बिहार में सामने आ रहे एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) के मामले और 150 से ज्यादा बच्चों की मौत के बाद भी ये साफ नहीं हो सका है कि आखिर बच्चों के बीमार पड़ने की वजह क्या है. निश्चिततौर पर कुछ बताने की बजाए इसे लेकर सिर्फ अटकलें ही लगाई जा रही हैं.
बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों की बीमारी को गर्मी, उमस, गंदगी, कुपोषण, रात को खाली पेट सोने और बागानों में जाकर लीची खाने से भी जोड़ा जा रहा है.
हालांकि बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत की जांच करने गई इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की एक टीम ने कहा है कि लीची खाना बच्चों की मौत की मुख्य वजह नहीं है क्योंकि इससे नवजात भी प्रभावित हुए हैं.
इस बीच सोशल मीडिया पर ये मैसेज शेयर किया जा रहा है कि अगर आपने अपने बच्चों को लीची खिलाई, तो उसे चमकी बुखार (दिमागी बुखार या इंसेफेलाइटिस) हो सकता है.
लीची नहीं, कुपोषण को मुख्य वजह मान रहे एक्सपर्ट
इंसेफेलाइटिस या चमकी बुखार और लीची का आपस में क्या संबंध हो सकता है, इस पर मैक्स हॉस्पिटल, गुणगांव में कंसल्टेंट पीडियाट्रिक न्यूरोलॉजिस्ट डॉ रफत त्रिवेदी कहती हैं:
चमकी बुखार या एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (AES) का जो एसोसिएशन देखा गया है, वो लीची में एक टॉक्सिन होता है, मिथाइलीनसाइक्लोप्रोपाइल-ग्लाइसिन (MCPG), इसकी वजह से बॉडी में शुगर कम हो जाती है, तो अगर कुपोषित बच्चे कच्ची लीची (जो ठीक से न पकी हो) या बहुत ज्यादा लीची का सेवन कर लेते हैं, तो इस टॉक्सिन की वजह से ऐसे बच्चों में हाइपोग्लाइसीमिया (लो ब्लड शुगर लेवल) देखा गया है.
डॉ त्रिवेदी समझाती हैं कि हमारे लिवर में ग्लाइकोजन होता है, जो जरूरत पड़ने पर ब्रेक होकर ग्लूकोज बन जाता है और इस तरह हमारी बॉडी में ग्लूकोज की मात्रा बनी रहती है, लेकिन कुपोषण के कारण इन बच्चों के लिवर में पर्याप्त ग्लाइकोजन स्टोर नहीं होता है. जब ये टॉक्सिन शरीर में आ रहा है, तो उनमें ग्लूकोज नहीं बन पा रहा है. ये एक थ्योरी है.
100 परसेंट नहीं बोल सकते हैं कि ये खाली लीची से हो रहा है, लेकिन ये 100 फीसदी है कि इसका कुपोषण से संबंध है. इसलिए हमें कुपोषण को टारगेट करना चाहिए.डॉ रफत त्रिवेदी
भारत में लीची का प्रोडक्शन
नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन लीची के मुताबिक भारत में पूर्वोत्तर राज्यों में लीची 17वीं शताब्दी के अंत में बर्मा से आया था. आज देश में लीची की बागवानी बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, असम, उत्तराखंड, ओडिशा और हिमाचल प्रदेश में की जाती है.
इसके अलावा लीची के बाग जम्मू-कश्मीर, मध्य प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, सिक्किम, केरल और तमिलनाडु में भी हैं. पूरे देश में कुल लीची उत्पादन का 40 फीसदी उत्पादन बिहार में होता है और मुजफ्फरपुर अपनी शाही लीची के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है.
लीची और इंसेफेलाइटिस की थ्योरी
भारत में इंसेफेलाइटिस के ज्यादातर मामलों की वजह जापानी इंसेफेलाइटिस वायरस (JEV) को माना जाता था, लेकिन साल 2014 में बिहार के मुजफ्फरपुर में AES के कारण के तौर पर लीची में पाए जाने वाले एक टॉक्सिन की थ्योरी दी गई.
हालांकि उन मामलों में इंसेफेलाइटिस कन्फर्म नहीं हुआ था, पैथोजेनिसिस से हाइपोग्लाइसीमिया के साथ इंसेफेलोपेथी की बात कही गई. 'इंसेफेलोपैथी' इस शब्द का इस्तेमाल दिमाग की उन बीमारियों के लिए किया जाता है, जिससे दिमाग का फंक्शन या स्ट्रक्चर प्रभावित हो.
एक टॉक्सिन मिथाइलीनसाइक्लोप्रोपाइल-ग्लाइसिन की पहचान की गई, जो लीची के बीजों में होता है. अमेरिकी रिसर्चर्स ने कहा कि इस बीमारी का संबंध लीची में पाए जाने वाले टॉक्सिक पदार्थ से हो सकता है.
