पश्चिम बंगाल में छात्रों को बसंत पंचमी या सरस्वती पूजा का लंबा इंतजार रहता है. इस दिन को वे ‘वैलेंटाइन डे’ के रूप में देखते हैं, क्योंकि यही वो दिन होता है जब लड़के-लड़कियां एक-दूसरे से आसानी से मुलाकात कर सकते हैं.
पर सबसे पहले उन्हें शिक्षा, विद्या और ज्ञान की देवी के प्रति अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करनी होती है. विशेषकर इस दिन मां सरस्वती की पूजा को पश्चिम बंगाल के स्टूडेंट काफी गंभीरता से लेते हैं.
लिहाजा वे सच्ची शिक्षा के रास्ते में आने वाले तमाम रोड़ों को भूल जाते हैं. छात्र पूरे उत्साह के साथ अपने पाठ्यक्रम की सभी पुस्तकें, नोट पैड, पेन, पेन्सिल और रेफरेंस बुक मां सरस्वती की मूर्ति के सामने अर्पित करते हैं. इस दिन पढ़ाई-लिखाई से उनकी छुट्टी होती है, क्योंकि स्थानीय परंपराओं के मुताबिक इस दिन पढ़ाई नहीं करनी चाहिए.
एक ओर शिक्षा के माध्यमों को मां सरस्वती का आशीर्वाद मिलता है, दूसरी ओर छात्र अपनी उस मुहिम की ओर निकल जाते हैं, जिसे आम दिनों में वे पूरा नहीं कर पाते. यानी अपने दोस्तों के साथ वक्त बिताना, घूमना और मस्ती करना. खासकर किसी के प्रति अपनी चाहत का इजहार करने के लिए सरस्वती पूजा से बेहतर कोई दिन नहीं होता. लिहाजा बंगाल के ज्यादातर स्टूडेंट को इस दिन का इंतजार रहता है. आखिर युवाओं को वैलेंटाइन डे के इस विकल्प का इंतजार क्यों रहता है?
बंगाल में ‘को-एजुकेशन सिस्टम से तौबा’
जहां तक पश्चिम बंगाल के मिडिल और अपर मिडिल क्लास में स्कूली शिक्षा का सवाल है, तो यहां को-एड फ्री मतलब लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूलों को प्राथमिकता दी जाती है.
पश्चिम बंगाल के दूसरे सबसे बड़े शहर आसनसोल में पलते-बढ़ते हुए हम लोगों ने भी सोचा कि इस तरह के स्कूल विकास के लिए बेस्ट हैं. हमारी कोलकाता यात्रा इस विश्वास को मजबूत करती थी क्योंकि पश्चिम बंगाल की दूसरी जगहों की तरह वहां के भी कथित ‘एलीट’ स्कूल (डॉन बॉस्को से लेकर ला मैर्टीनियर और कार्मेल कॉन्वेंट) या तो लड़कों के लिए थे, या फिर लड़कियों के लिए.
ये शायद देश के दूसरे राज्यों की तुलना में औपनिवेशिक साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों से उबरने में पिछड़ेपन का प्रतीक था (कोलकाता साल 1911 तक ब्रिटिश साम्राज्य की राजधानी थी). राज्य के अलग-अलग हिस्सों में कई इसाई मिशनरियों और जेसुइट फ्रैटर्नीटी ने लड़के-लड़कियों के लिए अलग अलग स्कूलों को बनाए थे.
ये सोच इतनी गहरी थी, कि अपने माता-पिता और बड़ों से सलाह-मशविरा करते समय हम अक्सर उन गिने-चुने स्कूलों को नीची निगाहों से देखते थे, जहां को-एजुकेशन का सिस्टम था.
“जिन लोगों को अच्छे (लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग) स्कूलों में दाखिला नहीं मिल पाता, वही को-एजुकेशन स्कूलों में पढ़ते हैं.”
दसवीं क्लास की बोर्ड परीक्षा के बाद जब आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेज को लेकर माथापच्ची चल रही होती, तो हम आपस में कुछ ऐसी ही चर्चा करते. धीरे-धीरे ये सोच बदली, और बंगाल में खासकर कोलकाता में पिछले एक दशक में कई एलीट को-एजुकेशन स्कूल खुले हैं.
लड़के-लड़कियों की मुलाकात का कोई उपाय नहीं
पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने के नाम पर लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूलों ने लड़के-लड़कियों के दिलों में एक दूसरे के लिए गहरे अविश्वास और एक हद तक विरोध की भावना भर दी. कथित ‘एलीट’ शिक्षा के नाम पर कई पारंपरिक मामलों में तो हमारे दिलों में महिलाओं के प्रति घृणा की भावना तक भरी गई.
