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LGBT बच्चों को लेकर क्या हो स्कूलों का रुख?

बच्चों को सिखाने की जरूरत है कि समलैंगिक के रूप में पहचाने जाने में कोई खराबी नहीं है. 

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दुर्भाग्य से यह एक आम कहानी है. हर स्कूल, हॉस्टल और अन्य शैक्षिक संस्थान में ऐसा होता है. एक सहकर्मी ने मुझे अपने बोर्डिंग स्कूल की एक घटना के बारे में बताया था, जिसमें कक्षा 10 की दो लड़कियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित किया गया और स्कूल अधिकारियों ने हॉस्टल में उनके कमरे अलग कर दिए क्योंकि वे समान लिंग के प्रति आकर्षित थीं.

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एक ऐतिहासिक मुकदमे में, सुप्रीम कोर्ट ने भारत में समलैंगिकता को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया है. इसने साथ ही सरकार को जागरुकता पैदा करने और लोगों को संवेदनशील बनाने का भी निर्देश दिया है. लेकिन ये जिम्मेदारी सिर्फ सरकारी अधिकारियों की ही नहीं बल्कि माता-पिता, दोस्तों, रिश्तेदारों, शिक्षकों, पड़ोसियों और सहकर्मियों की भी है.

बच्चे, चाहे वह आठ से बारह साल के हों या किशोर, उनका आधा दिन स्कूल में ही बीतता है. वो स्कूल में जो कुछ देखते और सीखते हैं, उनके चरित्र, विचार और व्यवहार में प्रतिबिंबित होता है. और हमें अपने बच्चों को सिखाने की जरूरत है कि किसी के समलैंगिक के रूप में पहचाने जाने में कोई खराबी नहीं है. उसका समर्थन करें और बिना किसी डर के अपनी पहचान उजागर करने का माहौल दें.

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बच्चों को सिखाने की जरूरत है कि समलैंगिक के रूप में पहचाने जाने में कोई खराबी नहीं है. 
बच्चे केवल वही सीखते हैं, जो वे अपने आसपास देखते हैं
(फोटो: iStock)

बाल मनोचिकित्सक डॉ अमित सेन का कहना है कि सिर्फ बच्चों को ही नहीं, हमें शिक्षकों और स्कूल प्रशासन को भी संवेदनशील बनाने की शुरुआत करनी है.

बच्चे केवल वही सीखते हैं, जो वे अपने आसपास देखते हैं और अगर उन्हें स्कूल में आसपास कोई होमोफोबिया नहीं दिखाई देता है या वे मतभेदों की स्वीकृति देखते हैं, तो यह उनके व्यवहार में भी प्रतिबिंबित होगा.

शिक्षकों के मन में भरे स्टीरियोटाइप ऐसे बच्चों के खिलाफ पक्षपातपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार के रूप में प्रतिबिंबित हो सकते हैं, जो उनकी सोच के हिसाब से सामान्य के दायरे में फिट नहीं होते.

संवेदनशील बनाने की प्रक्रिया शिक्षकों, स्कूल काउंसलर और प्रबंधन के लिए कार्यशालाओं के साथ शुरू की जानी चाहिए.
डॉ. अमित सेन, बाल मनोचिकित्सक, चिल्ड्रेन फर्स्ट 
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डॉ सेन कहते हैं कि भारतीय स्कूलों में ज्यादातर टीचर या काउंसलर यौन संबंध या जेंडर के बारे में कुछ भी जिक्र करने में असहज महसूस करते हैं. पहले इसे बदला जाना चाहिए.

स्कूल सिर्फ जेंडर सेंसटिविटी और सेक्शुअल ओरिएंटेशन ही नहीं बल्कि सेक्शुअलटी से भी जूझ रहे हैं, जिस कारण इसके बारे में बताना और सेंसटाइजेशन जल्द शुरू किया जाना चाहिए. यौन शोषण के खिलाफ बच्चों की सुरक्षा के लिए जेंडर और सेक्सुअलटी के बारे में बातचीत कम उम्र में ही शुरू कर देनी चाहिए, जब वे छोटे हों.

शायद चौथी या पांचवीं कक्षा में, जेंडर, लड़कों व लड़कियों में अंतर, बड़े होने जैसे मुद्दों में से कुछ पर बातचीत शुरू कर देनी चाहिए. व्यापक अर्थों में, इसे सेक्स एजुकेशन कहा जा सकता है. लेकिन लोग इस शब्द का इस्तेमाल करते हुए सोचते हैं कि यह बच्चों को खराब कर रहा है. इस सोच को बदलने की जरूरत है.

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बच्चों को सिखाने की जरूरत है कि समलैंगिक के रूप में पहचाने जाने में कोई खराबी नहीं है. 
बच्चों को रोज की बातचीत में उनके रवैये के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए
(फोटो: iStock)

हालांकि, यह सिर्फ एकाध वर्कशॉप से नहीं हो जाएगा, यह एक सतत बातचीत से किया जा सकता. बच्चों को रोज की बातचीत में उनके रवैये के प्रति संवेदनशील बनाना चाहिए. संवेदनशीलता एक सतत, लगातार सीखने की प्रक्रिया होनी चाहिए.

उदाहरण के लिए, अगर कोई स्टूडेंट गे या लेस्बियन या क्वीर को ऐसा कहकर उसका मजाक उड़ाता है, तो उसकी निंदा करने या दंडित करने के बजाय, उस पल को बातचीत शुरू करने के मौके के रूप में इस्तेमाल किया जाना चाहिए. डॉ. सेन का कहना है कि, अगर फिर भी वह नहीं सुधरता है, और दूसरों को धमकाना या चिढ़ाना जारी रखता है, तो इसे अलग बुला कर साफ तौर पर अंजाम के बारे में बता देना चाहिए.

माइंड सेट को बदलने की जरूरत है, और भला स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के साथ शुरुआत करने से बेहतर जगह क्या है?

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