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जानिए भारत में गर्भपात कानून की हकीकत

गर्भपात को लेकर कोर्ट के वो फैसले जिनकी वजह से इस कानून में बदलाव की चर्चा तेज हुई.

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हर साल 28 सितंबर को अंतरराष्ट्रीय सुरक्षित गर्भपात दिवस (World Safe Abortion Day) मनाया जाता है. यह व्यक्ति के शरीर पर उसके अधिकार को लेकर एक अहम कोशिश होती है. यहां दो महत्वपूर्ण मामलों पर नजर डालते हैं, एक मामला हाल का ही है और दूसरा करीब एक दशक पुराना है. दोनों मामलों ने महिला के प्रजनन अधिकारों पर बातचीत के लिए मजबूर किया है.

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जब रेप पीड़िता की याचिका ठुकरा दी गई

11 सितंबर को बॉम्बे हाई कोर्ट ने एक 17 साल की रेप पीड़िता को उसके 20 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति देने से इनकार कर दिया था. कोर्ट ने मेडिकल एक्सपर्ट पैनल के फैसले के मद्देनजर लड़की की याचिका को ठुकरा दिया. पैनल ने गर्भावस्था के अंतिम चरण में जोखिम को देखते हुए गर्भ नहीं गिराने के पक्ष में फैसला किया था. मेडिकल पैनल की सिफारिश के बावजूद याचिकाकर्ता गर्भ गिराने की अनुमति के लिए अदालत पहुंची थी.

उसका तर्क था कि अगर उसे इस गर्भ को गिराने की मंजूरी नहीं दी गई, तो इससे उसके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा. इससे उसे अधिक आघात पहुंचेगा. याचिका के अनुसार याचिकाकर्ता एक कॉलेज स्टूडेंट थी, जिसका इस साल मार्च से मई के बीच यौन उत्पीड़न किया गया था.

जब कोर्ट ने जन्मजात विकारों वाले भ्रूण को गिराने की मंजूरी नहीं दी

जुलाई 2008 में हर्ष मेहता और उनकी पत्नी निकिता ने अपने 24 सप्ताह के गर्भ को गिराने की अनुमति के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था. मेडिकल रिपोर्ट में भ्रूण के हार्ट में ब्लॉकेज की बात सामने आने के बाद यह दंपती गर्भ गिराने की अनुमति के लिए कोर्ट पहुंचा था. 13 दिन के बाद कोर्ट ने मैटरनल टर्मिनेशन ऑफ प्रेगनेंसी (एमटीपी) एक्ट, 1971 का हवाला देते हुए हुए दंपती की याचिका को खारिज कर दिया.

कोर्ट की पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता मेहता और उनके स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ निखिल दतार कोर्ट के सामने ये साबित करने में असफल रहे हैं कि मेडिकल जटिलताएं किस तरह शिशु के मानसिक और शारीरिक अपंगता का कारण बन सकती हैं.

27वें सप्ताह में निकिता का गर्भ गिर गया. व्यर्थ सी लगने वाली कानूनी लड़ाई ने भारत में गर्भपात कानूनों और इससे जुड़ी चर्चा को एक बार फिर तेज कर दिया.

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भारत में गर्भपात कानूनः कुछ प्रगतिशील तो कुछ मायनों में बेकार

साल 2017 के रोहतक में हुए मामले की तरह ही साल 2015 में पैरागुए में एक मामला सामने आया था. दोनों मामलों में एक 10 साल की बच्ची से उनके सौतेले पिता ने दुष्कर्म किया था. इसके बाद दोनों मामलों में बच्चियों के गर्भपात की अनुमति मांगी गई. रोहतक मामले में बच्ची को गर्भपात की अनुमति मिल गई. जबकि पैरागुए में गर्भपात के खिलाफ कड़े कानूनों के कारण उस दुष्कर्म पीड़ित बच्ची को बच्चा जन्म देना पड़ा.

रोहतक जैसे मामले यह दिखाते हैं कि भारत कई मायनों में अन्य देशों से वास्तव में आगे है, जहां या तो गर्भपात की अनुमति नहीं है या फिर बहुत ही दुर्लभ मामलों में मंजूरी दी जाती है.

भारत में गर्भपात की वैधता के बारे में वह कौन सी एक बात है, जिसके बारे में लोगों को अवगत कराया जाना चाहिए, इस बारे में पूछे जाने पर मानवाधिकार वकील अनुभा रस्तोगी कहती हैं:

एक बात जिसे हर व्यक्ति को ध्यान में रखना चाहिए, वह यह है कि भारत में गर्भपात को कानूनी मान्यता है.
एमटीपी (MTP) एक्ट दो डॉक्टरों की सलाह के बाद गर्भावस्था के 20 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है. अगर गर्भावस्था 12 सप्ताह से कम है, तो एक डॉक्टर के परामर्श के बाद गर्भपात की मांग की जा सकती है.

यही बात 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों (उनके अभिभावकों की सहमति के साथ) और बलात्कार से गर्भवती हुई लड़की या महिला के लिए भी लागू होती है.

