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होम्योपैथी अगर बेकार है तो क्यों लाखों लोग इस पर यकीन करते हैं?

जानिए, क्या कहता है विज्ञान होम्योपैथी के बारे में?

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होम्योपैथी कोई बेवकूफाना टोटका या जुगाड़ नहीं है. यह 200 साल से भी ज्यादा पुरानी है. बहुत से पूर्व राष्ट्रपति से लेकर फिल्मी सितारों ने इसका इस्तेमाल किया है.

डेविड बेकहम के पैर की चोट ठीक करने का श्रेय भी इसे ही दिया जाता है. महारानी विक्टोरिया के समय से ही शाही लोग इसका इस्तेमाल करते आए हैं. पर अब भी बहुत से लोगों के लिए ये एक वैज्ञानिक पहेली ही है.

‘ब्रिटिश मेडिकल जर्नल’ के एक ब्लॉग में लिखा गया था, होम्योपैथी किसी बीमारी का इलाज नहीं करती. इस ब्लॉग ने इतनी पुरानी ऑल्टरनेटिव मेडिसिन पर तूफान खड़ा कर दिया था.
होम्योपैथी पर इतना झगड़ा क्यों? क्या यह सिर्फ एक झूठा-विज्ञान है जिसे मॉर्डन साइंस के अस्तित्व में आने से बहुत पहले रच दिया गया था?

बहस होम्योपैथी के सिद्धांतों पर है

विज्ञान कहता है कि होम्योपैथी के दोनों मुख्य सिद्धांत दोषपूर्ण हैं

1) जो बीमार करता है, वही इलाज कर सकता है: तो अगर प्याज काटने पर आपकी आंख में आंसू आते हैं तो प्याज के रस से ही फीवर दूर किया जा सकता है जिसमें रोगी की नाक बहती है. होम्योपैथी की दवाइयां किसी भी चीज से बनाई जा सकती हैं, सांप के जहर से, जंगली पौधों से, खनिजों से, बकरियों की ग्रंथियों से या चॉक से. पर होम्योपैथी के डॉक्टरों को पता चला कि इनमें से कुछ चीजें जहरीली हैं, तो उन्होंने इन्हें डायल्यूट करना शुरू कर दिया.

2) अगर एक निश्चित तरीके से किया जाए तो जितना डायल्यूट किया जाएगा दवा की पोटेंसी उतनी ही बढ़ जाएगी. लगातार डायल्यूट करने का यह तरीका परेशानी की जड़ है. सबसे पहले दवा के स्रोत की एक बूंद, (चाहे ये सांप का जहर हो या एसिड) पानी या एल्कोहल की 99 बूंदों में मिलाई जाती है. फिर उन्हें तेजी से हिलाया जाता है.

होम्योपैथ मानते हैं कि ऐसा करने से स्रोत की इलाज करने की क्षमता पानी या एल्कोहल में मिल जाती है. दवा को कई लाख बार डायल्यूट किया जा सकता है. लगभग दो स्विमिंग पूल में एक बूंद जितना डायल्यूट. पारंपरिक तौर से ये दवाइयां इतनी डायल्यूट की जाती हैं कि होम्योपैथी की दवा की बोतल की एक बूंद अटलांटिक महासागर की एक बूंद से भी ज्यादा डायल्यूटेड होती है.

मॉर्डन साइंस कहती है कि इतने डायल्यूशन के बाद 100 करोड़ दवा की बूंदों में से किसी एक बूंद में मौलिक पदार्थ के एक मॉलीक्यूल के होने की भी संभावना नहीं रहती है. जब कि होम्योपैथ मानते हैं कि एक मीठी गोली पर इस डायल्यूशन की बूंद बीमारियों को ठीक कर देती है.

200 से ज्यादा क्लीनिकल ट्रायल्स के बावजूद कभी ऐसे सबूत नहीं मिले जो यह तय कर सकें कि होम्योपैथी बीमारी को ठीक कर सकती है. यही वजह है कि पिछली एक सदी से ऐलोपैथ और होम्योपैथ डॉक्टरों के बीच जंग छिड़ी हुई है.

मेमोरी ऑफ वॉटर: होम्योपैथी के पक्ष में वैज्ञानिक सबूत

फ्रांसीसी वैज्ञानिक जैक्स बेनवेनिस्ट (1935-2004) ने मानव शरीर की एलर्जी की प्रतिक्रिया पर रिसर्च करते समय संयोग से होम्योपैथी के दूसरे सिद्धांत की पुष्टि कर दी.

