एक 32 साल का आदमी कुछ मिनटों से अधिक बैठ नहीं सकता. एक महिला के घुटने में मेटल पिन चुभती है. एक 50 वर्षीय शख्स के कूल्हे के पास ट्यूमर है.
क्या अस्पताल जाने से उनकी ये दिक्कतें दूर हो जाएंगी? खैर, यहां यह दुर्भाग्य है कि इन लोगों को जो समस्याएं हैं, वह अस्पताल जाने के कारण ही हुई हैं.
इस पूरी समस्या के जड़ दो शब्द हैं- मेडिकल टेक्नोलॉजी.
‘आइए नवाचार (इनोवेशन) के जरिए लोगों की जिंदगी में सुधार करें.’ मेडिकल टेक्नोलॉजी से जुड़े उपकरण बनाने वाले इस क्षेत्र में तरक्की को कुछ इसी रूप में देखते हैं. ये लोग जो इनोवेशन कर रहे हैं. वो बेबुनियाद, अनैतिक और अनियमित है. इसके गवाह वो पीड़ित मरीज हैं, जिन पर इनके गड़बडॉ मेडिकल उपकरणों का असर पड़ा है.
कोई भी यह दलील दे सकता है कि कि 400 अरब डॉलर का वैश्विक उद्योग लोगों को लंबी और बेहतर जिंदगी दे रहा है. लेकिन इसके लिए जो कीमत चुकानी पड़ रही है, वह बहुत बड़ी है.
विजय वोझाला उन 4700 लोगों में से एक हैं, जो भारत में जॉनसन एंड जॉनसन कंपनी के दोषपूर्ण हिप इंप्लांट से प्रभावित हैं. 45 वर्षीय वोझाला बताते हैं:
‘मेरी जीवनशैली काफी सक्रिय थी, लेकिन अप्रत्याशित परिस्थितियों के कारण मुझे साल 2008 में हिप रिप्लेसमेंट सर्जरी करानी पड़ी. एक मेडिकल रेप्रेजेंटेटिव होने के नाते, मैं कई डॉक्टरों से मिला और इस क्षेत्र में नया और बेहतर क्या है उसके बारे में पता किया. मैंने मेटल-ऑन-मेटल हिप इंप्लांट कराने का निर्णय लिया क्योंकि डॉक्टरों ने मुझे बताया कि एक बार रिप्लेसमेंट करा लेने के बाद मैं दौड़ने से लेकर टेनिस खेलने तक सबकुछ कर सकूंगा. लेकिन इसके बाद जो हुआ, वह किसी बुरे सपने से कम नहीं था. मुझे मेटल प्वाइंजनिंग हो गई. थकान के साथ-साथ मुझे कुछ कम सुनाई देने लगा. इसके साथ ही मिला कभी न खत्म होने वाला दर्द.’
इंप्लांट कोबाल्ट और क्रोमियम से बना था. ये पाया गया कि मरीज के शरीर में ये धातु लीक करने लगे, जिससे फ्लूड एकत्रित होने के साथ ही कुछ मामलों में मेटल प्वाइंजनिंग होने लगी.
ऐसा दुनिया भर में हुआ और साल 2009 में ऑस्ट्रेलिया में इस उपकरण को कंपनी की तरफ से वापस ले लिया गया था. लेकिन एक महीने बाद ही कंपनी ने इसी उत्पाद को भारत में बेचे जाने के आयात लाइसेंस के लिए आवेदन कर दिया और अधिकारी बिना किसी उचित जांच-पड़ताल किए मान गए. इसके तीन साल बाद ही देश में इस उपकरण को आधिकारिक रूप से वापस लिया गया.
भारत में मेडिकल उपकरण से जुड़े नियम
देश में ऐसा क्या है, जो दोषपूर्ण उपकरण बनाने और गलती करने वाले विनिर्माताओं या उत्पादकों को किसी भी प्रकार की सजा से छूट के साथ काम करना इतना आसान बना देता है?
संक्षेप में इसके पीछे भारत के मेडिकल उपकरण संबंधी नियम (या इनका अभाव) हैं.
देश में मेडिकल उपकरण उद्योग अनुमानित रूप से 5.8 अरब डॉलर का है और इसके साल 2022 तक 9.6 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है.
अब इस बात को समझते हैं कि जनवरी 2018 तक भारत में मेडिकल उपकरणों को रेगुलेट करने के लिए कोई विशेष कानून नहीं था. यह उद्योग सामान्य रूप से ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स एक्ट, 1940 के तहत ही चल रहा था. उपकरणों को दवाओं की तरह रेगुलेट किया जा रहा था. केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) की तरफ से सिर्फ 10 उपकरणों को दवा के रूप में घोषित किया गया था.
