आजकल प्राइवेट हॉस्पिटल पर सरकार और मीडिया आरोप लगा रही है कि वो बेईमान और मुनाफा खोर संगठन हैं, जो भोले-भाले मरीजों को उनकी सबसे मुश्किल घड़ी में शिकार बनाते हैं. मरीज भी, जो कि ज्यादातर अपनी जेब से पैसे भरते हैं, इस बात से इत्तेफाक रखते हैं. वो अपने डॉक्टरों को शक की निगाह से देख रहे हैं और उनसे ऐसे सवाल पूछ रहे हैं, जैसे पहले कभी नहीं पूछे गए.
मरीज और उनके हेल्थ केयर सर्विस प्रोवाइडर के बीच भरोसा शायद सबसे निचले स्तर पर पहुंच चुका है. यह भरोसा दोबारा कायम करने की जरूरत है, ताकि कम से कम हेल्थ केयर सिस्टम काम तो कर सके, अच्छे से काम करने की बात फिलहाल छोड़ दीजिए. अच्छी क्वालिटी की हेल्थकेयर सुविधा की उपलब्धता सभी आर्थिक वर्गों के लिए जरूरी है. ये दो अकाट्य सच हैं, जो हर विकसित समाज के लिए जरूरी हैं.
आयुष्मान भारत स्कीम इन दोनों मुद्दों का समाधान करने के लिए लागू की जा रही है, और यह काबिले-तारीफ मकसद है.
इस मकसद को आक्रामक और आकस्मिक प्राइस कंट्रोल के माध्यम से हासिल किया जाएगा. और समस्या यहीं पर है.
आइए मौलिक तथ्यों पर बात करते हैं:
तथ्य 1
भारत का प्राइवेट हेल्थकेयर सिस्टम, दुनिया में सबसे सस्ता है, और फिर भी यह विश्व स्तर की क्लीनिकल सर्विस देता है. उदाहरण के लिए, एक कार्डियक बाईपास सर्जरी, जिसका अमेरिका में 1,00,000 डॉलर खर्च आएगा, भारत में किसी भी प्राइवेट हॉस्पिटल में इसका खर्च 5,000 डॉलर आएगा. दोनों में ही क्लीनिकल नतीजे एक समान हैं.
तथ्य 2
भारत में ज्यादातर प्राइवेट अस्पतालों को फायदा होता है, लेकिन वो मुनाफाखोरी नहीं कर रहे हैं. वो 7-14% के बीच ऑपरेटिंग प्रॉफिट (EBITDA) कमा रहे हैं. निवेशकों के लिए निवेश की गई पूंजी पर रिटर्न (रिटर्न ऑन कैपिटल इम्प्लॉइड (ROCE) इकाई अंक में है. इसका कारण यह है कि हॉस्पिटल में भारी पूंजी निवेश की जरूरत होती है- बुनियादी ढांचा बनाने और नवीनतम मेडिकल टेक्नोलॉजी लाने, दोनों ही नजरिये से.
इसके अलावा मेडिकल टेक्नोलॉजी में तेजी से आ रहे बदलाव के चलते हॉस्पिटल्स को नियमित रूप से उपकरणों के अपग्रेडेशन में निवेश करना पड़ता है. मेडिकल टीम को नए मेडिकल प्रोसीजर और तकनीक से रूबरू कराने के लिए उनके प्रशिक्षण की जरूरत होती है. इस सबमें पैसा लगता है. इन सब चीजों को जोड़ लें, तो पाएंगे कि हमारे देश में सर्विस सेक्टर की किसी भी इंडस्ट्री के मुकाबले हेल्थकेयर सेक्टर में रिटर्न बेहद खराब है.
तथ्य 3
गरीब लोगों की सहायता के लिए चलाई जा रही ज्यादातर मौजूदा सरकारी योजनाएं बदहाल हैं, और सरकारी क्षेत्र के हेल्थकेयर के बुनियादी ढांचे का भट्ठा बैठ चुका है. हेल्थकेयर पर भारत का सरकारी खर्च सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग 1.5% है, जो अफ्रीका के उप-सहारा देशों से भी कम है.
ये फैक्ट हमें क्या बताते हैं?