इसके अतिरिक्त, एक महिला कानूनी रूप से 20 सप्ताह से कम के अपने गर्भ को समाप्त कर सकती है. इसके लिए उसको अपने पति की सहमति की आवश्यकता नहीं होती है.

अगर गर्भावस्था के कारण महिला या गर्भस्थ शिशु के जीवन को किसी भी तरह का खतरा हो, तो 20 सप्ताह की सीमा के अतिरिक्त गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है. जैसा रोहतक मामले में हुआ था.

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इस मुद्दे पर रस्तोगी कहती हैं:

इसमें मां की जिंदगी को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है. और अगर गर्भावस्था के कारण किसी भी तरह से उसकी जिंदगी खतरे में पड़ती है, तो कानूनी रूप से गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है. हालांकि, “जिंदगी बचाने” को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है. यह अच्छा है क्योंकि इससे संभावनाएं व्यापक हो जाती हैं.

रोहतक मामले के विपरीत इस साल के शुरू में सुप्रीम कोर्ट ने चंडीगढ़ की एक 10 साल की बच्ची की गर्भपात की याचिका को ठुकरा दिया था. बच्ची के गर्भावस्था को करीब 30 सप्ताह हो चुके थे. जब उसका गर्भ 26 सप्ताह का था, तब उसने स्थानीय अदालत का दरवाजा खटखटाया था.

इस मामले पर जसलोक, लीलावती और हिंदुजा अस्पताल की कंसल्टेंट गायनाकालॉजिस्ट डॉ रिश्मा पई जवाब देती हैं:

हर मामला अलग होता है. दुष्कर्म के मामलों में गर्भपात की अनुमति होनी चाहिए, विशेषकर उन मामलों में जिसमें पीड़ित की उम्र कम हो. इस विशेष मामले में बच्ची हृदय संबंधी समस्याओं और कुपोषण से ग्रस्त रह चुकी थी. हमें इस मामले में डॉक्टर के विवेक पर विश्वास करना चाहिए.

इसके अलावा साफ तौर पर 20 सप्ताह की सीमा के साथ दिक्कतें हैं. जैसा कि चंडीगढ़ मामले में था. तकनीक के दौर में यह काफी अप्रचलित या पुराना लगता है. ऐसे समय जब आप तकनीक के जरिये भ्रूण के विकास पर बहुत करीब से नजर रख सकते हैं, जो चार दशक पहले तक संभव नहीं था.

अगर भ्रूण में किसी तरह की विसंगति या विकार है, तो इसके बारे में 20 सप्ताह के बाद ही पता लगाया जा सकता है. भारत में अगर कोई महिला 20 सप्ताह से ज्यादा का गर्भ गिराती है, तो वह दंडनीय अपराध कर रही है. इसके लिए उसे 10 साल तक की कैद हो सकती है.

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उचित मेडिकल देखरेख में हो गर्भपात

गर्भपात से भविष्य में आपकी प्रजनन क्षमता प्रभावित नहीं होगी. हां, यह एक व्यापक मिथक है, लेकिन यह बहुत पहले ही टूट चुका है. अगर गर्भपात बेहतर और प्रशिक्षित डॉक्टरों की देखरेख में किया जाए, तभी यह एक सुरक्षित प्रक्रिया है.

यह गर्भधारण की अवधि पर निर्भर करता है, गर्भपात के दो व्यापक तरीके हैं- एक गोली के जरिये और दूसरी सर्जरी, जिसकी प्रक्रिया थोड़ी जटिल है.

गर्भपात के कारण शरीर पर लंबे समय में पड़ने वाले अतिरिक्त प्रभावों के विषय में डॉ पई कहती हैं:

गर्भपात एक जटिल प्रक्रिया है जिसमें खून निकलना, संक्रमण और अन्य इंजरी शामिल है. ये  साइड इफेक्ट लंबे समय में दूसरी समस्याओं को पैदा कर सकते हैं.

मेडिकल रूप से गर्भपात एक बेहद सामान्य प्रक्रिया है, जबकि भारत के लिए इससे जुड़े सामाजिक कलंक से मुक्त होना एक कठिन लड़ाई है. खासकर उन मामलों में जब गर्भावस्था बिना शादी के हो. इस समय इस बड़ी बाधा से पार पाना मुश्किल है.

जिस तरह आसपास गर्भपात पर चर्चा शुरू हो गई है, ऐसा लगता है अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. यह हर दिन गुजरने के साथ ही बढ़ता जा रहा है.

सामाजिक बाधा के विषय पर डॉ पई एक आशावादी तस्वीर पेश करती हैं:

डॉ यह समझते हैं कि जो व्यक्ति इससे गुजरता है, उसके लिए गर्भपात एक भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से पीड़ादायक अनुभव है. वे (डॉक्टर) नैतिक या न्यायिक नहीं होना चाहते हैं. इन सब के बीच यह हमारे काम का हिस्सा है, जब हम मेडिकल स्कूल में प्रवेश करते हैं, तब से हमें इसके बारे में पता चलता है. अपने जीवन में हम ऐसे सैंकड़ों मामलों से निपटते हैं. 

(इनपुट- पीटीआई)

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