेष रूप से वर्चुअल मीडिया की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है. एक सर्वे कहता है कि भारत में करीब 50 करोड़ स्मार्टफोन यूजर्स अपना अधिकतर समय (72 प्रतिशत) मोबाइल पर नेट सर्फिंग में बिताते हैं.
भारत जैसे देश में जहां हर साल 45 हजार महिलाएं बच्चे को जन्म देने संबंधी कारणों से मर जाती हैं (स्रोतः विश्व स्वास्थ्य संगठन), इस संबंध में संवाद की जरूरत है. इसके प्रभाव की संभावना बहुत बड़ी है.
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