वर्ल्ड क्लास की सेवा देने के लिए, जिसके लिए भारत को दुनिया में इज्जत की नजर से देखा जाता है, हॉस्पिटल पर जो खर्च आता है, वह आमतौर पर ग्राहक की नजर से ओझल रहता है. मीडिया एक तस्वीर पेश करता है कि हॉस्पिटल सिरिंज और दूसरी चीजों पर भारी मुनाफा कमा रहे हैं. लेकिन यह हकीकत एकदम उलट है. चंद घटनाओं के लिए कोई भी शख्स पूरी व्यवस्था को आसानी से कलंकित कर सकता है, लेकिन कुल मिलाकर व्यवस्था बेहतर तरीके से चल रही है. हम यह बात दावे के साथ कह सकते हैं. मरीज की सिस्टम के अंदर से भी और बाहर से भी बेहतर तरीके से देखभाल होती है.
ज्यादातर हॉस्पिटल्स मरीज के साथ ईमानदारी से पेश आते हैं- इलाज के मामले में भी और पैसे के मामले में भी. यहां तक कि ऐसे मामलों में भी जब वो ऐसा कर पाने में नाकाम हो जाते हैं, ज्यादातर अस्पतालों की बेहतर कर पाने की ख्वाहिश होती है और उनके पास सिस्टम भी होता है. राजनेताओं द्वारा वाहवाही लूटने और मीडिया द्वारा अपनी टीआरपी ऊंची रखने के फेर में लापरवाही से अस्पतालों पर मुनाफाखोरी का आरोप लगा दिया जाता है, जो कि झूठ है.
इसका हल क्या है?
आक्रामक मूल्य नियंत्रण लंबे समय में उपभोक्ता के लिए हमेशा खराब रहा है. यह सभी देशों में, सभी उद्योगों में, बार-बार साबित हुआ है. हेल्थकेयर भी इसका अपवाद नहीं है.
जब मार्केट फोर्सेज को काम करने की इजाजत दी जाती है, तो अल्प अवधि में कुछ तकलीफें उठानी पड़ती हैं, पर इसके परिणाम दीर्घकाल में उपभोक्ता के लिए नई खोज, प्रतिस्पर्धा परक और बेहतर होते हैं. हम यह नहीं कह रहे हैं कि कोई मूल्य निर्धारण दिशानिर्देश, या यहां तक कि नियंत्रण भी न हो. बल्कि हम तो यह कह रहे हैं कि मूल्य नियंत्रण तर्क संगत, क्रमिक और चुनिंदा होना चाहिए.
इस बीच, सरकार को सिस्टम में प्राइवेट हॉस्पिटल्स, क्लीनिकल ओपीनियन लीडर्स और इस स्कीम के लक्षित लाभार्थियों को शामिल कर अर्थपूर्ण चर्चा के जरिए फैसला लेना चाहिए. हमारा मानना है कि प्राइवेट हॉस्पिटल सिस्टम्स सरकार के साथ मिलकर सब्सिडाइज्ड कीमतों पर गरीबों को इलाज मुहैया कराने में काम करेगा, बशर्ते की कुछ जटिलताओं- जैसे कि बिना नौकरशाही की झंझटों में फंसे समय पर भुगतान- का समाधान कर दिया जाए.
लेकिन अगर रवैया धमकाने वाला, एकतरफा और अपारदर्शी होगा, तो इससे सिर्फ लोक लुभावन एजेंडा और प्रेस का मकसद होगा, मरीज का नहीं.
चिकित्सा क्षेत्र का बुनियादी सिद्धांत हैः मरीज को नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए. यह बात हॉस्पिटल और डॉक्टरों पर लागू होती है. यह सरकार और मीडिया पर भी लागू होनी चाहिए.
(अनस वाजिद मैक्स हेल्थकेयर की एक्जीक्यूटिव कमेटी के सदस्य हैं. डॉ. दिलप्रीत बरार स्वतंत्र क्लीनिकल कोआर्डिनेशन सर्विस प्रोवाइडर संस्था medECUBE की संस्थापक और सीईओ हैं.)
(यहां व्यक्त विचार लेखक के अपने विचार हैं. FIT ना तो इनका समर्थन करता है, ना ही इनके लिए जिम्मेदार है.)
(क्या आपने अभी तक FIT का न्यूजलेटर सब्सक्राइब नहीं किया? हेल्थ अपडेट सीधे अपने इनबॉक्स में पाने के लिए यहां क्लिक करें.)
(FIT अब वाट्स एप पर भी उपलब्ध है. अपने पसंदीदा विषयों पर चुनिंदा स्टोरी पढ़ने के लिए हमारी वाट्स एप सर्विस सब्सक्राइब कीजिए.यहां क्लिक कीजिए और सेंड बटन दबा दीजिए.)
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)