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संडे व्यू:ट्रंप से संभलें मोदी,उदार लोकतंत्र है या चुनावी सामंतवाद

खराब हालात के लिए सरकार जिम्मेदार, पढें आज के बेस्ट आर्टिकल्स

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भारत
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ट्रंप का रुख और भारत की चिंताएं

नए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के रुख से सारी दुनिया के माथे पर चिंता की लकीरें हैं.ट्रंप भारत के लिए नए मौके पैदा करेंगे या फिर वे चुनौती साबित होंगे.‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में करन थापर ने अपने कॉलम में ट्रंप को लेकर भारत की उम्मीदों और आशंकाओं का जिक्र किया है.

करन लिखते हैं कि ट्रंप का रूस के साथ दोस्ताना रिश्ते का संकेत देना भारत के लिए मुफीद साबित होगा.इससे भारत को अमेरिका और रूस दोनों को एक साथ नहीं साधना होगा.वहीं चीन के लिए उनका कड़ा रुख भी भारत के लिए सुकूनदेह होगा.

ट्रंप ने कहा था वह हिंदुओं और भारत के बड़े फैन है.देखना यह है कि यह केवल भारतीय वोटरों को लुभाने की कोशिश थी या सचमुच वह भारत के साथ संबंधों को मजबूती देंगे.जहां तक पाकिस्तान का सवाल है तो उसके खिलाफ ट्रंप के मंत्री कड़ा रुख अपनाने का संकेत दे चुके हैं.अगर पाक के खिलाफ कड़़ा कदम उठाया गया तो यह भारत का एडवांटेज होगा।

जहां तक आर्थिक मोर्चे का सवाल है तो ट्रंप का रुख भारतीय आईटी उद्योग के लिए चिंता का सबब बन गया है. हालांकि ट्रंप ने भारतीय आईटी उद्योग की नकेल कसने की कोशिश की तो यह अमेरिकी कंपनियों के लिए भी नुकसानदेह होगा.उनकी लागतें बढ़ जाएंगी.बहरहाल ट्रंप के मामले में जवाबों से ज्यादा सवाल हैं.हमें इंतजार करना होगा कि आगे वे क्या कदम उठाते हैं।

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आदिवासियों की त्रासदी

इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने ‘अमर उजाला’ में देश के आदिवासियों की त्रासदी का जिक्र किया.नंदिनी सुंदर की किताब द बर्निंग फॉरेस्ट में शामिल एक उद्धरण का जिक्र करते हुए वह लिखते हैं- आदिवासी भारतीय समाज के सबसे उपेक्षित तबके का हिस्सा हैं.

राजनीतिक लोकतंत्र और आर्थिक विकास के सात दशकों में उन्होंने गंवाया बहुत कुछ और पाया बहुत कम. वह बस्तर (छत्तीसगढ़) में आदिवासियों पर टूट पड़ी आफत का जिक्र करते हुए लिखते हैं- बर्निंग फॉरेस्ट यह जानने की कोशिश है कि सशस्त्र संघर्ष में फंसने का किसी भारतीय आदिवासी के लिए क्या मतलब है.

किताब में इस युद्ध के सभी पक्षों का अपराध दर्ज किया गया है.जुड़ुम (सलवा जुड़ुम) द्वारा गांवों को जलाने और लूटने की घटनाएं उनके द्वारा की गई हत्याएं और बलात्कार और तमाम चीजें.

गृह युद्ध की वजह से बस्तर में आदिवासी जीवन की एकजुटता पूरी तरह बर्बाद हो गई है.बस्तर के लोगों को भोज, त्योहारों, मुर्गा लड़ाई और शिकार से मिलने वाली छोटी-छोटी खुशियों की जगह डर, धमकियों संदेह और उन्माद के वातावरण ने ले ली है.

