26 फरवरी 2019 को, सैकड़ों लोग दिल्ली के जंतर मंतर पर इकट्ठा हुए. ये लोग एक नया कानून लाए जाने की मांग कर रहे थे. एक असामान्य दृश्य था क्योंकि पुरुषों, महिलाओं और यहां तक कि बच्चों ने हाथों और पैरों पर पट्टियां बांधी थीं. इन पट्टियों के एक कोने पर लाल स्याही लगी थी, जो निजी अस्पतालों द्वारा इलाज के कारण मिली चोट का प्रतीक थीं.
लोगों को उम्मीद है कि नए कानून से देशभर में न्याय के लिए लड़ रहे कथित मेडिकल लापरवाही के शिकार लोगों की मदद हो सकेगी.
यहां कथित रूप से इलाज में लापरवाही के कारण जान गंवाने वाले व्यक्तियों की तस्वीरों को एक लाइन में व्यवस्थित किया गया था. यहां मंडली ने लोगों के सामने एक नाटक किया, जिसमें लोगों को संबंधित अस्पताल से दस्तावेज लेने के उनके अधिकार के बारे में बताया गया.
यूटरस निकालने की सर्जरी के दौरान लापरवाही
मुंबई के डोंबिवली की रहने वाली 45 साल की श्रेया, 2010 में एक प्राइवेट हॉस्पिटल में स्त्री रोग विशेषज्ञ के पास गई थीं. श्रेया को पीरियड से जुड़ी शिकायत थी. डॉक्टर ने सर्जरी के जरिए गर्भाशय निकलवाने का सुझाव दिया. यह सर्जरी कैंसर की संभावित शुरुआत के बारे में सभी आशंकाओं को दूर करने की उम्मीद से की गई थी.
श्रेया का दावा है कि ऑपरेशन के दौरान उनकी दोनों मूत्रवाहिनी क्षतिग्रस्त हो गई, जिसके कारण उन्हें दूसरे हॉस्पिटल में फिर से सर्जरी करानी पड़ी. श्रेया डॉक्टर द्वारा गर्भाशय निकालने के दौरान की गई लापरवाही के कारण इन दिनों डायपर पहनने को मजबूर हैं.
श्रेया का दावा है कि अगर दूसरी सर्जरी समय पर नहीं की जाती, तो उन्हें अपनी दोनों किडनी गंवानी पड़ती. संबंधित डॉक्टर के हाथों उपेक्षा के कारण, श्रेया ने पहले कंज्यूमर कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां अस्पताल ने बेंच के सामने स्वीकार किया कि उन्होंने फाइल खो दी है. दूसरा कोई विकल्प नहीं होने के कारण, श्रेया ने राहत के लिए बॉम्बे हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जहां मामला फिलहाल पेंडिंग है.
‘नहीं चाहता कोई और इस तरह की तकलीफ झेले’
2011 में, प्रमोद कुमार ने अपनी 10 साल की बेटी, शेफाली को उस समय को खो दिया, जब अस्पताल ने डेंगू के इलाज के लिए कथित तौर पर गलत दवा दी थी.
एनडीएमसी (नई दिल्ली नगरपालिका परिषद्) के एक कर्मचारी, प्रमोद अपनी बेटी को कार्यालय द्वारा सूचीबद्ध इस विशेष अस्पताल में ले गए थे.
शेफाली की हालत बिगड़ने के बाद प्रमोद ने उसे दूसरे अस्पताल में शिफ्ट करने का फैसला किया. यहां डॉक्टरों ने बताया कि गलत दवाओं ने रोगी की हालत खराब कर दी है.
प्रमोद ने एक प्लास्टिक फोल्डर के अंदर, जिस पर ‘शेफाली, कक्षा V, रोल नंबर 3’ लिखा है, में अपने केस से जुड़े सभी डॉक्यूमेंट्स को तारीख के अनुसार लगाया हुआ है.
प्रमोद ने दिल्ली मेडिकल काउंसिल (DMC) से गुहार लगाई कि वह गलती करने वाले डॉक्टर के खिलाफ कार्रवाई करे. हालांकि, DMC ने डॉक्टर को क्लीन चिट दे दी. यहां तक कि मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने डॉक्टर के पक्ष में फैसला सुनाया.
एक बार नहीं बल्कि दो बार न्याय से इनकार कर दिया, प्रमोद को अब लगता है कि केवल एक कठोर कानून यह सुनिश्चित कर सकता है कि गलती करने वाले डॉक्टरों को उचित सजा मिले.
मैं पिछले 8 साल से इस लड़ाई को लड़ रहा हूं. मैं नहीं चाहता कि कोई भी इस तरह की तकलीफ झेले. और, इसलिए, निजी अस्पतालों द्वारा इस तरह की गई लापरवाही की जांच महत्वपूर्ण है.प्रमोद कुमार, मेडिकल लापरवाही के शिकार
इन्वेसिव प्रोसिजर के लिए जल्दबाजी में सहमति
2018 में बायोप्सी की प्रक्रिया के बाद जटिलताओं के कारण अर्चना सिंह ने अपने पति अमिताभ को खो दिया.