इस संबंध में कानूनों को मजबूत करने वाले द मेडिकल डिवाइस रेगुलेशन बिल को साल 2006 में राज्यसभा में खारिज कर दिया गया था.
इसके बाद मेडिकल डिवाइस रूल (एमडीआर), 2017 आया. क्या यह सही था? इसके बावजूद कि यह अभी भी बुरी तरह से अपर्याप्त है.
फिट से बातचीत में एसोसिएशन ऑफ इंडियन मेडिकल डिवाइस इंडस्ट्री (AiMeD) के फोरम संयोजक, राजीव नाथ कहते हैं:
इस संबंध में प्रशासन लंबे समय से निष्क्रिय रहा है. स्वास्थ्य मंत्रालय को प्रस्ताव देने के कई सालों बाद उन्होंने इसे खारिज कर दिया. इसके बाद वे आधे-अधूरे नियम लेकर आए. हमारे और अन्य पक्षों के कई सुझावों की अनदेखी की गई.
नाथ बताते हैं कि शुरू में, यह अभी भी सिर्फ 23 उपकरणों को रेगुलेट करता है. बाकि अन्य उपकरण बिना किसी नियम के बाजार में बिक रहे हैं.
सीडीएससीओ के तहत जो दिशानिर्देश हैं, वे मेडिकल उपकरणों को खतरे के आधार पर 4 श्रेणियों में वर्गीकृत करते हैं. क्लास ए और बी, कम जोखिम के लिए है. इसमें सीमित जांच की जरूरत है. वहीं क्लास सी और डी मध्यम और उच्च जोखिम के लिए है. इनमें व्यापक क्वालिटी कंट्रोल की जरूरत है.
लेकिन इसमें एक्स-रे, अल्ट्रासाउंड मशीनों और यहां तक की पेसमेकर शामिल नहीं है.
इनके लिए उप श्रेणी बनाने की जरूरत है ताकि उपकरण अस्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किए जा सकें और कम क्लीनिकल और क्वालिटी डाटा की जरूरत से बच सकें. उदाहरण के लिए ऑर्थोपेडिक इंप्लांट्स को अस्पष्ट रूप से दवा के रूप में परिभाषित किया जाता है.
आयातित उपकरणों के लिए क्या नियम है?
विशेषज्ञों का कहना है कि अब एमडीआर के तहत परिभाषित गुणवत्ता नियंत्रण लगभग अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) मानकों के बराबर हैं, लेकिन एफडीए के नियमों में भी कई कमियां हैं.
एफडीए द्वारा उपकरणों या डिवाइस को दो तरीकों से अप्रूव किया जा सकता है - या तो प्रीमार्केट स्वीकृति (पीएमए) या 510 (k) प्रक्रिया के तहत. पहले वाला बाद वाले की तुलना में अधिक सख्त है. लेकिन अभी भी दवा अप्रूवल की प्रक्रिया के रूप में मजबूत नहीं है. बाद वाले में एक बड़ी कमी है, इसके अंतर्गत ही अधिकतर उपकरणों को मंजूरी दी जाती है.
यह नियम कहता है कि अगर बाजार में पहले से कोई उपकरण मौजूद है, तो उसके समान किसी भी नए उपकरण को मंजूरी की प्रक्रिया से गुजरने की आवश्यकता नहीं होगी.
यह समान बात नए भारतीय नियमों में भी लागू होती है. ऐसे किसी भी प्रकार के उपकरण के लिए अनुमति लेने की जरूरत नहीं होती, अगर उसके जैसा उपकरण पहले से ही बाजार में बिक्री के लिए उपलब्ध हो.
यह बात उपकरण बनाने वालों के लिए नियमों के उल्लंघन करने को आसान बना देती है. वे अपने उपकरणों को पहले से मौजूद उपकरणों की तुलना में बेहद कम बदलाव के साथ दिखा देते हैं. यह बदलाव उपकरण को तैयार करने वाले मैटिरियल, डिजाइन या उसके प्रयोग में हो सकता है. इसके बाद उपकरण को बिना किसी जांच के सीधे बाजार में बेचा जा सकता है.
ऐसे उपकरणों के लिए जो पहले से ही एफडीए से मंजूरी हासिल कर चुके हैं या यूरोपीय मानकों का पालन करते हैं, उनके लिए भारतीय बाजार में प्रवेश करते समय कोई अतिरिक्त स्क्रीनिंग नहीं होती है.
सीनियर क्रिटिकल केयर स्पेशलिस्ट डॉ. सुमित रे मानते हैं कि यह काफी नहीं है.
भले ही उन्हें विदेशी मानकों द्वारा मंजूरी मिली हो, फिर भी हमारी आबादी के लिए एक विशिष्ट भारतीय रेगुलेशन होना आवश्यक है. भारतीयों का शरीर और स्वास्थ्य अमेरिका या ब्रिटेन के मुकाबले अलग है. एक रेगुलेटरी बॉडी को यह आकलन करने की आवश्यकता होती है कि किस उपकरण के लिए ये जरूरी है.