हालांकि इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (ICAR) के अंडर मुजफ्फरपुर स्थित नेशनल सेंटर फॉर लीची के एक्सपर्ट्स ने इस थ्योरी को गलत बताया.
क्या बिहार में बीमार पड़े सभी बच्चों ने लीची खाई थी?
क्विंट की ओर से बिहार के मुजफ्फरपुर रिपोर्टिंग करने पहुंचे शादाब मोइज़ी के मुताबिक लीची को बीमारी की वजह कहना ठीक नहीं लगता क्योंकि वहां कई परिवारों ने मुलाकात के दौरान बताया कि उनके बच्चों ने लीची नहीं खाई थी. इसके बावजूद वो चमकी बुखार की चपेट में आ गए.
शादाब ने बताया कि कई लोगों ने कहा कि वे बच्चों को लीची जैसे महंगे फल खिला ही नहीं सकते. इसके अलावा चमकी बुखार की चपेट में आए कई बच्चों की उम्र ही इतनी नहीं थी कि वे कुछ खा सकें.
लीची और हाइपोग्लाइसीमिया
मुजफ्फरपुर में 80 प्रतिशत बीमार बच्चों की मौत का कारण हाइपोग्लाइसीमिया बताया जा रहा है.
दिल्ली स्थित नेशनल सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल और यूएस सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन की एक स्टडी, जो साल 2017 में लांसेट जर्नल में छपी, में पाया गया कि इस बीमारी से प्रभावित गांव के बच्चे दिन में लीची खा लेते हैं और रात को बिना कुछ खाए सो जाते हैं. लीची में हाइपोग्लाइसीन A होता है, जिसके कारण रात भर में बच्चों का ब्लड शुगर लेवल घट जाता है, जो हाइपोग्लाइसीमिया की वजह बनता है.
न्यूट्रिशनिस्ट विश्रुता बियानी ने फिट पर पब्लिश अपने एक लेख में इस बात का जिक्र किया है कि खाली पेट लीची खाने से बचना चाहिए, खासकर जो पके न हों क्योंकि इनमें हाइपोग्लाईसीन A और मिथाइलीनसाइक्लोप्रोपाइल-ग्लाइसिन (MCPG) होता है, जिससे उल्टी और बुखार हो सकता है.
नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन लीची का पक्ष
वहीं नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन लीची (ICAR) के डायरेक्टर विशाल नाथ ने आईएनएस से कहा, "अगर एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम का संबंध लीची खाने से होता, तो जनवरी, फरवरी में भी ये बीमारी नहीं होती. असल में इस बीमारी का लीची से कोई संबंध नहीं है और अभी तक कोई भी ऐसा शोध नहीं हुआ है, जो इस तर्क को साबित कर पाया हो."
लीची पूरे देश और दुनिया में सैकड़ों साल से खाई जा रही है. लेकिन ये बीमारी कुछ सालों से मुजफ्फरपुर में बच्चों को हो रही है. इस बीमारी को लीची से जोड़ना झूठा और भ्रामक है. ऐसा कोई तथ्य, कोई शोध सामने नहीं आया है, जिससे ये साबित हुआ हो कि लीची इस बीमारी के लिए जिम्मेदार है.”विशाल नाथ, डायरेक्टर, नेशनल रिसर्च सेंटर ऑन लीची
बीमारी के पीछे की वजहों के बारे में विशाल नाथ ने कहा, "इस बीमारी की सही वजह ही अभी सामने नहीं आ पाई है. जो भी हैं, सब कयास और अनुमान हैं. फिर लीची को इसके लिए जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है."
इस बीच बिहार राज्य के स्वास्थ्य मंत्री प्रेम कुमार ने जांच के आदेश दिए हैं कि क्या लीची खाने से बच्चों की मौत हो रही है. मंत्री ने कहा कि कृषि वैज्ञानिकों और बागवानी अधिकारियों की एक टीम प्रभावित इलाकों का दौरा करेगी.
रिसर्च के अभाव में पुख्ता तौर कुछ नहीं कहा जा सकता
कुल मिलाकर जब तक लीची और इस इलाके में इंसेफेलाइटिस को लेकर कोई रिसर्च नहीं किया जाता, तब तक पुख्ता तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है.
एक्सपर्ट्स का यही मानना है कि हमें सबसे पहले इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि बच्चों को कुपोषण से कैसे बचाया जाए.
इसके अलावा इंसेफेलाइटिस से बचने के जो एहतियाती उपाय हैं, जैसे-जापानी इंसेफेलाइटिस का टीका, स्वच्छता, मच्छर से बचाव, साफ पानी पीना, उन्हें अपनाए जाने की जरूरत है.
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