गुहा लिखते हैं- कुछ दिन पहले देश ने गणतंत्र दिवस मनाया है.हर सोचने वाले भारतीय को, गणतंत्र के वर्तमान और भविष्य को लेकर चिंतित हर नागरिक को द बर्निंग फॉरेस्ट जरूर पढऩी चाहिए.सुंदर की किताब हमारे गणतंत्र की नाकामियों को सामने लाती है कि कैसे संसद, प्रेस और न्यायपालिका जैसी लोकतंत्र की संस्थाओं के बावजूद राज्य का सबसे बुनियादी तंत्र कॉरपोरेट और राजनीतिक वर्ग के लालच और सरकारी बेरुखी के कारण नाकाम हो गया.

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पुरुषों की भागीदारी जरूरी

हिन्दुस्तान टाइम्स में ललिता पणिकर ने डोनाल्ड ट्रंप की महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी के संदर्भ में महिला विमर्श में पुरुषों की भागीदारी का सवाल उठाया है.ललिता लिखती हैं- क्या ट्रंप के माता-पिता या उनकी पत्नी या बेटी ने महिला मुद्दों के प्रति संवेदनशीलता की सीख नहीं दी होगी या फिर उन्हें स्कूल में इसकी ट्रेनिंग नहीं मिली होगी.या फिर उनके सामने किसी आदर्श महिला की तस्वीर नहीं होगी.

शायद नहीं, क्योंकि महिलाओं को मुददों खास कर उनके खिलाफ हिंसा के मुद्दों पर विमर्श में पुरुषों की भागीदारी नहीं है.यह चिंताजनक है क्योंकि भारत समेत ज्यादातर देशों में पुरुष ही महिलाओं से संबंधित नियम बनाते हैं और एजेंडा तय करते हैं.

मैं महिला मुद्दों से जुड़ी कई मीटिंगों में शामिल रही हूं और शायद ही कभी समस्याओं और समाधानों के बारे में पुरुषों की ओर से कोई आवाज सुनी है.अगर महिलाओं के खिलाफ हिंसा के विमर्श में पुरुषों को शामिल किया जाए तो यह ज्यादा प्रभावी होगा.जब तक हम महिलाओं के प्रति न्याय के मुद्दों पर पुरुषों को शामिल नहीं करेंगे तब तक हालात नहीं सुधरने वाले.

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ट्रंप के मामले में संभल कर चलना होगा

टाइम्स ऑफ इंडिया के अपने कॉलम में स्वामीनाथन एस. अंकलसरैया ने डोनल्ड ट्रंप के रंग-ढंग देख कर भारत के लिए गंभीर चिंता प्रकट की है.वह लिखते हैं- ट्रंप ने जिन देशों के शासन प्रमुखों को फोन किया उनमें भारत पांचवें नंबर था.लेकिन इस पर ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं.

उनके तेवर ठीक नहीं हैं.मोदी को फोन करने से ठीक पहले उन्होंने मेक्सिको के राष्ट्रपति को फोन कर सीमा पर दीवार बनाने में होने के वाले खर्च देने के लिए धमकाया.फोन वार्ता की सूची में कनाडा भारत से ऊपर था.लेकिन उसे भी फोन करके धमकी दी गई कि नाफ्टा संधि की शर्तों में संशोधन किया जाए ताकि अमेरिका का ज्यादा फायदा मिले.

मोदी से ट्रंप की खुशगवार बात से भी ज्यादा उम्मीद नहीं लगाई जानी चाहिए क्योंकि वह पाकिस्तान के नवाज शरीफ को जबरदस्त बंदा बता चुके हैं.ट्रंप को दोस्त चाहिए लेकिन अपनी शर्तों पर.ट्रंप 20वीं सदी में शीत युद्ध खत्म करने की गरज से अमेरिका की ओर से कायम की गई उदार व्यापारिक सहमतियों को खत्म कर देना चाहते हैं.

इससे भारत समेत उन सभी देशों को घाटा होगा जिन्हें उदार व्यापार व्यवस्था से फायदा हुआ था.आखिर एक गुस्सैल सांड़ बन चुके सुपर पावर को कैसे निपटा जाए.संरक्षणवाद और धौंस का सामना कैसे हो सकता है.इसके लिए तकनीकी बाधा जैसे डब्ल्यूटीओ नियमों और विवाद निपटाने के मैकेनिज्म का सहारा लेना पड़ेगा.