खैर, अभी भी, ना कोई ऐसी विशिष्ट मेडिकल उपकरण रेगुलेटरी बॉडी है और ना ही ड्रग रेगुलेटर की तरफ से उद्योग पर नजर रखी जा रही है.
इस संदर्भ में भारत में 80-90 फीसदी आयातित उपकरण प्रयोग में लाए जा रहे हैं. चाहे वे अमेरिका, ब्रिटेन में बने हो या इनके सस्ते चीनी विकल्प हों.
बिना लाइसेंस वाले उत्पादक के लिए भी नहीं है नियम
उपकरणों की तरह ही उत्पादकों और उप-ठेकेदारों के लिए नियमों का अभाव है. यह तय नहीं है कि वे कैसे काम करेंगे और किस तरह से सामान की पैकेजिंग करेंगे.
इससे लाइसेंस रहित उत्पादक परिणाम की चिंता किए बगैर उपकरणों को बेच रहे हैं और उनका निर्यात कर रहे हैं.
AiMeD की रिपोर्ट के अनुसार करीब 50 ऐसे उत्पादक हैं, जो दिल्ली एनसीआर में प्रशासन की नाक के नीचे अपना कारोबार चला रहे हैं. लेकिन फरवरी 2017 को शिकायत के बावजूद सीडीएससीओ की तरफ से कोई एक्शन नहीं लिया गया. ये कंपनियां बिना मंजूरी के अपने उपकरणों को भारत के साथ ही विदेशी बाजारों में भी बेच रही हैं.
राजीव नाथ पूछते हैं कि कंपनियों के मुनाफे के लिए मरीजों की जान के साथ खिलवाड़ क्यों किया जा रहा है.
ऐसी कोई जगह नहीं, जहां रोगी शिकायत कर सके
जॉनसन एंड जॉनसन मामला रोगियों और उनकी दिक्कतों की अनदेखी किए जाने का ही एक उदाहरण है. पहले रोगियों को इस बात की जानकारी नहीं दी गई कि उनके शरीर में जो इंप्लांट किया गया है, वह दोषपूर्ण है. रेगुलेटरी अथॉरिटी की तरफ से रोगी का कोई रजिस्ट्रेशन या उसकी जानकारी नहीं रखी गई. ये अस्पताल या उस उपकरण के उत्पादक की मर्जी पर छोड़ दिया गया कि वो इसकी जानकारी रखना चाहे या नहीं.
दूसरा ऐसा कोई भी प्लेटफॉर्म नहीं है, जहां रोगी अपनी शिकायतों के बारे में सूचना दे सकें.
एक अन्य मामले से भी समस्या सामने आती है. एक महिला ने आयातित घुटना इंप्लांट फिट करवाया. इसके बाद उसके घुटनों में दर्द शुरू हो गया. अगले दो साल तक उसके घुटने में जख्म रहा. उसके इंप्लाट में एक मेटल पिन बाहर निकल गया था, जिससे इंप्लाट ढीला हो गया. इससे त्वचा के भीतर चुभन शुरू हो गई. वह दोबारा सर्जरी के लिए उसी डॉक्टर के पास गई, जिससे उसने पहली बार सर्जरी कराई थी. तब पहली सर्जरी मेदांता में हुई थी, अब वह डॉक्टर फोर्टिस में है. उन्होंने उस महिला से जुलाई 2018 में पूरी प्रक्रिया और नए इंप्लांट के लिए पूरे पैसे फिर से वसूल किए.
रोगी के बेटे विनोद तेजवानी ने कई सवाल उठाए. जैसे इसमें उनकी क्या गलती थी और क्यों उनसे बिना किसी गलती के दोबारा पैसे लिए गए. लेकिन उन्हें न तो डॉक्टरों की तरफ से कोई जवाब मिला और न ही उपकरण बनाने वाले उत्पादक की तरफ से. इसके बाद तेजवानी ने इस मुद्दे को सोशल मीडिया पर उठाया, लेकिन अभी तक उन्हें कुछ भी हासिल नहीं हुआ है.
मुझे कुछ नहीं पता कि मैं अपनी समस्या को किसके पास लेकर जाऊं. किसे इस बात की जानकारी दूं? मेरी परेशानी को कौन सुनेगा?विनोद तेजवानी, रोगी के बेटे
आदर्श रूप में, रेगुलेटर को प्रतिकूल घटना के बारे में सूचना देने के लिए एक सिस्टम स्थापित करना चाहिए, जिससे कि लोगों की मदद हो सके. भले ही उनकी शिकायत का कोई ठोस आधार हो या ना हो.
