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Doctor’s Day 2019: डॉक्टर्स के खिलाफ हिंसा खत्म किए जाने की जरूरत

ये याद रखना चाहिए कि डॉक्टर और पेशेंट के रिश्ते में भरोसा बहुत जरूरी है.

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(हर साल 1 जुलाई को नेशनल डॉक्टर्स डे मनाया जाता है. इस साल 2019 के डॉक्टर्स डे की थीम डॉक्टरों के खिलाफ होने वाली हिंसा पर आधारित है, Zero Tolerance to Violence Against Doctors and Clinical Establishment.)

डॉक्टर बनना आसान नहीं है, ये कभी आसान नहीं था. कई सालों तक चलने वाली थकाऊ ट्रेनिंग, काम का कोई समय न होना और मेहनताना, जो आम धारणा से अलग कभी भी खर्च किए गए वक्त और एनर्जी के बराबर नहीं होता.

इसके साथ ही भारत में डॉक्टर पब्लिक की हिंसा और गुस्से का भी शिकार होते हैं. डॉक्टर्स ये बात समझते हैं कि हेल्थकेयर की लागत पर रेगुलेशन की जरूरत है, क्वालिटी कंट्रोल के लिए जांच और संतुलन की जरूरत के बारे में शायद वे पेशेंट से ज्यादा परवाह करते हैं.

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वो रोजाना इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी और हेल्थकेयर पर कम खर्च से निपटते हैं. इसका असर उनकी प्रैक्टिस, परफॉर्म करने की क्षमता और उनकी कड़ी मेहनत के नतीजे पर पड़ता है.

जो चीज उपलब्ध है, उससे काम चलाना डॉक्टरों ने सीख लिया है और भारतीय डॉक्टर 'जुगाड़' या 'एडजस्ट कर लो' जैसी बातों से अनजान नहीं है. ये बात सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर और प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले दोनों डॉक्टरों के लिए सच है.

हेल्थकेयर पर बहुत कम सरकारी खर्च का मतलब गवर्नमेंट हॉस्पिटल्स में खराब इंफ्रास्ट्रक्चर और मानव संसाधन की कमी है, जिसके कारण लोग प्राइवेट हेल्थकेयर की ओर रुख करने को मजबूर होते हैं.

प्राइवेट हेल्थकेयर प्रतिष्ठानों, जो असल में ज्यादातर भारतीयों के स्वास्थ्य की देखभाल करते हैं, उन्हें नफरत और शक की नजर से देखा जाता है.

इसलिए जो गुस्सा असल में सरकार के खराब इंफ्रास्ट्रक्चर के प्रति होता है, वो सफेद कोट पहने शख्स पर निकलता है, जो खुद उसी सिस्टम का शिकार है, जिसके कारण आप दिक्कतें झेल रहे होते हैं.

शिकायतों पर कार्रवाई लोगों का अधिकार है, लेकिन किसी डॉक्टर के खिलाफ शारीरिक हिंसा, जो गंभीर हालात में अपनी ड्यूटी कर रहा हो, को माफ नहीं किया जा सकता है.

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइनजेशन के मुताबिक 8 फीसदी- 38 फीसदी हेल्थकेयर वर्कर्स ने रिपोर्ट किया कि उन्होंने अपने करियर में कभी न कभी शारीरिक हिंसा का सामना किया है.

अगर आप इसमें मौखिक दुर्व्यवहार, संपत्ति को नुकसान, तोड़-फोड़ और सोशल मीडिया एब्यूज जोड़ते हैं, तो आंकड़े और बढ़ जाएंगे.

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डॉक्टर और पेशेंट के रिश्ते इस स्तर पर आ चुके हैं कि पीजीआई चंडीगढ़ ने अपने डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए बाउंसर नियुक्त करने का फैसला किया.

भारत के शहरों में डॉक्टरों के 'रैपिड रिस्पॉन्स टीम' बनाए जाने की खबरें आती हैं और जाहिर है अनियंत्रित भीड़ को संभालने के लिए इसकी जरूरत भी है.

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दोराहे पर खड़ा मेडिकल प्रोफेशन

जबकि ये उम्मीद की जाती है कि डॉक्टर परोपकारी हो, लालच से ऊपर हो और भगवान की तरह हो, लेकिन फिर भी वो शक, तिरस्कार, हंसी और निश्चित तौर पर बदनामी और हिंसा से ऊपर नहीं है.

बढ़ते मुकदमों और हिंसा के साथ, डॉक्टर एक ऐसी प्रैक्टिस के लिए मजबूर होंगे, जिसे अमेरिकी डॉक्टर “CYA मेडिसिन” कहते हैं, जहां आप निदान और उपचार से अधिक दस्तावेज तैयार करते हैं और नैदानिक कौशल की बजाए जानबूझकर अधिक जांच पर ध्यान केंद्रित करते हैं.

इसे ऐसा समझा जा सकता है कि भले ही आपको वायरल फीवर हो, आपका डॉक्टर हर संक्रामक बीमारी की जांच कराने के लिए मजबूर होगा ताकि क्वालिटी केयर का पर्याप्त सबूत हो.

डॉक्टर और पेशेंट के बीच अविश्वास की चौड़ी होती खाई का नुकसान पेशेंट को ही उठाना पड़ता है.

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'मरीजों को मजबूरन प्राइवेट हेल्थ इंश्योरेंस की ओर जाना पड़ेगा'

हेल्थकेयर सिस्टम की नाकामी का असर ये होगा कि मरीजों को मजबूरन प्राइवेट हेल्थ इंश्योरेंस की ओर रुख करना पड़ेगा, जिसका प्रीमियम ज्यादा होगा और जो लोगों के खर्च से बाहर होगा. इस तरह हेल्थ के लिए कोई सोशल सेक्यूरिटी सिस्टम की बजाए हेल्थकेयर पर बढ़ते हुए खर्च का बोझ बड़ी चालाकी से डॉक्टर और पेशेंट की ओर शिफ्ट होता जाएगा.

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इंडिया में डॉक्टर भी उसी भ्रष्ट प्रैक्टिस से पीड़ित हैं, जो हमारे सार्वजनिक जीवन के हर पहलू में फैल चुका है.

गलत मेडिकल प्रैक्टिस, लापरवाही और भ्रष्टाचार के मामले हुए हैं और जिनकी आलोचना जरूर होनी चाहिए और दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए. लेकिन सभी डॉक्टरों को गलत समझना और उन्हें बदनाम करना भी सही नहीं है.

ये याद रखना चाहिए कि डॉक्टर और पेशेंट के रिश्ते में भरोसा बहुत जरूरी है.

डॉक्टरों पर गुस्से और भरोसा न करने का कोई मतलब नहीं है बजाए हेल्थकेयर की मुश्किलें बढ़ाने और उसे पहुंच के बाहर बनाने के.

भारत में डॉक्टर और मरीज दोनों ही हमारे हेल्थकेयर सिस्टम के पीड़ित हैं और इसके समाधान के लिए बहुत देर होने से पहले काम करना बहुत जरूरी है.

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(डॉ शिबल भारतीय फोर्टिस मेमोरियल रिसर्च इंस्टिट्यूट, गुरुग्राम में Ophthamology सर्विसेज के सीनियर कंसल्टेंट हैं.)

(ये आर्टिकल सबसे पहले FIT पर 24 अप्रैल, 2018 को पब्लिश हुआ था, जिसे हिंदी में अनुवाद किया गया है.)

(ये लेखक के अपने विचार हैं. फिट न तो इसका पक्ष लेता है और न ही इसके लिए जिम्मेदार है.)

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