अलग-अलग मुद्दों पर अलग-अलग गठजोड़ बनाने होंगे.यूरोप और जापान को अमेरिका से डील करने में कठिनाई आएगी.ऐसे में भारत को उनका साथ पकड़ना होगा.भारत को एक ऐसे नए और अंतर्मुखी विश्वव्यवस्था के लिए खुद को तैयार करना होगा जिसमें व्यापार युद्ध होने ही हैं.

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खराब आर्थिक हालात के लिए सरकार खुद जिम्मेदार

पी चिदंबरम ने अर्थव्यवस्था की निराशाजनक तस्वीर पेश की है. इंडियन एक्सप्रेस में उन्होंने लिखा है कि नोटबंदी के जरिये सरकार ने पैर में कुल्हाड़ी मार ली है.सरकार को यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि 2016 -17 और 2017-18 में जीडीपी वृद्धि दर 6 से 7 फीसदी के बीच रहेगी.वह लिखते हैं- हर बजट किसी संदर्भ से तय होता है और यह संदर्भ परिस्थितियों से तय होता है – खास कर आर्थिक, राजनीतिक और बजट के पहले के साल के हालात से.

2017-18 का बजट एनडीए सरकार का चौथा बजट होगा और इससे पहले आरबीआई और केंद्रीय सांख्यिकी संगठन दोनों ने ताकीद की है अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी रहेगी.बजट एक खास राजनीतिक परिस्थिति में पेश किया जा रहा है.आने वाले कुछ दिनों में अहमियत वाले यूपी समेत कई राज्यों में चुनाव हो रहे हैं.

चिदंबरम ने सरकार के लिए खतरों के कई निशानों की ओर इशारा करते हुए कहा है किउसे कई गुब्बारे फूलाए रखे हैं.जैसे – किसानों के लिए कर्जा माफी, यूनिवर्सल बेसिक इनकम , कॉरपोरेट टैक्स में कटौती, बैंक के जरिये कैश ट्रांजेक्शन पर चार्ज.

चिदंबरम ने सरकार को यह सुझाया है कि वह क्या करे और क्या न करे. साथ ही कहा है कि मौजूदा आर्थिक हालातों के लिए वह यूपीए सरकार को दोषी न ठहराये. यूपीए-2 के दस सा लके कार्यकाल में आर्थिक विकास की दर 7.5 फीसदी थी और इस दौरान 14 करोड़ लोग गरीबी से बाहर निकल आए थे.

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उदार लोकतंत्र या चुनावी सामंतवाद

इंडियन एक्सप्रेस में तवलीन सिंह लिखती हैं कि हमारे गर्वीले लोकतंत्र में चुनाव मध्यकालीन सामंती योद्धाओं की लड़ाई जैसे लगने लगे हैं.राज्यों में हर कोई एक दूसरे से लड़ रहा है.पंजाब में बादल परिवार से कोई पूर्व महाराजा लड़ रहा है तो यूपी में ‘गृहयुद्ध’ की स्थिति है.

यह लोकतंत्र है या घातक सामंतवाद का खतरनाक रुप.हम मीडिया के लोगों ने क्या डेमोक्रेसी में एक न्यू नॉर्मल के तौर पर स्वीकार कर लिया है.क्या भारतीय लोकतंत्र चुनावी सामंतवाद के हाथों नष्ट होने के खतरे का सामना कर रहा है.लेकिन मैं ऐसा सोचने वाले कम लोगों में शामिल हूं.

ज्यादातर राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि ज्यादातर राजनीतिक उत्तराधिकारियों ने राज्य के लीडर के तौर पर अपना दायित्व संभाल लिया है.बैलेट बॉक्स के सामंतवाद के साथ समस्या यह है कि भले ही लोकतंत्र को वोटों के जरिये मंजूरी मिलती है लेकिन यह सामंतवाद के तौर पर ही बरकरार रहता है. आखिर में सबकुछ पैसे की लड़ाई में तब्दील होती दिखती है.2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी ने परिवार की राजनीति को तवज्जो नहीं दी थी लेकिन 2017 के विधानसभा चुनावों में उन्हें कई राजनीतिक खानदानों को स्वीकार करना पड़ा है.

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