किडनी ट्रांसप्लांट के दौरान अमिताभ को इंफेक्शन हो गया. यूरीन इंफेक्शन के बाद गाजियाबाद में एक हॉस्पिटल के डॉक्टर ने कथित रूप से परिवार को बताया था कि बायोप्सी के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है.
अर्चना याद करते हुए बताती हैं कि अमिताभ को इस इन्वेसिव प्रोसिजर को लेकर शंका थी. फिर वह एक नीले रूमाल से अपने आंसू पोछती हैं.
अर्चना ने आगे आरोप लगाया कि बायोप्सी के लिए उनकी सहमति जल्दबाजी में ली गई. चूंकि परिवार को कोई अन्य व्यावहारिक विकल्प नहीं दिया गया था, इसलिए अर्चना और उनके पति ने डॉक्टर के कहने पर आगे बढ़ने का फैसला लिया.
बायोप्सी के दौरान अत्यधिक खून बहने की सूचना के बाद अर्चना के पति को जल्द ही आईसीयू (गहन चिकित्सा इकाई) में शिफ्ट कर दिया गया. जबकि डॉक्टरों ने अन्य सर्जिकल ऑपरेशन करना जारी रखा. परिवार को आश्वासन दिया गया कि अमिताभ के जीवन को बचाने के लिए ये जरूरी है और कुछ दिन में ही, अर्चना जानती थी कि उसका सबसे बुरा डर सच हो गया था.
हम उन्हें घर वापस ले जाने के लिए उत्सुक थे, तभी अचानक डॉक्टर ने कहा कि उन्हें कोलोस्टॉमी करना होगा.अर्चना, मेडिकल लापरवाही का शिकार
जबकि कोलोस्टॉमी एक सरल सर्जिकल प्रक्रिया है, जिसके तहत बड़ी आंत से मल के बाहर निकलने के लिए पेट के जरिए रास्ता बनाया जाता है. अमिताभ के मामले में, यह पूरी प्रक्रिया भारी पड़ी.
अमिताभ दूसरे सर्जिकल ऑपरेशन में नहीं बच पाए, जिसे 'कोलोस्टॉमी क्लोजर' के नाम से जाना जाता है, जो पहली सर्जरी के कुछ महीने बाद था.
इलाज के लागत की सीमा तय करने की मांग
दर्जनों महिलाएं जो दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करती हैं, वे भी इस विरोध प्रदर्शन में भाग लेने आई थीं. उनकी मांग थी कि प्राइवेट हॉस्पिटल्स में डॉक्टरों द्वारा वसूले जाने वाले फीस की लिमिट तय की जानी चाहिए.
दिल्ली के सीमापुरी इलाके से आई शाहना के लिए इलाज का खर्च परिवार के वित्तीय बोझ को बढ़ा देता है क्योंकि उसका पति प्रतिदिन 200 रुपये कमाता है, ऐसे में 500 रुपये की स्टैंडर्ड फीस भी बहुत अधिक है.
महंगा इलाज अक्सर शाहाना जैसे लोगों को लोन के दुष्चक्र में धकेल देता है, जो उनके बच्चों की शिक्षा पर भारी पड़ता है.
क्या कोई नया कानून जवाबदेही तय कर सकता है?
एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) द्वारा तैयार किए गए रोगी के अधिकारों का एक चार्टर पिछले साल स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर डाला गया था. लेकिन यह एक्सपर्ट और आम जनता से सुझाव मांगने से आगे नहीं बढ़ पाया.
चार्टर, अगर राज्यों द्वारा अपनाया जाता है, तो एक रोगी को रिकॉर्ड और रिपोर्टों के अधिकार, पूरी जानकारी के बाद सहमति का अधिकार और सेकेंड ओपिनियन लेने का अधिकार जैसे सशक्त करने वाले अधिकार मिलेंगे.
जयंत सिंह की 7 साल की बेटी आद्या सिंह की साल 2017 में डेंगू शॉक सिंड्रोम से मौत हो गई थी. जयंत को लगता है कि एक नए कानून से मरीज के परिवार के साथ सहानुभूति रखने वाले माहौल के निर्माण में मदद मिलेगी. गुरुग्राम स्थित फोर्टिस अस्पताल द्वारा ओवर चार्जिंग की खबर सामने आने के बाद आद्या का मामला सुर्खियों में आ गया था. अस्पताल ने आद्या को हुए डेंगू के 15 दिन तक चले इलाज के लिए 16 लाख रुपये चार्ज लिया.
हम एक अलग निकाय चाहते हैं ,जो रोगियों के हित को सुनिश्चित कर सके. जहां तक प्राइवेट हॉस्पिटल्स की बात है, यह जवाबदेही लाएगा, जो ज्यादातर मामलों में, सर्विस की क्वालिटी के बारे में परवाह नहीं करते हैं.जयंत सिंह
अपने प्रियजनों को खोने वाले परिवारों का शोक खत्म नहीं हुआ है. मेडिकल लापरवाही के इन पीड़ितों को उम्मीद है कि एक नया कानून डॉक्टरों में जिम्मेदारी की भावना लाएगा.
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