हमें इस बात की कोई जानकारी नहीं थी कि लड़कियां क्या सोचती और महसूस करती हैं (हमारी कल्पना के मुताबिक वो हर समय मेकअप में व्यस्त रहती हैं). हम ये भी सोचते थे कि होम साइंज जैसे विषय पढ़ने वाली लड़कियां पढ़ाई के मामले में हमसे हमेशा कमजोर हैं.
“लड़कों के बारे में भी हम ऐसा ही सोचते थे,” मेरी एक दोस्त और साथी पत्रकार ने भी एक दिन मुझसे यही कहा, जो कोलकाता के एक ऐसे ही स्कूल से पढ़ी थी, जहां सिर्फ लड़कियां पढ़ती थीं. “हम उन्हें घिनौना शो-ऑफ करने वाला समझते थे, जो हमारे स्तर के अनुरूप नहीं था. दरअसल हम जॉइंट स्पोर्ट्स मीट, कॉन्सर्ट और ऐसे दूसरे कार्यक्रमों में लड़कों के लिए तालियां बजाने से भी बचते थे, जिससे वे खुद को खास ना समझें.”
सरस्वती पूजा ही एक मौका था
काफी हद तक आज की तरह उन दिनों भी बंगाल के स्कूल लड़के-लड़कियों के एक-दूसरे के संपर्क में आने, एक-दूसरे को देखने-समझने की सारी संभावनाएं बंद कर देते थे. प्राइवेट ट्यूशन से आपस में मिलने-जुलने का थोड़ा अवसर मिलता था, लेकिन वहां भी लड़कों और लड़कियों के लिए बिना दूसरों का ध्यान खींचे, आजादी के साथ मिलने-जुलने की संभावना कम ही थी.
बंगाल में क्यों अनगिनत प्रेम-कहानियां अंजाम तक नहीं पहुंच सकीं, जब माता-पिता ने अपने बच्चों का ‘अफेयर’ उनके प्राइवेट ट्यूटर के साथ पाया!
हालांकि, पूजा के दिन बहुत कुछ बदल जाता था. लड़कों का झुंड लड़कियों के स्कूलों और हॉस्टलों के इर्द-गिर्द मंडराता. लड़कियां भी कुछ ऐसा ही करतीं. वे स्कूल-कॉलेजों के आसपास लड़कों से बातचीत करतीं, उनके साथ टहलतीं, खाना खातीं, हंसी-मजाक करतीं और तस्वीरें उतारतीं. इस दिन आपसी मुलाकातों पर कोई सामाजिक बंधन नहीं होता था.
रोमांस नेविगेट करना
पूजा के दिन भेंट-मुलाकात की आजादी पहला आनंद थी. इसके बाद पूजा-पांडालों में भटकना, लोकप्रिय गानों पर साथ नाचना, कभी-कभार भांग और दूसरे नशीले पदार्थों का सेवन करना और दावत करना, जिसका अभिन्न अंग कुल चटनी होता, आनंद के दूसरे साधन थे.
मेरा अपना बचपन ऐसी प्रेम-कहानियों का गवाह रहा है, जिन्हें सरस्वती पूजा का इंतजार रहता था. प्रेमी जोड़ों के लिए हर हफ्ते कुछ मिनटों या कुछ घंटों के लिए तो मिलना हो जाता, लेकिन एक-दूसरे के साथ पूरा दिन बिताने का मौका? सरस्वती पूजा के अलावा किसी और दिन ये मौका मिलना लगभग नामुमकिन था, जब उनके पास पढ़ाई और घर से पूरे दिन या दूर रहने की वैध वजह हो.
गौर से देखें तो वैलेंटाइन डे के दिन भी आप युवाओं के लिए ऐसी “सामाजिक मंजूरी” नहीं पाएंगे, जो पितृसत्तात्मक हो, संकीर्ण हो, लड़के-लड़कियों के बीच दूरी पैदा करती हो. शायद ये उसी दिन के लिए मंजूर है, जिस दिन हम शिक्षा, विद्या और ज्ञान की देवी, मां सरस्वती की पूजा करते हैं. शिक्षा और विकास का एक रूप ये भी है कि हम सभी इंसानों, खासकर दूसरे जेंडर के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाएं, रोमांटिक प्रेम नेविगेट करें और सम्मानपूर्वक समझदारी की ओर कदम बढ़ाएं.
Valentine’s Day स्पेशल: रवीश कुमार से जानिए ‘इश्क में शहर होना’
(क्विंट हिन्दी, हर मुद्दे पर बनता आपकी आवाज, करता है सवाल. आज ही मेंबर बनें और हमारी पत्रकारिता को आकार देने में सक्रिय भूमिका निभाएं.)