गुजरात विधानसभा चुनाव (Gujarat Election 2022) ने प्रदेश का सियासी पारा बढ़ा दिया है. कांग्रेस और बीजेपी के साथ ही आम आदमी पार्टी, AIMIM भी चुनाव में ताल ठोक रही है. सभी राजनीतिक पार्टियां वोटर्स को रिझाने के साथ ही जातिगत समीकरण बैठाने में जुटी हैं. ऐसे में बात करेंगे गुजरात के दलित वोट बैंक की, जिनका प्रदेश की 25 सीटों पर दबदबा माना जाता है. साथ ही जानने की कोशिश करेंगे कि सरकार बनाने में इनका कितना योगदान रहता है.
गुजरात में दलित और सियासी समीकरण
गुजरात में दलित समुदाय की आबादी प्रदेश की कुल आबादी का महज आठ फीसदी है. प्रदेश की कुल 182 विधानसभा सीटों में से 13 सीटें उनके लिए रिजर्व हैं. हालांकि, दलित समुदाय का प्रभाव इससे कहीं ज्यादा है. राज्य की करीब 25 सीटों पर दलित मतदाता अहम भूमिका में है. गुजरात की जो 13 सीटें रिजर्व है, उन पर दलितों की आबादी 25 फीसदी है और बाकी अन्य 12 सीटों पर 10 फीसदी से ज्यादा हैं.
1995 के चुनावों से लेकर 2017 तक की बात करें तो अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 13 सीटों में ज्यादातर पर बीजेपी ने जीत हासिल की है. 2007 और 2012 में बीजेपी ने क्रमश: 11 और 10 सीटें जीती थीं. जबकि कांग्रेस के खाते में दो और तीन सीटें आईं थीं.
लेकिन 2017 आते-आते गुजरात में दलित वोटों पर बीजेपी की पकड़ थोड़ी कमजोर हुई है. पिछले चुनाव में दलितों के लिए रिजर्व 13 सीटों में से 7 सीटें बीजेपी जीती थी जबकि पांच सीटें कांग्रेस को मिली थी. इसके अलावा एक सीट पर निर्दलीय के रूप में जिग्नेश मेवाणी विधायक बने थे, जिन्हें कांग्रेस ने समर्थन किया था.
बीजेपी, कांग्रेस, AAP में बंट सकता है दलित वोट
जानकारों का कहना है कि गुजरात में राजनीति के लिहाज से दलित समाज कन्फ्यूजन का शिकार है. माना जा रहा है कि इस बार के चुनाव में उनके वोट सत्तारूढ़ बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच विभाजित हो सकते हैं.
गुजरात में दलित संख्यात्मक रूप से अन्य समुदायों की तुलना में बड़े नहीं हैं और तीन उप-जातियों में विभाजित हैं - वंकर, रोहित और वल्मीकि.
माना जाता है कि दलित समुदाय आपस में ही बंटा हुआ है. दलितों में सबसे ज्यादा आबादी वाला वंकर समुदाय बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है. ये अधिक मुखर और शहरी हैं. वहीं दूसरे नंबर पर वाल्मीकि समुदाय है जो मुख्य रूप से साफ-सफाई के काम से जुड़ा है, विभाजित हैं.
इसके साथ ही कहा जा रहा है कि दलित समुदाय की नई पीढ़ी भ्रमित है. युवाओं का वोटिंग पैटर्न को तीनों दलों में विभाजित होगा. वोटों के बंटने से न तो किसी एक राजनीतिक दल को फायदा होगा और न ही इससे समुदाय को फायदा होगा.
गुजरात में बड़ा दलित चेहरा
दलित वोट बंटने का सबसे बड़ा कारण प्रदेश में एक बड़े दलित नेता की कमी को भी माना जाता है. कांग्रेस जिग्नेश मेवाणी के जरिए दलितों को साधने की कोशिश में जुटी है. मेवाणी एक बार फिर से वडगाम से ताल ठोंक रहे हैं. 2017 में जिग्नेश कांग्रेस के समर्थन से जीते थे और उन्होंने 19,696 मतों के अंतर से बीजेपी के उम्मीदवार को हराया था.
वहीं 2020 में कांग्रेस को तब बड़ा झटका लगा जब गढडा से विधायक प्रवीण मारू ने इस्तीफा दे दिया. 2022 में वो बीजेपी में शामिल हो गए. वहीं उपचुनाव में बीजेपी के आत्माराम परमार ने जीत हासिल की है. इस बार बीजेपी ने फिर से प्रवीण मारू को चुनाव में उतारा है.
प्रदेश में बीएसपी का कोई खास जनाधार नहीं है. फिर भी पार्टी ने उम्मीदवार उतारे हैं. वहीं चिराग पासवान की पार्टी भी चुनाव में किस्मत आजमा रही है.
क्या कहता है सर्वे?
सी-वोटर के ताजा सर्वे के मुताबिक गुजरात में 37 फीसदी दलित मतदाता बीजेपी की तरफ जा सकते हैं. वहीं 34 फीसदी कांग्रेस और 24 फीसदी AAP को वोट कर सकते हैं. 5 फीसदी दलित वोटर्स अन्य को सपोर्ट कर सकते हैं.
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