उन्होंने एक कैमिकल की बूंद को 100 गुना पानी में मिलाया. जैसे होम्योपैथी में किया जाता है. यह सॉल्यूशन पानी के बराबर डायल्यूट होना चाहिए. पर ऐसा नहीं था. ऐसे सैकड़ों डायल्यूशन के बावजूद यह पानी खास बना रहा. यह पानी की तरह नहीं था बल्कि उस कैमिकल की तरह था जिसे पानी में मिलाया गया था.

जून 1988 में यह रिसर्च विश्व के सबसे सम्मानित वैज्ञानिक जर्नल ‘नेचर’ में मॉर्डन साइंस के कुछ और बेहतरीन रिसर्च के साथ छपी.

2010 में IIT-मुंबई के कैमिकल इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट ने एक बड़ी खोज करते हुए बताया कि 100 करोड़ डायल्यूशन के बाद भी होम्योपैथिक दवाइयों की पोटेंसी बनी रहती है.

धातु से बनीं कुछ बेहद डायल्यूटेड होम्योपैथिक दवाओं में नापने योग्य मात्रा में वह धातु मौजूद होती है जिसे शुरुआत में उसमें मिलाया गया था. यहां तक कि 1: 1,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000,000 के डायल्यूशन (200C) पर भी.
डॉ जयेश बेल्लारे, HOD, डिपार्टमेंट ऑफ केमिकल इंजीनियरिंग, IIT-मुंबई

IIT के विशेषज्ञों ने पाया कि होम्योपैथी नैनोटेक्नोलॉजी के सिद्धांतों पर काम करती है. हालांकि इन दवाइयों की मेडिसिनल पोटेंसी पर रिसर्च नहीं किया गया.

इन्हें है पूरा भरोसा

41 साल के मिनिष कोठारी को कोई फर्क नहीं पड़ता कि होम्योपैथी पर लोग क्या सवाल उठाते हैं. इन्होंने रुमेटॉइड आर्थराइटिस की वजह से बिस्तर पकड़ लिया था. जोड़ों की इस बीमारी का ऐलोपैथी में कोई इलाज नहीं.

वे दिन में 7 पेनकिलर खा कर भी चल नहीं सकते थे. पर 8 साल के होम्योपैथिक इलाज के बाद अब वे लगभग 90 डिग्री पर झुक सकते हैं, योग कर सकते हैं और लगभग पूरी तरह स्वस्थ हैं.

भले ही ऐलोपैथी के डॉक्टर इनकी बात न मानें पर 50 साल की मुंबई निवासी मीना मेहता खुद को मेडिकल का एक चमत्कार बताती हैं.

2001 में बिलिरुबिन की बेहद बढ़े हुए स्तर की वजह से उन्हें लिवर सिरॉसिस हो गया. उनका 90 फीसदी लिवर खराब हो गया था और सिर्फ लिवर ट्रांसप्लांट ही एक तरीका था. परिवार ने मैचिंग डोनर की तलाश में रजिस्ट्रेशन भी करा लिया. इंतजार के वक्त में मीना ने होम्योपैथी इलाज शुरू किया.

6 महीने तक उन्होंने जादूभरी सफेद गोलियां खाईं और उनकी रिपोर्ट लगभग सामान्य थी.

रीमा शाह, मुंबई की एक युवा मां, उन लाखों लोगों में से एक हैं जो कहते हैं कि मेरा बच्चा होम्योपैथी की वजह से ठीक हो गया.

मेरे 4 साल के बेटे को हर महीने अस्थमा का दौरा पड़ता था. पर होम्योपैथी के लंबे इलाज के बाद उसे राहत मिली. आप चाहे मुझे पागल कहें, पर इस बार उसे 104 डिग्री बुखार था पर मैंने होम्योपैथी पर ही यकीन किया. ईमानदारी से कहूं तो मुझे लगता है कि मैंने उसके शुरुआती सालों में जो ऐलोपैथिक दवाइयां दीं उन्हीं की वजह से उसे अस्थमा हुआ. 
रीमा शाह, एक मां

इसके बावजूद इसे बेकार और जादू-टोना कहा जाता है. ऐसे सबूत लगातार बढ़े हैं, जो बताते हैं कि होम्योपैथी असरदार है, यह कम कीमत में उपलब्ध है और दुनिया भर के लोगों में इसकी मांग है.

तो क्या विज्ञान में इस मुद्दे पर कुछ कमी है? जब 10 लाख भारतीय अपनी बीमारियों के इलाज के लिए होम्योपैथी पर भरोसा करते हैं तो ये सब सवाल बेमानी हैं.

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