न्यूजरूम में एक और दिन स्ट्राइक, जवाबी स्ट्राइक, पाकिस्तान में इंडियन एयरफोर्स के विंग कमांडर की कस्टडी और सोशल मीडिया पर चिंतित कर देने वाले वीडियोज, मैं ऑफिस से तमाम चिंताएं लेकर निकली. इतनी सारी सूचनाओं के बीच मेरा सिर घूम रहा था, मैं सीधे अपनी 9 साल की बेटी सहित चार बच्चों को उनके म्यूजिक स्कूल से लेने गई.
परेशान मन से मैंने चारों बच्चों के बीच हो रहे हंसी-मजाक को देखकर उन पर कुछ सवालों के बौछार कर दिए. इसके बाद सब शांत बैठ गए. मैं अपने मन में चल रही उलझनों को उन चार बच्चों पर उतराने में सफल रही, जो कुछ देर पहले खुशी के साथ कार में बैठे थे.
एक व्यापक निराशा है, जिसे आप अपने चारों ओर देख सकते हैं. न्यूज में अब फिल्टर नहीं है. बस, ट्रेन, ऑफिस, स्कूल, हॉस्पिटल, प्लेग्राउंड, डिनर टेबल पर न्यूज की बाढ़ आती है- कैसे? आप जानते हैं, एक छोटी सी स्मार्ट डिवाइस के जरिए. लगातार कई तरह की सूचनाओं के बीच अब क्या सच है और क्या झूठ इसका कोई मतलब नहीं रह गया है.
खबरों की भरमार और मेंटल हेल्थ के बीच संबंध के पर्याप्त रिसर्च है. सब कुछ पढ़ने और सुनने बाद चिंता, फिक्र या घबराहट से बचना मुश्किल है.
टाइम मैगजीन ने साल 2018 में अमेरिकन साइकोलॉजिकल एसोसिएशन के एक सर्वे को रिपोर्ट किया था.
सर्वे में आधे से अधिक लोगों ने बताया कि न्यूज के कारण वे स्ट्रेस, एंग्जाइटी, थकान और नींद न आने की समस्या के शिकार हुए.
इसके अलावा, सर्वे में शामिल हर 10 में से 1 व्यस्क ने बताया कि वे हर घंटे न्यूज चेक करते हैं. 20 फीसदी लोगों ने बताया कि वे अपने सोशल मीडिया फीड पर लगातार नजर बनाए रखते हैं.
एक दशक पहले के मुकाबले अब जिस तरह से न्यूज को कंज्यूम किया जा रहा है, इस पर एक्सपर्ट भी बात करते हैं. अगर कारगिल युद्ध हमारा पहला युद्ध था, जिसे टेलीविजन पर दिखाया गया, तो एयर स्ट्राइक और उसके नतीजे में सामने आने वाले जवाब सोशल मीडिया पर पहले 'टकराव की रिपोर्टिंग' है. और जब कुछ जर्नलिस्ट ऑर्गनाइजेशन इस बात पर सावधानी रख सकते हैं कि वो क्या कहें और क्या दिखाएं, सोशल मीडिया पर ऐसे कोई एथिक्स फॉलो नहीं होते. इसलिए बड़े उल्लास के साथ ट्विटर, फेसबुक और व्हाट्सएप ग्रुप पर वीडियो, ऑडियो क्लिप शेयर किए गए.
समाचार की जरूरत से ज्यादा और मुखर कवरेज निश्चित रूप से कमजोर लोगों के दिमाग को प्रभावित कर सकती है, विशेष रूप से जो लोग चिंता, अवसाद, ओब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर, पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर और डिप्रेशन से जूझ रहे हैं.डॉ समीर मल्होत्रा, डायरेक्टर, डिपार्टमेंट ऑफ मेंटल हेल्थ, मैक्स हॉस्पिटल
निगेटिव न्यूज से उदासी और एंग्जाइटी
ब्रिटिश जर्नल ऑफ साइकोलॉजी में पब्लिश एक रिसर्च में निगेटिव न्यूज के प्रभाव पर स्टडी की गई. जिन लोगों को निगेटिव न्यूज दिखाई गई, उनमें घबराहट, उदासी को बढ़ते देखा गया. न्यूज का असर इस पर भी पड़ा कि वो अपनी चिंताओं को कैसे देखते हैं, जबकि उनकी चिंताओं का न्यूज से कोई खास लेना-देना नहीं था.
न्यूज का प्रभाव सिर्फ आपकी मेंटल हेल्थ तक सीमित नहीं है. स्टोरीज जो एक तरह का आतंक फैलाती हैं, उस कारण स्ट्रेस हार्मोन कॉर्टिसोल रिलीज होता है, जो आपके इम्यून सिस्टम को प्रभावित करता है. आपका शरीर क्रोनिक स्ट्रेस की अवस्था में पहुंच जाता है. कॉर्टिसोल का हाई लेवल खराब पाचन, हार्मोनल नुकसान और कई तरह की बीमारियों का शिकार बना सकता है.
कैसे रखें अपना ख्याल?
एक्सपर्ट कहते हैं कि हरेक शख्स अलग होता है.
अगर आपको लगता है कि आप हालात से निपट नहीं सकते हैं, तो बेहतर होगा कि उससे दूरी बना लें. ये जरूरी है कि हरेक शख्स के अलग रिएक्शन को पहचाना जाए और उसे अपनाया जाए. हमें उन्हें इस तरह प्रोत्साहित करना चाहिए कि वो इससे निपटने का अपना रास्ता निकाल सकें.डॉ कामना छिब्बर
एक कदम पीछे खींच लें. न्यूज देखने को सीमित करें. क्रेडिबल सोर्सेज से न्यूज देखें न कि सोशल प्लेटफॉर्म पर शेयर किए जा रहे वीडियोज, पोस्ट को अहमियत दें. ऐसी खबरों को फॉरवर्ड करने से बचना चाहिए, जो प्रामाणिक नहीं लगती हैं. प्यार और सपोर्ट के लिए अपनों के करीब जाएं.
ये भी जान लीजिए कि एंग्जाइटी की ये फीलिंग थोड़े वक्त के लिए है, जो जल्द ही चली जाएगी.
साल 2005 में लंदन के 7/7 आतंकी हमले के कुछ दिनों बाद ही वहां रहने वालों के बीच एक स्टडी कराई गई. इसमें शामिल 33 फीसदी लोगों ने स्ट्रेस लेवल बढ़ने की बात कही. सात महीने बाद, एक फॉलोअप स्टडी में पाया गया कि स्ट्रेस का स्तर घट गया. इसका ये मतलब नहीं है कि चिंता पूरी तरह से खत्म हो गई और उस घटना से लोगों के विचार बदल गए. ऐसी ही स्टोरी न्यूयॉर्क में 9/11 हमले के बाद देखने को मिली.
लेकिन जो बात परेशान करने वाली है, वह है यह है, ये स्टडी कहती है कि 9/11 के हमलों के टीवी कवरेज को देखने में अधिक समय का संबंध पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर के बढ़ने से जुड़ा था.
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