इस बारे में संपर्क करने पर फोर्टिस के अधिकारी ने कहाः
‘रोगी 27 जुलाई 2018 को फोर्टिस बोन एंड जॉइंट इंस्टीट्यूट में घुटने में दर्द की शिकायत लेकर पहुंची थी. ऑर्थोपेडिक टीम ने 28 जुलाई 2018 को सर्जरी की. रोगी को मानक प्रक्रिया के अनुसार इलाज दिया गया. ये दोबारा सर्जरी का मामला था. ऐसी सर्जरी अलग-अलग कारणों से की जाती है. यह रोगी की स्थिति पर निर्भर करता है. परिवार वालों को रोगी को दिए जाने वाले इलाज के बारे में विस्तार से बता दिया गया था. साथ ही खर्चे के बारे में भी जानकारी दी गई थी क्योंकि पहली सर्जरी दो साल पहले दूसरे अस्पताल में हुई थी. परिवार वालों ने इस पर अपनी सहमति भी दी थी. रोगी के परिवार वालों के सवालों का जवाब उपयुक्त तरीके से और उनकी तुरंत संतुष्टि के लिए दिया गया था.’
लेकिन तेजवानी का कहना है कि अस्पताल की तरफ से ऐसी कोई बातचीत नहीं की गई है और उन लोगों ने हमारी चिंताओं का समाधान भी नहीं किया. इसलिए इस तरह की प्रतिकूल घटनाओं की सूचना देने के लिए एक निष्पक्ष प्रणाली विकसित किए जाने की जरूरत है.
ऑल इंडिया ड्रग एक्शन नेटवर्क (AIDAN) एनजीओ की मालिनी असोला, जो इस तरह के रोगियों को न्याय दिलाने में मदद करती हैं, ने फिट से कहा:
इसके लिए एक नया मेडिको-विजिलेंस कार्यक्रम शुरू किया गया है, लेकिन ऐसा कोई डायरेक्ट मैकेनिज्म नहीं है जहां रोगी अपने मामलों की जानकारी दे सकते हैं. यहां तक कि जॉनसन एंड जॉनसन की घटना के बाद भी कई रोगी विभिन्न मेडिकल उपकरणों के बारे में बताने के लिए हमसे संपर्क कर रहे हैं.
हॉस्पिटल, डाक्टर्स और उत्पादकों की मिलीभगत
रोगियों के लिए सबसे अधिक मुश्किल हॉस्पिटल्स, डॉक्टरों और मेडिकल उपकरणों के उत्पादकों की मिलीभगत से होती है.
इस उद्योग से जुड़े तीन लोगों ने फिट से कहा कि जिस तरह से डॉक्टर्स और उत्पादक एक-दूसरे के फायदे के लिए काम करते हैं, वह पूरी तरह से अनैतिक है.
बेईमानी का यह नेटवर्क ईमानदारी के नेटवर्क से कहीं अधिक मजबूत है. बड़ी संख्या में डॉक्टर्स दवा और उपकरण उत्पादकों से उनके उत्पाद के प्रयोग के बदले में रिश्वत लेते हैं. अगर यह सीधे तौर पर नकद भुगतान नहीं होता, तो ये विदेश दौरे या उनके बच्चों की पढ़ाई आदि का खर्च उठाने के रूप में होता है.डॉ सुमित रे
सभी रोगी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जब वे डॉक्टर के पास जाते हैं, तो उनके पास डॉक्टर पर विश्वास करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है. क्योंकि उस समय डॉक्टर ही वो विश्वसनीय व्यक्ति होता है जिस तक उनकी पहुंच होती है. इसलिए डॉक्टर यदि उनसे कहता है कि ये अमुक उपकरण बेहतर है और उन्हें यही लगवाना चाहिए तो रोगी उसे ही तरजीह देते हैं. ऐसे में रोगी अपने स्तर पर न तो कोई खोजबीन करता है और ना ही डॉक्टर के निर्णय पर सवाल उठाता है.
तो इन लोगों पर कौन लगाम लगाएगा?
फिट ने इस संबंध में कानूनों को मजबूत बनाए जाने, विशेष रूप से जॉनसन एंड जॉनसन मामले में स्वास्थ्य मंत्रालय के अतिरिक्त सचिव आरके वत्स, स्वास्थ्य अनुसंधान विभाग के सचिव और ICMR के महानिदेशक प्रोफेसर बलराम भार्गव से सवाल किया.
प्रोफेसर भार्गव ने जवाब दिया, 'अभी इस मामले में कुछ भी नहीं चल रहा है. आगे मीटिंग होने वाली है, देखते हैं क्या होता है.' आरके वत्स ने हमारे सवाल का जवाब नहीं दिया.
हमारा सवाल बरकरार है. समस्या सामने है और सुझाव भी, अब देखना है कि प्रशासन इस पर कब कार्रवाई करता है?
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